शनिवार, 22 जून 2013

राँझणा, दीवानगी और जज्बात की एक नयी परिभाषा


कुछ महीनों से फिल्म प्रचारक चैनलों पर राँझणा के रंगों ने लगातार आकृष्ट किया था। नायक के रूप में निहायत साधारण चेहरा भी आकर्षित कर रहा था। यूँ तो कोलावरी डी के इस गायक और पहचान को समृद्ध करने के लिए एकदम सीधे दक्षिण के सुपर स्टार रजनीकान्त के दामाद के रूप में धनुष को हम जानने की कोशिश कर रहे थे लेकिन बहुतेरों को इतना मालूम नहीं था कि तमिल सिनेमा में चार-छः साल से यह युवा ठीकठाक जमा हुआ है। इधर बहुतायात में तमिल और तेलुगु की सुपरहिट फिल्मों की कहानी और पटकथाएँ मुम्बइया सिनेमा में आयातित हो रही हैं। आमिर खान, सलमान खान और अक्षय कुमार का सितारा इसीलिए बुलन्दी पर है। इसी परिप्रेक्ष्य में खास पूर्वोत्तर की पृष्ठभूमि पर गढ़ी जाने वाली देसी प्रेमकथा के लिए धनुष को निर्देशक ने नायक लेना चाहा, यह गौरतलब है।

फिल्म में यह जता भी दिया गया है कि किस तरह नायक के पूर्वज दक्षिण से बनारस आकर बसे और पीढ़ी दर पीढ़ी पुजारी के रूप में अपना जीवनयापन करने लगे। अपने स्वभाव से मस्त और खिलन्दड़ यह हीरो छुटपन में ही रावण फूँकने का चन्दा इकट्ठा करता हुआ नायिका के घर पहुँच जाता है और उसे देखकर मोहित हो जाता है। कहानी यहीं से परवान चढ़ती है। प्रेम को हर हाल में हासिल करने के तीस साल पुराने फार्मूले से ही नायक को सफलता मिलती है लेकिन जिस तरह फिल्म यह प्रमाणित करती है कि छः-सात साल की उम्र में भी प्रेम हो सकता है उसी तरह फिल्म यह भी प्रमाणित करती है कि पाँच साल का बिछोह नायिका का प्रेम जैसे विषय में स्मृतिलोप कर देता है। नायक उसे इशारे से एक मिनट में सभी चीजों का पाँच सौ फीट दूर से स्मरण करा देता है।

राँझणा में नायक-नायिका के बीच प्रेम का तीसरा एंगल अभय देओल का किरदार है जो उन्हीं पाँच सालों में नायिका के हृदय पर काबिज होता है। इस किरदार की सीमित मगर कहानी और उजला असर देने वाली उपस्थिति तक ही फिल्म बढि़या चली आयी है। किरदार की मृत्यु के बाद नायक के प्रायश्चित, नायिका की प्रेम-निष्ठा से कहानी पटरी उतरती है। बनारस से पंजाब और पंजाब से कहानी का दिल्ली आना उस पूरे अनुभूतिपरक असर को व्यर्थ करना शुरू करता है जो हम बनारस के घाट पर, गंगा के तट पर, बनारस की पहचान वाले मूलभूत स्थानों, घरों, छलों और उड़ती पतंगों के साथ-साथ रामबारात, आरती, ध्वनियाँ, त्यौहारों के समय सजता शहर और ऐसे ही प्रसंगों के साथ जीते आये हैं। अच्छी सिनेमेटोग्राफी को इसका श्रेय है। धनुष तो खैर नायक हैं, चार अवगुन उनके नायकत्व पर कुरबान सही लेकिन स्वरा भास्कर, मोहम्मद जीशान अयूब आदि कलाकार अपने किरदारों के साथ बेहतर न्याय करते हैं, वे अधिक आश्वस्त भी लगते हैं। धनुष का विश्लेषण करते हुए रजनीकान्त को दिमाग से निकाल देना चाहिए। 


राँझणा के प्रेम-विजय के लिए किए जाने वाले उपक्रम यथार्थ में बेहद अविश्वसनीय हैं लेकिन चटख संवाद और उनका देशज आनंद देता है। उस तरह की गालियों की छूट भी ली गयी है जो अब हमें घर में भी बोलने (बकने) की लगभग स्वतंत्रता हो गयी है जिस पर नोटिस लिया नहीं जाता। साँप के फन से पिछवाड़ा खुजाने का जोखिम जैसा संवाद नायक मंत्री को बोलकर अपना शत्रु बना लेता है। संवादों में, अन्त के उस आधे घण्टे में एलीट मेच्योरिटी दिखायी देती है जब कहानी दिल्ली पहुँच जाती है और जेएनयू के उन प्रतिवादी छात्रों के आसपास ठहर जाती है जिनके मुखिया अभय देओल हैं जिनके मन में अदम्य राजनैतिक महात्वाकांक्षा है। इस जमीन पर हम जो दृश्य देखते हैं उनमें ही मूलभूत कहानी कहीं खो जाती है। नुक्कड़ नाटकों, नारेबाजियों और प्रदर्शनों के बीच राँझणा का भटकाव बोझिल करता है।

इरशाद कामिल की गीत रचनाएँ और ए.आर. रहमान का संगीत बहुत अच्छा है। गानों में रूमानी एहसास प्रबल महसूस होते हैं। सोनम कपूर के बारे में यह कहा जा सकता है कि उनको एक अच्छी फिल्म मिली है, अपने किरदार को इससे बेहतर अदा कर भी नहीं सकती थीं। अभय देओल की उपस्थिति के बारे में पहले लिख ही दिया गया है।  फिल्म की शुरुआत पूर्वदीप्ति (फ्लेश-बैक) से होती है और वह भी प्राण छोड़ते नायक के अवचेते आत्मकथ्य से, वह अपने अति-साधारण रूप-रंग पर भी बोलता है और जब अंत में फिल्म पुनः उसकी आवाज़ से पूरी हो रही होती है, एक पराजय सी लेकर वह दुनिया छोड़ रहा है, थोड़ा अवसाद महसूस होता है। 

फिल्म की शुरुआत पूर्वदीप्ति (फ्लेश-बैक) से होती है और वह भी प्राण छोड़ते नायक के अवचेते आत्मकथ्य से, वह अपने अति-साधारण रूप-रंग पर भी बोलता है और जब अंत में फिल्म पुनः उसकी आवाज़ से पूरी हो रही होती है, एक पराजय सी लेकर वह दुनिया छोड़ रहा है, थोड़ा अवसाद महसूस होता है। 

4 टिप्‍पणियां:

shashiprabha.tiwari ने कहा…

ek achcha vishleshan padhne ko mila.

kamala ने कहा…

Mujhe aapka vishleshan Bahut hi uchit laga hai...aur mai usse poori tarah se sahmat hoon.

सुनील मिश्र ने कहा…

शशिप्रभा जी, वास्तव में यह एक अच्छी फिल्म है, काश अन्त में बिखराव न होता। नायक का दिल्ली चले जाना पूरी कहानी को बिखराकर रख देता है। आपका बहुत बहुत धन्यवाद कि लिखा पसन्द आया।

सुनील मिश्र ने कहा…

कमला जी, आभारी हूँ आपकी प्रतिक्रिया के लिए। इधर कुछ समय से बनारस हिन्दी सिनेमा के लिए फिर आकर्षण बना है। दो और फिल्में हैं जो इसकी पृष्ठभूमि पर बनी हैं। आप यह फिल्म देखिए, अच्छी लगेगी, मौलिकता और उसके अलहदा असर के कारण भी।