रीमा कागती निर्देशित फिल्म तलाश को देखना सिनेमा में, खासकर इस दौर के सिनेमा में एक नये अनुभव से गुजरना है। तलाश में रीमा कागती या जोया अख्तर या फरहान अख्तर या अनुराग कश्यप के नामों तक वे ही लोग पहुँच पाते हैं जिन्हें सिनेमा में नायक-नायिका के अलावा भी बहुत कुछ जानने की जिज्ञासा खास इस बात के लिए होती है कि वास्तव में यह फिल्म किस तरह की दृष्टि और समझ का परिणाम है। आमतौर पर दर्शक के पास इतनी तैयारी या फुरसत नहीं होती और सिनेमाहॉल में परदे की तरफ एक बार देखकर खो सा गया दर्शक अन्त तक तय नहीं कर पाता कि उसने अपने आनंद और मनोरंजन के नाम पर क्या प्राप्त किया या क्या खोया.. .. .. ..
मुम्बई पृष्ठभूमि में है और समुद्र के किनारे स्याह रात तेज रफ्तार से आयी एक कार अपने चलाने वाले के साथ अनियंत्रित होकर सीधे समुद्र में जा गिरती है। यह एक सितारे की मौत है और यहीं से मौत की वजह जानने का रहस्य फिल्म को लेकर चल पड़ता है। फिल्म का नायक जो कि एक पुलिस अधिकारी है, उसे यह प्रकरण सुलझाना है लेकिन उसके भटकाव में खुद उसकी जिन्दगी का हादसा भी साथ है। वह अपनी पत्नी के साथ सहज नहीं है। कहानी के मूल में एक स्त्री है जो जीवित नहीं है मगर नायक के साथ उसका मिलना-जुलना और घटनाक्रमों के सूत्रों से जुड़ते जाना रहस्य में एक दिलचस्प पहलू है।
नायक पुलिस अधिकारी अपनी पत्नी के आवेगों और उसको बहकाने का माध्यम बनी एक औरत फ्रेनी से बेइन्तहा चिढ़ता है और ठीक लगभग उसी वक्त वो एक दिवंगत छाया के साथ रहस्यों को सुलझाने के साथ-साथ अपना अकेलापन और आँसू भी बाँट रहा है। तलाश में मुम्बई के रेड लाइट एरिया के जीवन और वहाँ की कंजस्टडनेस जिसमें भय, असुरक्षा, घुटन और दुर्घटनाएँ साँस ले रही हैं, बड़े सजीव चित्रित होते हैं। आमिर खान फिल्म में ऐसे पुलिस अधिकारी बने हैं जो पूरी फिल्म में एक बार रेड लाइट एरिया के गुण्डे को मारते हैं, शेष पूरी फिल्म में तफ्तीश और सवाल-जवाब लगातार हैं। सिनेमा के हीरो की मौत के पीछे अन्त में जो कारण और खुलासे हैं वे सनसनीखेज नहीं है बल्कि इन्सानी लोभ-लालच और भरोसे तथा धोखेबाजी के इर्द-गिर्द घूमते हैं।
तलाश का रहस्य और अगले घटनाक्रम के प्रति जिज्ञासा बने रहना प्रमुख पहलू है। निर्देशक रीमा कागती ने इसे अन्त तक बनाये रखने में अपनी प्रतिभा का पूरा परिचय दिया है। वे आमिर खान कैम्प की लेखिका हैं और तलाश उनका पहला निर्देशन। उनका काम ठीक से हो जाये इसीलिए आमिर खान ने जोखिम से बचते हुए ऐसे कलाकारों, लेखकों, निर्देशकों को जोडक़र फिल्म को सम्हाला है, जिनके नाम शुरू में आये हैं। कहानी, पटकथा, संवाद लेखन में जोया, फरहान, अनुराग और आमिर के हस्तक्षेप दिखायी देते हैं।
आमिर खान ने अपनी भूमिका को तो केन्द्र में रखा ही है लेकिन अलग-अलग स्थान पर रानी मुखर्जी और करीना कपूर की भूमिकाएँ भी अर्थपूर्ण लगती हैं। गैंग ऑफ वासेपुर से चर्चित नवाजुद्दीन, तैमूर की भूमिका में सबसे अलग और अकेला कन्ट्रास्ट हैं। उनकी भूमिका नकारात्मक है और उनका किरदार एक पैर से चलने में असहज भी है लेकिन एक शातिर वृत्ति के इन्सान को उन्होंने बखूबी जिया है। फिल्म का गीत-संगीत पक्ष, जावेद अख्तर और राम सम्पत के बावजूद बड़ा कमजोर है। तलाश, संवादों और जिज्ञासाओं में सुरुचि पैदा करती है, कुल मिलाकर तीन सितारे वाली फिल्म है। यह सूझ और समझ से बनी एक सधी हुई फिल्म कही जा सकती है।
2 टिप्पणियां:
apne apni sameeksha ki shuruwat bahut achchi ki hai. vaise sameeksha padh ker talash ke prati achchi dharana ban rahi hai
आप ज़रूर देख लीजिये बबली जी। धन्यवाद।
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