मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

एक खुली किताब की तरह धर्मेन्द्र का व्यक्तित्व


धर्मेन्द्र का व्यक्तित्व एक खुली किताब की तरह है। वे हमारी-आपकी तरह सहज और सीधे-सादे इन्सान हैं। फिल्म मे उनका आना, यूँ किसी बड़े सुयोग या चमत्कार से कम न रहा है। फगवाड़ा, पंजाब के एक छोटे से गॉंव ललतों में उनका बचपन बीता। बचपन से उनको सिनेमा का शौक था। अपने तईं जब उनको मौका मिलता था, तब तो सिनेमा वे देखते ही थे, इसके बाद अपनी माँ और परिवार के सदस्यों के साथ भी वे फिल्म देखने का कोई अवसर जाने नहीं देते थे। कई बार यह भी होता था कि जिस फिल्म को वे पहले देख चुके होते थे, उसको देखने उनके परिवार का कोई सदस्य जाता था, तो उसके साथ भी जाने की जिद करते थे। नहीं ले जाया जाता था, तो पीछे-पीछे चलने लगते थे। आखिरकार ले जाये जाते थे।

उन्होंने स्वयं ही बताया कि बचपन में सुरैया के वे इतने मुरीद थे कि चौदह वर्ष की उम्र में उनकी एक फिल्म दिल्लगी उन्होंने चालीस बार देखी थी। सिनेमा हॉल के भीतर फिल्म प्रदर्शन की जादूगरी बचपन में उनके भीतर कौतुहल पैदा करती। वे सोचते थे कि कैसे एक जगह से रोशनी निकलकर परदे पर गिरती है और तमाम लोग चलते-फिरते दिखायी देने लगते हैं। ऐसी पहेलियों और जिज्ञासाओं ने धर्मेन्द्र के मन में फिल्मों के प्रति आकर्षण को काफी बढ़ाने का काम किया।

धर्मेन्द्र आजादी के पहले जन्मे थे। बचपन में प्रभात फेरियों में जाना उनको खूब याद है। उनके पिता केवल कृष्ण देओल कट्टïर आर्य समाजी थे, सख्त भी। वे अपने पिता को काफी डरते थे। उनसे सीधे बात करने की हिम्मत उनकी कभी न पड़ती। जो बात भी उनको कहनी होती वाया माँ ही कहते थे। अपनी माँ के प्रति उनकी गहरी श्रद्घा रही है। उनकी बात करते हुए धर्मेन्द्र बहुत भावुक हो जाते हैं। वे बतलाते हैं कि माँ से मैं अक्सर अपने इस सपने के बारे में कहता था कि मुझे फिल्मों में काम करना है, हीरो बनना है।

उस समय मैं अभिनेता श्याम और दिलीप कुमार का बड़ा फैन था। भोली भाली माँ तब अक्सर मुझसे कह दिया करती, बेटा अरजी भेज दे। अब माँ को क्या पता कि यह काम अरजी भेजकर नहीं मिलता, लेकिन उनके नितान्त भोलेपन के पीछे की सद्इच्छा और आशीर्वाद ने ही मुझे प्रेरित किया। मैं तब अक्सर पास के रेल्वे स्टेशन पैदल जाकर फिल्म फेयर ले आया करता था। उसमें फिल्मी सितारों के चेहरे देखकर रोमांचित हुआ करता था।

एक बार एक अंक में नये सितारों की जरूरत का विज्ञापन निकला था और उसमें नये चेहरों की आवश्यकता का विज्ञापन प्रकाशित हुआ था। मेरे एक मित्र ने मुझे वो फिल्म फेयर लाकर दिया था। जब उसने यह बात बतायी तो एकबारगी मन को लगा जैसे माँ का कहा ही सच होने जा रहा है। मैंने माँ के ही आशीर्वाद से तब अपनी अरजी भेज दी थी।

अरजी भेजने के बाद धर्मेन्द्र उस समय की बेसब्री से प्रतीक्षा करने लगे, जब उन्हें बुलाया जाता। समय गुजरता रहा। उनके हिसाब से तो यह काम तुरन्त ही हो जाना था मगर देश भर से आवेदन बुलाये गये थे। कई स्तरों पर बायोडेटा छाँटे भी गये मगर यह किस्मत की कहानी ही कह सकते हैं कि अन्तिम रूप से बुलाए जाने के लिए चयनित नामों में धर्मेन्द्र का नाम भी शामिल था।

वे अपनी माँ का आशीर्वाद लेकर मुम्बई आये। इस यात्रा के लिए उनको फस्र्ट क्लास का टिकिट और फाइव स्टार होटल में ठहरने के इन्तजाम के साथ बुलाया गया था। फिल्म फेयर कलाकार की खोज कॉन्टेस्ट मे उनका आना और चयनित होना भी सचमुच माँ के आशीर्वाद का ही नतीजा था। वे इसके लिए फिल्म फेयर के तब के सम्पादक पी. एल. राव को याद करना नहीं भूलते। यह 1958 की बात है।

