सोमवार, 5 मार्च 2012

पान सिंह तोमर : चम्बल के बीहड़ में फिर एक विडम्बना


एक बार फिर आँखों के सामने चम्बल के बीहड़ ताज़ा हो गये। बरसों पहले जब शेखर कपूर की बैण्डिट क्वीन देखने का मौका मिला था, तब चम्बल के बीहड़ अपने पूरे यथार्थ के साथ दिखायी दिए थे और अब इस बार जब तिग्मांशु धूलिया की फिल्म पान सिंह तोमर देखी। पान सिंह तोमर फिल्म का इन्तजार लम्बे समय से था क्योंकि निर्देशक ने इस वक्त पर बनाकर पूरा कर दिया था। शायद तीन बरस पहले जब इस फिल्म के नायक इरफान से उनकी तब के समय की फिल्म बिल्लू को लेकर बातचीत कर रहा था, तब उन्होंने बताया था कि वे एक महत्वपूर्ण फिल्म के सिलसिले में मध्यप्रदेश-राजस्थान सीमा के निकट लोकेशन के नजदीक धौलपुर में लम्बे समय रहकर काम पूरा करने वाले हैं। यह वही फिल्म थी। इरफान ने इस फिल्म के विषय को लेकर थोड़ा बताया था, तभी से फिल्म को लेकर जो एक दिलचस्पी जगी थी वो अब जाकर दो दिन पहले पूरी हुई जब दिल्ली में इसे देखने का मौका आया।

ऐसी अनेक जि़न्दगानियाँ हैं जिनके सपनों के साथ समाज में अच्छा सलूक नहीं हुआ। प्रतिरोधी प्रवृत्तियों ने सकारात्मक जीवन और विचार को जब-जब चोट पहुँचाने और त्रास देने का काम किया तब-तब एक न एक बड़ा प्रतिवाद हुआ। वह ऐसे भयावह रूप में सामने आया, जिसने आखिरकार सब कुछ नष्ट करके रख दिया। ऐसा बहुत बार होता है जब समाज के खलनायकों से अपना प्रतिशोध लेते हुए वो नायक भी मर जाता है, जो निर्दोष होता है। यहाँ पर खड़ा होने वाला सन्नाटा बहुत सारे सवाल करता है जिसके उत्तर हमेशा नीचे देखते सिर ही हुआ करते हैं। इन्साफ जैसे लम्बी अनुपस्थिति की चीज़ हो गया है।

पान सिंह तोमर की कहानी इसी नाम के एक बागी का साक्षात्कार करने वाले एक पत्रकार की हेकड़ी से शुरू होती है। जब यह पत्रकार उस बागी के सामने होता है तो इतना भयभीत होता है कि बस पेशाब कर देना ही बाकी रह जाता है। उसी मन:स्थिति में वह अपने सवाल करता है। पान सिंह तोमर आरम्भ के एक-दो मूर्खतापूर्ण सवालों से उसको भगाने लगता है मगर तीसरे सवाल से वह फिर अपनी बात करना शुरू करता है। एक बड़े ऊर्जावान युवा की जि़न्दगी में ऊगते हुए सपनों के साथ होने वाली छल की यह दास्ताँ है। यह धावक पहले फौज में भरती होता है मगर वहाँ उसकी खुराक को लेकर उसकी फजीहत की जाती है तो फौज के खिलाड़ी के रूप में वह अपनी बदल करवा लेता है। पान सिंह तोमर की जिन्दगी में फिर दौडऩा और पदक जीतना उसकी दुनिया को बदल देते हैं।


 उसके परिवार में माँ है, पत्नी है, बेटा है जो मुरैना के पास एक गाँव में रहते हैं। वह जब नौकरी पूरी करके लौटता है तो उसे पता चलता है कि उसके खेत, चचेरे भाई ने हथिया लिए हैं। वह माँगने जाता है तो बेइज्जत होता है, गाली खाता है और मार भी खाने की स्थितियाँ बनती हैं। अपने सारे मैडल और सर्टिफिकेट लेकर दरोगा के पास जाता है तो वह यह सब बाहर फेंक देता है और बेइज्जती भी करता है। यहीं से पान सिंह तोमर के बागी होने की कहानी शुरू होती है। लड़ाई लम्बे समय परिवार के साथ ही है, चचेरा भाई मारकाट करवा रहा है, खून बहा रहा है, बदले में पान सिंह तोमर भी वही कर रहा है। बदले के उत्तर में बदला जैसे अन्तहीन समाधान है।

इस फिल्म के रूप में हमारे सामने जैसे यथार्थ घटित होता है। बेईमान पुलिस चचेरे भाई के पक्ष में है और उसके घर में छावनी बनाकर सुरक्षा कर रही है लेकिन पान सिंह तोमर हमला करके उस पुलिस अधिकारी के भी कपड़े उतरवा देता है जिसने उसका मैडल और सर्टिफिकेट उसके सामने जमीन पर फेंक दिए थे। यहाँ पर वर्दी से माफी मँगवाने का प्रसंग काफी महत्वपूर्ण है। फिल्म का एक दूसरा पहलू यह है कि एक तटस्थ पुलिस अफसर आकर डाकुओं का समूल सफाया करना शुरू करता है। पान सिंह तोमर अपना बदला पूरा करना चाहता है लेकिन मुखबिरों और धोखेबाजों के बीच अनेक बार उसकी स्थिति बड़ी कठिन हो जाती है। पान सिंह तोमर चूँकि शुरू से ही धावक रहता है, उसके बीहड़ों में भागने के दृश्य बहुत सजीव ढंग से फिल्माए गये हैं। इरफान ने सचमुच पान सिंह तोमर को पूरा ही जी-कर बताया है इस फिल्म में।

