बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

जयन्त देशमुख की कला-दृष्टि

जयन्त देशमुख की ख्याति एक जाने-माने कला निर्देशक के रूप में पिछले एक दशक में व्यापक रूप से समृद्ध हुई है। इन दिनों प्रकाश झा की फिल्म आरक्षण, जिसके भी वे कला निर्देशक हैं, के काम से उनका अनवरत भोपाल आना-जाना हो रहा है। शायद यह बात यहाँ कहना अतिश्योक्तिपूर्ण लगे, मगर यह सच भी है कि भोपाल को फिल्मकारों की सुरुचि और आकर्षण के दायरे में लाने का एक बड़ा श्रेय इस शख्स को जाता है।

पिछले एक दशक में ऐसा अनेक बार हुआ जब जयन्त ने निर्देशकों को भोपाल के बारे में बताया, लोकेशन देखने के लिए भोपाल और आसपास के स्थान सुझाये और उनको इस बात के लिए सहमत कराने की कोशिश की कि मुम्बई और दूसरे आउटडोर की अपेक्षा भोपाल और उसका परिवेश फिल्म निर्माण के लिए अनुकूल ही नहीं बल्कि उपयोगी और लाभप्रद भी है। जयन्त देशमुख अस्सी के दशक की शुरूआत में रायपुर से भोपाल रंगकर्म करने आये थे। भारत भवन स्थापित हुआ था और उसके चार प्रभागों में से एक रंगमण्डल एक नयी ऊर्जा के साथ सक्रिय हो रहा था। जयन्त उस सपने का युवा चेहरा थे। उस समय की बहुत सी यादें हैं। जयन्त को मंच निर्माण और विभिन्न रचनात्मक आकल्पन प्रकल्पों में अपना रुझान अधिक व्यक्त करने की ललक हुआ करती थी। वे अभिनेता तो थे ही मगर बाकी काम वे बिना आदेशित हुए अपनी मरजी और रुचि से ले कर किया करते थे।

रंगमण्डल के बन्द हो जाने के बाद उसके तनाव को सिरमाथे लिए रहने के बजाय उन्होंने मुम्बई का रुख करना मुनासिब समझा और मुम्बई में आरम्भ में, उस तरह की शुरूआत जैसी कि हर बेचैन और कल्पनाशील युवक की होती है, वैसी ही की। जयन्त का यह बहुत समझदार निर्णय था कि उन्होंने अपने आपको कला निर्देशक के रूप में एकाग्र किया और दिन-रात अथक परिश्रम किया। आज जयन्त अपनी उपलब्धियों, ऊँचाइयों और उस सबके साथ-साथ अपनी वही तीस साल पहले की सहजता और यारबाजी से प्रभावित करते हैं। भोपाल में जयन्त अपनी घेराबन्दी को भी महसूस करते हैं। पुराने और परिचित चेहरों में अपेक्षाएँ उनके इर्दगिर्द सार्वजनिक और एकान्त के हर क्षण का अतिक्रमण करती हैं मगर जयन्त मुकम्मल विनम्र हैं, अपनी सीमाएँ उतना समझा नहीं पाते, जितना खुद समझते हैं।

जयन्त देशमुख की दृष्टि, व्यावसायिक कला निर्देशकों से कहीं ज्यादा रचनात्मक और सर्जनात्मक है। पारम्परिक शिल्प, किताबें, पेंटिंग्स उनके काम में गरिमापूर्ण ढंग से अपनी जगह पाते हैं। पचास फिल्में और धारावाहिक कर चुका यह आर्ट डायरेक्टर प्रसंग, वातावरण, प्रवृत्ति और देशकाल के अनुरूप ऐसे स्थान, गाँव, बस्ती, मकान और घर खड़े करता है, जो वहाँ रहने वाले मनुष्यों की मन:स्थिति का जैसे पर्याय होते हैं। मकबूल, तेरे नाम, आँखें, दीवार, बवंडर, राजनीति, आरक्षण से आगे आयाम बड़े और विहँगम तक जाते हैं। तकनीकी भाषा में क्रिएशन से लेकर डिस्मेंटल तक यह शख्स अपनी आँख से सब कुछ जैसे जादूगरी में रचता है। अपनी बातों में जयन्त देशमुख कुछ बड़े सपनों पर झीना दुपट्टा डालकर दिखाते हैं। आगे और बड़ा करने का जज्बा उनका अभी पूरा नहीं हुआ है।

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