चयन तो उनका हो गया और फिल्म फेयर ने अपने जो स्टार घोषित किए उनमें धर्मेन्द्र भी शामिल थे मगर उनको एकदम से काम नहीं मिला। धर्मेन्द्र की पर्सनैलिटी कसरती जवान की सी थी। चीते के पंजे की तरह उनके हाथ, चौड़ा सीना, सख्त और सम्मोहन मसल्स और मछलियाँ देखकर दबी जुबान से लोग उन्हें पहलवानी का परामर्श भी देते थे। धर्मेन्द्र लेकिन जिद के पक्के थे। उन्होंने तय कर लिया था, कि अब आ गया हूँ तो वापस नहीं जाऊँगा, यहीं कुछ करके दिखाऊँगा।

ऐसे ही स्टुडियो के चक्कर लगाते, यहाँ से वहाँ आते-जाते उन्हें कई बार अर्जुन हिंगोरानी टकरा जाया करते थे। तब वे भी हीरो बनने के लिए प्रयास कर रहे थे। अर्जुन हिंगोरानी से बार-बार आमना-सामना होने से एक दूसरे से मुस्कराहट का आदान-प्रदान हुआ, फिर दोस्ती हो गयी। दोनो अपने संघर्ष और किस्से आपस में बाँटा करते। एक बार अर्जुन हिंगोरानी ने धर्मेन्द्र से कहा, यदि मैं हीरो न बन पाया तो फिल्म बनाना शुरू कर दूँगा और यदि मैं फिल्म बनाऊँगा तो हीरो तुम्हें ही लूँगा।

समय और संयोग अपनी रफ्तार से जैसे इसी योग की तरफ प्रवृत्त हो रहे थे। एज ए हीरो, अर्जुन को फिल्में नहीं मिली और वे निर्माता-निर्देशक बन गये। उन्होंने पहली फिल्म शुरू की दिल भी तेरा, हम भी तेरे। अर्जुन ने अपने वचन का पालन अपने दोस्त से किया और धर्र्मेन्द्र को हीरो के रूप में साइन किया। उस समय साइनिंग अमाउंट इक्यावन रुपए था और साथ में थीं, चाय, नाश्ते की सुविधाएँ। यह फिल्म बनी और प्रदर्शित हुई। इस फिल्म को मिली सफलता ने हिन्दी सिनेमा में एक ऐसे सितारे की आमद की थी जो अपनी पूरी शख्सियत में नितान्त नैतिक, विश्वसनीय और अपना सा नजर आता था।

पहले से ही तमाम बड़े सितारों की उपस्थिति में यदि धर्मेन्द्र ने दर्शकों को प्रभावित किया तो उसके पीछे उनकी इसी छबि, इसी पर्सनैलिटी का योगदान था। परदे पर किरदार निबाहते हुए उनका संवाद बोलना, हँसना-मुस्कराना और विशेष रूप से रूमानी दृश्यों में अपनी आँखों के सम्मोहक इस्तेमाल को दर्शकों ने बहुत पसन्द किया। उन पर फिल्माए गीतों में उनको अभिनय करते देखना, उनका गाते हुए चलना या कह लें चलते हुए गाना एक अलग ही किस्म के रोमांटिसिज्म को स्थापित करने मे सफल होता था।

अपनी पहली फिल्म मे ही धर्मेन्द्र ने जिस तरह की अपनी पहचान स्थापित की, वह दीर्घस्थायी हुई। दिलचस्प बात यह भी रही कि अर्जुन हिंगोरानी और धर्मेन्द्र की दोस्ती बड़ी मजबूती के साथ स्थापित हुई। उस समय की एक अहम फिल्म शोला और शबनम में भी धर्मेन्द्र को अर्जुन हिंगोरानी ने ही निर्देशित किया था। यह फिल्म सशक्त कहानी, जज्बाती फलसफ़े और मधुर गीत-संगीत की वजह से काफी सफल रही थी। अर्जुन हिंगोरानी ने फिर अपनी हर फिल्म में उनको नायक लिया, जैसे कब क्यों और कहाँ, कहानी किस्मत की आदि तमाम फिल्में। आज भी यह दोस्ती वैसी ही है।

मैं 8 दिसम्बर को धरम जी के ऐसे कई जन्मदिवसों का प्रत्यक्षदर्शी हूँ जिसमें अर्जुन हिंगारोनी उनसे मिलने आये, और जिस प्यार और यार के ढंग से बातें होते हुए सुनों तो सुखद विस्मय ही होता है। अर्जुन हिंगोरानी कहते हैं, मेरा यार वर्सेटाइल एक्टर है। उस जैसा एक्टर, उस जैसा इन्सान आज मिलना मुश्किल है। उसमें असाधारण प्रतिभा है जिसका इस्तेमाल तो अभी हुआ भी नहीं है। उस जैसा इन्सान हमेशा अपने चाहने वालों के दिलों में मौजूद रहता है। यह वाकई सच बात है।

