सोमवार, 21 नवंबर 2011

रविवार-सोमवार और जिन्दगी के विरोधाभास



रविवार और सोमवार के बीच अजब विरोधाभास हुआ करता है। खासकर अपने शहर भोपाल में देखा करता हूँ बरसों से। रविवार अवकाश का दिन होता है, चहल-पहल से भरा हुआ। किसी को भी काम पर जाना नहीं होता, कुछेक अपवादों को छोडक़र। अपनी तरह लोग उठते हैं, रोज की तरह दिन के साथ व्यतीत नहीं होते बल्कि दिन को अपनी तरह बरतते हैं। सबसे खास बात तो यह कि रोज की अपेक्षा बाजार ज्यादा रौनक के साथ सजता है। बहुत सारे छोटे और मझौले दुकानदारों को अवसर मिलता है, शहर में आकर अपना सामान बेचने का। सब्जी बाजार जाने कितनी लाइनों और सडक़ों में बँटा दिखायी देता है। वहीं अनाज और राशन की छोटी-छोटी दुकानें जिनमें रंग-बिरंगे मसालों का अपना विन्यास। ठेलों पर दिन भर बनते भजिए, समोसे और चटख रंग वाली जलेबियाँ। 

साप्ताहिक हाट का यह अलग आकर्षण है। सर्दी का मौसम है, बरसात के मौसम में बोयी और उगायी गयी सब्जियों की बहार हैं। भाजियों की आमद खासतौर पर भरपूर है। खासतौर पर देसी चीजें खूब आ और बिक रही हैं, देसी का अपना आकर्षण है, देसी मेथी, देसी मूली, देसी गाजर, देसी टमाटर, देसी गोभी की बहारें सुबह से ही सब्जी पसन्द और खासकर छाँटबीन कर खरीदारी करने वालों को रविवार के दिन खूब मौका देती हैं। घरों की कारें, मोटरसाइकिले, स्कूटर जो कि अब शहर में अपेक्षाकृत बहुत ही कम बचे हैं, सभी जैसे शाम होते-होते बाजार की सभी पार्किंग को लबालब भर दिया करते हैं। इसी खासी आपाधापी में व्यवस्था सुधारने निकलती ट्रैफिक पुलिस क्रेन पर सवार, माइक पर दाँए-बाँए, आमने-सामने गाडिय़ों के नाम और नम्बर लाउडस्पीकर में चिल्लाती और लगभग डाँट पिलाती हुई सडक़ों पर चारों तरफ परिक्रमा करती दिखायी देती है। लटकी-झूलती, नियम तोड़ती मोटरसाइकिलें और उनके पीछे भागते, घिघियाते या अन्त में जुर्माना भरते उनके मालिक और इन सबसे अलग, इन सबका मजा लेते तमाशबीन।

रात तक रविवार अपनी रौनक में होता है। मौसम सर्दी का है, बाजार में गजक आ गयी है। ग्वालियर से लेकर मुरैना तक की गजब का अपना आकर्षण और स्वाद है। पहले गजक के साथ रेवडिय़ों के भी चहेते हुआ करते थे, लेकिन अब रेवडिय़ाँ बिकने के बजाय, कहावतों और मुहावरों में ज्यादा इस्तेमाल होने लगी हैं। रात को आइसक्रीम की समृद्ध और भव्य दुकानों के सामने जैसे अलग ही तरह की रोशनाई दिखायी देती है। पहनावा, फैशन और जीवनशैली के विविध रूप यहाँ आते-जाते लोग निहारते नहीं अघाते। महानगरों की तरह शहरों में अब रविवार को घर पर खाना बनाने से निजात दिलाने की आपसी समझ बहुत जगह बन जाती है तो फिर ऐसे परिवार रात्रि भोजन या डिनर फिर बाहर ही करते हैं। रविवार के दिन सिनेमाघर में भी परिवार ज्यादा आजादी और आराम के साथ आया-जाया करते हैं। 

सोमवार की शाम जैसे रविवार के बिल्कुल उलट स्वरूप में होती है। एक दिन पहले की भरपूर सक्रियता और देर रात तक लगे रहने के बाद सोमवार को दुकानदार आराम करते हैं। इसी कारण एक दिन पहले जो सडक़, जो फुटपाथ और जो दुकानें जनता-जनार्दन से पल भर को फुरसत नहीं पा रही थीं, वे एक दूसरी ही स्थिति में नजर आती हैं। दुकानें बन्द होती हैं। इस यथार्थ को जानने वाला भी बाजार नहीं आता लिहाजा एक अजीब सा सूनापन या कह लीजिए सन्नाटा व्याप्त रहता है सब तरफ। कई बार ऐसे माहौल में घूमते हुए एक अजीब सा एकाकीपन महसूस होता है। हमारे आसपास से होकर कोई निकल नहीं रहा होता है। वाहनों का शोर अपेक्षा कम हो रहा होता है। फेरीवालों की आवाजें सुनायी नहीं पड़तीं। एक दिन पहले का कोलाहल और एक दिन बाद की शान्ति सचमुच परस्पर प्रतिरोधी लगती हैं। 

जिन्दगी अपनी सहजताओं, मन-बहलाव और इस दुनिया का हिस्सा बने रहने के लिए ही तो कितने सारे रंग रचती है। हम मनुष्यों के ही सृजित किए हुए ये सारे किस्से और हिस्से हैं। कभी चहल-पहल, शोर और जीवन की अपनी मनभावन विविधताओं से जैसे हमको साँस लेने की गुंजाइशें मिलती हैं। उस समय भीड़ ही हमको ऊर्जा देती है। कभी आसपास का अकेलापन, भरपूर सन्नाटा और खुद अपने को सुनायी देती पदचाप में भी घुटन और साँस लेने में तकलीफ महसूस होती है। जीवन का यह भी एक रंग है.........................

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