मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

ग्वालियर का तानसेन समारोह: एक अविरल परम्परा की दिखायी देती सदी


सदियों की अनुभूति गौरव प्रदान करती है। किसी परम्परा का अविरल बने रहना और उसी के साथ-साथ हमारी अपनी चेतना का संगत करना, फिर उसी अनुभूति को थामे-थामे बहुत दूर नहीं, कुछ जरा पास ही दिखायी देती सदी को महसूस करना एक विलक्षण अनुभव है। 88 साल के तानसेन संगीत समारोह के विषय में सोचते हुए ऐसे अनुभव स्वाभाविक हैं। मध्यप्रदेश में तानसेन समारोह विदा होते साल का सबसे महत्वपूर्ण, सबकी चिन्ता और श्रद्धा में शामिल एक ऐसा उत्सव है जिसके लिए हम सभी पूरे साल सचेत रहते हैं। जैसे-जैसे इस समारोह की उम्र समृद्ध हो रही है, वैसे-वैसे एक पूरा का पूरा परिप्रेक्ष्य ही इस समारोह की गरिमा के प्रति अपने उत्तरदायित्वबोध को भी ज्यादा सजग बनाता जाता है।

तानसेन समारोह में अब एक तरह से देखा जाये तो लगभग पूरे नौ दशक ही पूर्णता के हो गये हैं। इस गरिमामयी संगीत प्रसंग का आदि अपने आपमें अनेक जिज्ञासाएँ जगाता है। एक बड़ा पुराना इतिहास है जिसके पन्ने बादामी होकर एक तरह से कालजयी दस्तावेज बनकर रह गये हैं। उन पन्नों पर अपनी स्मृतियों, कल्पनाओं और कौतुहल का हस्त-स्पर्श हमें गरिमाबोध से भर देता है। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत परम्परा की महान विभूतियों ने तानसेन संगीत समारोह के मंच पर एक महान गायक को अपनी श्रद्धांजलि डूबकर दी है। ऐसे अनेक विलक्षण कलाकार हैं जो अपने जीवनकाल में एक से अधिक बार इस मंच पर अपनी गरिमा विस्तार के क्रम में आये हैं। पहली बार जिन्हें यह सौभाग्य की तरह मिला होगा, दोबारा जब आये होंगे तब आत्मविश्वास को बढ़ा हुआ महसूस किया होगा और तब भी जब एक आश्वस्त सी प्रस्तुति करके स्वयं भी अपने आपको तृप्त करके गये होंगे।

तानसेन संगीत समारोह में गायन और वादन की विविधताओं में भी अपना एक आदरसम्मत अनुशासन रहा है जिसका पालन मूर्धन्य कलाकारों ने किया है। एक लगभग शती की आवृत्ति का अपना विहँगम है। संगीत की अस्मिता से जुड़े सभी कलाकार इस पुण्य उत्सव में आये हैं। बड़े बरसों पहले निष्णात और विद्वान कलाकार इस बात को रेखांकित करते थे कि वे तानसेन संगीत समारोह के मंच पर अपनी सहभागिता के लिए उसी तरह की प्रतीक्षा करते रहे हैं जिसका अर्थात लगभग मनोकामना से है क्योंकि एक महान कलाकार की स्मृतियों की देहरी पर शीश नवाना सच्चे कलाकारों का स्वप्न हुआ करता है। इस समारोह की सुदीर्घ परम्परा बीसवीं शताब्दी के महान संगीत रसिकों, श्रद्धालुओं और कला को संरक्षण प्रदान करने वाले राजाओं की देन है। यह परम्परा, क्रमशः कला और कला के संरक्षण के प्रति जवाबदेह रहने वाले लोगों और संस्थाओं के साथ-साथ सरकार जिसकी ओर से संस्कृति विभाग ने विनम्रतापूर्वक इसकी निरन्तरता को चिरस्थायी बनाये रखने, उसे सतत परिपक्व और नवाचारों से युक्त करने का प्रयास किया, इन सभी से स्पन्दित होती आयी है।

तानसेन संगीत समारोह की भौतिक जगह भले ही परिस्थितियों और भावनाओं से कुछ जरा-बहुत उठी-बैठी या कुछ कदम चलकर थमी हो, इसकी गरिमा के प्रति भावनात्मक जवाबदारियों और सोच में विस्तार ही हुआ है। एक बड़ी मेहनत, इच्छाशक्ति और एक तरह से वृहद, सच्ची और निष्कलुष सहभागिता के लिए उठाये जोखिमों का भी सु-परिणाम बहुत अच्छे तरीके से सामने आया है। इस पुण्य-पुनीत प्रसंग से समाज अपनी सारी सहजताओं के साथ जुड़े यह विनम्र कर्तव्य रहा है। विगत वर्षों में यह कर्तव्य और आकांक्षा साकार हुई है। संस्कृति विभाग शतायु होते इस समारोह के वैभव को और अधिक विस्तीर्ण करने के लिए निरन्तर कुछ आयामों को विस्तारित कर रहा है। ग्वालियर संगीत की साधना और समर्पण की नगरी है, राजा मानसिंह तोमर जिनकी विरासत इस अनमोल निधि को अक्षुण्ण और संरक्षित करने के लिए आज भी स्मरणीय है और संगीत सम्राट तानसेन, उनके गुरु स्वामी हरिदास जैसे साधकों से इस परम्परा को मिला अमरत्व हम सभी के लिए भी सदा प्रबल ऊष्मा की तरह है, इसे हम अत्यन्त विनम्रता के साथ मानकर समारोह सदी को देख रहे हैं..........................

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