विकास और बदलाव की तथाकथित बयार से दूर किसी गाँव और वहाँ के घरों की क्या समस्याएँ हुआ करती हैं, यह हम इस फिल्म मेें देखते हैं। निर्देशक ने बड़ी ही सूझबूझ के साथ एक-एक दृश्य फिल्माये हैं। संजय चौहान की पटकथा में सहभागी रहे तिग्मांशु ने इस फिल्म को रोचक भी बनाया है, प्रस्तुतिकरण के लिहाज से। फौज से अवकाश पर आने वाले पान सिंह के अपनी पत्नी के साथ देहाती रोमांस के रंग बड़े दिलचस्प हैं। खासतौर पर वे प्रसंग जब अन्तरंगता का इच्छुक पान सिंह घर में अपने दोनों छोटे बच्चों को लेमनचूस दिलाने के लिए दूर की दुकान पर जाने के लिए कहता है। ऐसे में सचमुच तीस-चालीस साल पहले अस्तित्व से जा चुके लेमनचूस की याद आती है। बच्चों को लेमनचूस दिलाने के प्रसंग दो-तीन बार हैं। 

पान सिंह तोमर के अपने कोच के साथ रिश्ते भी कम दिलचस्प नहीं हैं। कोच सिख है, जुबाँ पर आधी-अधूरी गाली रहती है। एक दिन आज्ञापालक पान सिंह, कोच से कह देता है, ये माँ की गाली-वाली देकर हमसे बात मत किया करो, मन को लग गयी तो हम गोली भी मार देते हैं, फिर कोच के पैर भी छू लेता है। पान सिंह बरसों बाद रिटायर होने के बाद जब बागी बन चुका होता है, उसी बीच एक मौके, अपने फौज में भरती हो चुके बेटे से मिलने जाता है। वह दृश्य बड़ा प्रभाव देता है, वह सबकी नजर बचाकर बेटे से बात कर रहा है, बेटे पर निहाल हो रहा है, अपनी पत्नी के बारे में पूछ रहा है। लौटते हुए एक बंगले के बाहर तख्ती में अपने कोच का नाम देखता है तो घर के अन्दर चला जाता है। कोच उसे समर्पण करने को कहता है जो उसे मंजूर नहीं। यहाँ पर एक डायलॉग अच्छा है, वह कहता है, सामने से निकल रहा था, नाम देखा तो गाली खाने चला आया।

पूरी फिल्म में पान सिंह तोमर का एक डाकू और बागी को अलग-अलग विश्लेषित करना बहुत महत्वपूर्ण लगता है। अपने जैसे लोगों का बागी कहा जाना उसे नागवार गुजरता है, इसीलिए वह फर्क करके बतलाता है कि बागी और डाकू में क्या फर्क है? फिल्म में पान सिंह तोमर को एक चतुर और सजग बागी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। हर वक्त धोखे को लेकर वह बड़ा सजग रहता है मगर आखिर में उसकी मौत जिस मुठभेड़ में होती है, वह धोखे का ही परिणाम होती है जो उसके सबसे विश्वसनीय साथी द्वारा किया जाता है। 


 फिल्म में अपनी तरह की कसावट है। निर्देशक ने लेखक के साथ एक अच्छी पटकथा पर काम किया है। परिवेश चम्बल का है, वहीं की बोली है, वहीं जीवन के भटकाव, जुल्म और शोषण से उपजी एक त्रासद कथा का एक तरह से पुनर्फिल्मांकन है, क्योंकि यह सच्ची कहानी जो है। इस किरदार का धावक होना सचमुच पूरी फिल्म को एक अलग ही गति देता है। पान सिंह तोमर के रूप में नायक इरफान खान ने अत्यन्त प्रशंसनीय काम किया है। वे इस तरह दीखते हैं कि किरदार होकर रह जाते हैं। दर्शक और समीक्षक लम्बे समय तक उनके इस किरदार को भुला नहीं पायेंगे। एक तरह से उनके कैरियर में यह फिल्म मील का पत्थर है। ग्लैमरस माही गिल की भूमिका पान सिंह तोमर की पत्नी की है। एक भोली ग्रामीण पत्नी के छोटे से किरदार को अच्छा रंग दिया है उन्होंने। राजेन्द्र गुप्ता, कोच बने हैं। तिग्मांशु ने किरदारों प्रभावी बनाने के लिए रंगमंच के श्रेष्ठ कलाकारों को अच्छी भूमिकाएँ दी हैं, इसलिए पूरी फिल्म यथार्थ के बड़े नजदीक लगती है। पान सिंह तोमर, वास्तव में इरफान खान के लिए ही एक बड़ी चुनौती थी, उन्होंने इसे बखूबी अन्जाम भी दिया है। 

पान सिंह तोमर, बीहड़ में भटकाव और दिशाहीनता की एक ऐसी दास्ताँ है जो पिछली सदी में अभिशप्त चम्बल में अपनी ही तरह की जाने कितनी सच्ची कथाएँ और मर्मभेदी वृत्तान्त को समेटे हुए है। जि़न्दगी के ऊबड़-खाबड़ का चम्बल के ऊबड़-खाबड़ से कभी खत्म न होने वाला कदम-ताल हमें एक बारगी फिर उस पुराने समय में ले जाता है। यह फिल्म सिनेमा के उत्कृष्ट के पक्ष में अहम सिनेमाई दस्तावेज है।
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2 टिप्‍पणियां:

saritaek nadi ने कहा…

aapki likhee sameekshaa padh kar film dekhne ki ichchhaa ho gayi hai. bahut khoob.

सुनील मिश्र ने कहा…

sarita jee, aapki prashansa se likha safal laga, bahu abharee hoon.