आम जीवन की आपाधापी और आत्मकेन्द्रीयता ने सामाजिकता का सबसे बड़ा नुकसान किया है। महानगरों का तो छोडि़ए छोटे शहरों की हवा भी तेजी से बदली है। लोगों के पास समय का ऐसा अभाव हो गया है कि उसे अपने ही जान-पहचान के लोगों की खैर-कुशल जानने का वक्त नहीं मिल पाता है। अब हालचाल पूछने का चलन एक वाक्य में सिमट गया है जो अक्सर फोन पर काम साधने वाले इसी एक वाक्य से शुरूआत करके मुद्दे पर आते हैं। पृथक से हालचाल, खैर-कुशल, सेहत, परिवार, शादी-ब्याह, तकलीफ-मुसीबत पर ही बात करने के लिए न कोई मिलता है और न ही फोन करता है।
फिल्म जगत की स्थिति और भी बुरी है। बहुत कम लोग हैं जो उम्रदराज होने पर आपस में मिला करते हैं। कम बीमार, अधिक बीमार का हालचाल जानने जाते हैं या पता करते हैं। अधिक सक्रिय, कम सक्रिय या अभाव में जिन्दगी गुजर-बसर करने वालों के लिए अपना योगदान करते हैं, ऐसा अब सुनने में नहीं आता। सुख-दुख और मुसीबत में वक्त पर एक-दूसरे के साथ होना बड़ी बात है। दुर्घटनाओं में भी अब चार दिन बाद बैठ आने में सभी के लिए ज्यादा सहूलियत है। अखबारों में चार लाइनें नहीं होतीं, कहीं से पता चलता है कि जय सन्तोषी माँ फिल्म के हीरो और निर्माता आशीष कुमार नहीं रहे या अपने जमाने के मशहूर खलनायक बी एम व्यास छः माह पहले दिवंगत हो गये।
विख्यात गीतकार गुलशन बावरा ने अपनी देह अस्पताल को दान की थी। उनके नहीं रहने के बाद उनकी पत्नी अंजु दीदी ने आँखों में आँसू भरकर कहा था कि गुलशन जी जानने लगे थे कि जमाने में दिखावा अब कैसा बढ़ गया है। उनकी पंचम राहुल देव बर्मन से अच्छी दोस्ती थी, खूब मिलते-बैठते थे लेकिन पंचम के चले जाने के बाद सब खत्म हो गया। अवसाद के क्षणों में गुलशन बावरा अपनी पत्नी से कहा करते थे कि मेरा चैथा भी मत करना। औपचारिक दुनिया का सच उन्हें ऐसे आडम्बरों से दूर रहने के लिए प्रेरित करता था।
फिल्म इण्डस्ट्री में बुजुर्ग फिल्मकार, कलाकारों की कुशल क्षेम समाज को भी पता चले ऐसी कोई सूचनात्मक जिम्मेदारी निभाता कोई नजर नहीं आता। हमारे बीच बासु चटर्जी जैसे मूर्धन्य निर्देशक मौजूद हैं। नब्बे साल के वी के मूर्ति हैं जिन्होंने कागज के फूल फिल्म की सिनेमेटोग्राफी की थी। साधना, शम्मी, कल्पना कार्तिक, निम्मी हैं। वहीदा रहमान जी हैं, दिलीप साहब, श्रीराम लागू हैं। कितने लोग ऐसे होंगे जो परस्पर मिल पाते होंगे? अभी दिलीप साहब का जन्मदिन था, उस दिन उनसे घर पर मिलने वे ही तीन-चार प्रमुख कलाकार धर्मेन्द्र, सलीम खान, हेलेन, सुभाष घई आदि पहुँचे जिनसे उनके बरसों से सरोकार रहे। बहुतेरे ऐसे होंगे जिन्हें ये सब जानकारियाँ होंगी मगर हौसला, आत्मिक उदारता या इच्छाशक्ति न होगी।
कहीं न कहीं उन संस्थाओं का यह नैतिक दायित्व बनता है जो फिल्म कलाकारों के कल्याणार्थ मुम्बई में स्थापित की गयी हैं और फिल्म जगत के लोग ही जिनके पदाधिकारी या सक्रिय कार्यकर्ता हैं। वे लोग ऐसे कलाकारों की कुशलक्षेम समाज तक पहुँचाने में एक बड़ी भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं। उनके पास ऐसे कलाकारों की भी जानकारी होनी चाहिए जो आर्थिक कठिनाइयों से जूझ रहे हैं और कष्ट में हैं, उनके लिए वे समृद्ध, रसूख वाले और संवेदनशील कलाकारों से सहयोग भी मांग सकते हैं और समाज के संज्ञान में भी सीधे ला सकते हैं।
2 टिप्पणियां:
yah jaankar dukh hota hai ki aaj ke samay me insaaniyatkitani kho gai hai.sab matlab ke saathi hai. isiliya kishore daa ne kaha tha ki mera antim sanskar mumbai me nahi karana me antim dino khandwa me rahana chahata huin. Rajkumar ne bhi apane death ki suchana antim sanskar ka bad me hi batane ka kaha tha.
जयदेव जी, सम्वेदनारहित जगत में ऐसे किस्से न जाने कितने हैं। अपने-अपने समय में सभी ऐसे त्रासद वक्त से जूझते हैं जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होती या अकेलापन जी रहे होते हैं। उनका हाल जानने कोई नहीं आता।
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