इधर सुधीर मिश्रा ने पिछले पाँच-सात सालों में अपनी सक्रियता को बढ़ाया है। अक्सर काम की निरन्तरता इस बात के आगे की बात भी है कि दर्शक ही दरअसल आपको और तथा बेहतर काम करने के लिए प्रेरित कर रहा है। सुधीर ने जब हजारों ख्वाहिशें ऐसी बनायी थी उसके पीछे उन्होंने लम्बा अवकाश लिया था। बाद में एक साथ कई काम किए। दिवंगत अनंत बालानी की फिल्म चमेली को पूरा करने के साथ ही खोया-खोया चांद, मुम्बई मेरी जान और ये साली जिन्दगी फिल्में अपनी निरन्तरता में उन्होंने बनायी हैं। इधर बन्दिश, दिल क्या करे और राहुल में विफलताओं को आजमाकर प्रकाश झा ने भी अपहरण, गंगाजल से राजनीति तक आते-आते अपना ट्रेक पकड़ लिया। अब आरक्षण बनाते हुए वे ज्यादा आश्वस्त निर्देशक बनकर सामने आते हैं। आर्थिक और सृजनात्मक रूप से अब वे इतने आत्मनिर्भर और सुरक्षित हैं कि चार डूबते जहाजों को भी अपने समर्थन से खड़ा कर सकते हैं।
इधर अच्छे निर्देशकों की याद आती है। केतन मेहता, कुन्दन शाह, सईद अख्तर मिर्जा, गोविन्द निहलानी आदि। गोविन्द निहलानी से कुछ समय पहले मुलाकात हुई थी उस समय वे बच्चों के लिए एक दिलचस्प फिल्म कैमलू बना रहे थे। एक ऊँट की कहानी, बाल ऊँट। अभी शायद वो पूरी नहीं हुई। इधर मिर्च मसाला, भवनी भवई बनाने वाले केतन मेहता ने कुछ वर्ष पहले अपनी एक कलात्मक फिल्म रंगरसिया पूरी की मगर बड़ी आर्थिक हानि का भय उस फिल्म को बाहर नहीं आने दे रहा। एक फिल्म दस-ग्यारह वर्ष बाद सईद अख्तर मिर्जा ने बनायी है, वह भी अभी प्रदर्शित नहीं हुई है। इसी सिनेरिओ में कुन्दन शाह की याद आती है, उनकी एक खूबसूरत फिल्म कभी हाँ कभी ना की याद के साथ। वे, सईद अख्तर मिर्जा और अजीज मिर्जा, किसी जमाने में एक टीम रहे हैं। बहुत सी यादगार और दिलचस्प फिल्मों के साथ अलग-अलग हिस्सों से जुड़े रहकर उनका काम समय ने रेखांकित किया है। बाद में सभी अलग-अलग फिल्में बनाने लगे। इधर अब उनका सिनेमा गुंजाइश बाहर है।
लगता है कि इस निराश और शून्य वक्त में उन्हें काम करना चाहिए मगर सवाल यही है कि कौन संस्था या व्यक्ति इनके सृजन और दृष्टि पर धन लगाए? आजकल तो मधुर भण्डारकर भी दिल तो बच्चा है जी टाइप वाहियात फिल्म बनाकर अपने को खर्च हुआ प्रमाणित कर चुके हैं। अब यहाँ आज, कोई शशि कपूर जैसा व्यक्ति भी सक्रिय दिखायी नहीं देता जो काबिल निर्देशकों के साथ अच्छा निर्माता बनना चाहे।
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