भारतीय सिनेमा में धर्मेन्द्र के व्यक्तित्व की स्थापना देखा जाये तो स्वयंसिद्घा प्रतिभा की स्थापना है। धर्मेन्द्र फिल्म जगत में सपने और उम्मीदें लेकर आये थे। उनका कोई गॉड फादर यहाँ नहीं था जो उनके लिए सिफारिश करता। उनको शुरूआत में जिस तरह का संघर्ष करना पड़ा, वो कम नहीं है। जब भी वे थक-हारकर निराश होते थे तो उनको अपनी माँ की उम्मीदों से भरी आँखें याद आ जाती थीं। यही स्मरण उनको एक बार फिर संघर्ष के लिए स्फूर्त कर देता था। अपने लम्बे संघर्ष मे धर्मेन्द्र ने सिनेमा के पूरे जगत को बहुत धीरज के साथ देखा और परखा।

ऐसे कई निर्देशक थे जो आगे चलकर धर्मेन्द्र के शरणागत हुए मगर संघर्ष के वक्त उनका रुख कुछ दूसरा ही होता था। जिस फूल और पत्थर फिल्म ने समकालीन परिदृश्य में धर्मेन्द्र की दुनिया को एक रात में बदल देने का काम किया था, उस फिल्म के निर्देशक से ही धर्मेन्द्र के कड़वे अनुभव रहे मगर बड़े दिल के धर्मेन्द्र ने आगे भी किसी तरह का प्रतिवाद नहीं किया। इस फिल्म का वो शॉट सबसे ज्यादा प्रशंसनीय और मानवीर होकर उभरा था जिसमें नशे से लबालब नायक अपने घर लौटता है तो बाहर पेड़ के नीचे उसको जानने-पहचानने वाली बूढ़ी औरत बरसात और ठंड से ठिठुरती नजर आती है। यह हीरो कुछ पल को वहाँ ठिठकता है और फिर अपनी कमीज उतारकर उस बुढ़ी औरत के ऊपर डालकर लडख़ड़ाते कदमों से घर की ओर बढ़ जाता है। इस एक दृश्य ने इस महानायक के मानवीय पहलू को ही एक तरह से रेखांकित किया था। अपनी जिन्दगी में ऐसी मानवताएँ धर्मेन्द्र ने कई बार व्यक्त की हैं।

दरअसल धर्मेन्द्र शख्सियत ही उस तरह की है, जिनके सामने हर वो आदमी गहरे प्रायश्चित की मुद्रा में नतमस्तक हुआ है जिसे किसी जमाने में धर्मेन्द्र के आने वाले कल का अन्दाजा ही नहीं था। धर्मेन्द्र अपने बड़े से कमरे में सामने दीवार पर लगी माँ की तस्वीर देखकर भावुक होकर बताते हैं कि सफलता के बाद पंजाब से माँ जब बम्बई पहली बार मेरे पास आयीं तो रेल से उतरने के बाद उन्होंने मेरी फिल्म के बड़े-बड़े पोस्टर देखे तो मारे खुशी के उनके आँसू निकल आये और मूच्र्छा भी आ गयी। बाद मे उन्होंने जिस तरह से मुझे प्यार दिया, उसे बता पाना कठिन है। अपने पिता से खूब डरने के बावजूद धर्मेन्द्र उनका बहुत आदर करते रहे हैं। फिल्म के बारे मे उनसे बात करना तो दूर, सोचना तक धर्मेन्द्र के लिए तब सम्भव नहीं था।

वे बतलाते हैं कि बचपन से ही वे अपने पिता के पैर घण्टों दबाया करते थे। देर तक दबाते हुए थक जाता था तब भी वे नहीं कहते थे कि बस हुआ। बाद में जब बम्बई आ गया तो वह अवसर ही जाता रहा। फिर पिताजी जब बम्बई आये तक मैं पाँच-पाँच शिफ्टों में काम कर रहा था। देर रात अक्सर घर लौटता था, कई बार सुबह देर तक सोया करता। ऐसे ही एक दिन देर रात शूटिंग से लौटा, तो उस समय हल्की सी ले रखी थी। पिताजी के कमरे के सामने से निकला, तो न जाने कैसे पैर दबाने की याद हो आयी। मैं वैसे ही धीरे-धीरे उनके कमरे की ओर बढ़ चला और पलंग पर उनके पैर के पास बैठकर पैर दबाने लगा। पिताजी उस समय जाग रहे थे। मुझे पैर दबाता देख, वे बोले, अगर तेरे को पीने के बाद पैर दबाने की याद आती है तो रोज पिया कर.........।


2 टिप्‍पणियां:

कला रंग ने कहा…

sunilji yah rachna bhavnao se bhari hui hai, bahut sunder...

डॉ. जेन्नी शबनम ने कहा…

Dharmendra ji ko janmdin ki badhai. aapke lekh ke dwara unke vyaktitva ke un pahluon ko bhi jaana ja sakta hai jise aam log nahin jaante. dhanyawaad.