इस समय प्रचार-प्रसार और तमाम तकनीकी माध्यमों में दो तरह के उदाहरण देखने को खूब मिल रहे हैं। एक तो कौन सी फिल्म कितने जल्दी करोड़ों के अर्जन से शुरूआत करती नजर आ रही है यह फिर किस तरह वह सौ करोड़ के नजदीक पहुँच रही है यह और सौ करोड़ के पार हो गयी तो फिर किस पिछली सौ-दो सौ-तीन सौ करोड़ी फिल्म के आगे-पीछे है, आसपास है या उसे कूद-फांदकर आगे जाये बगैर रुक ही नहीं रही है यह। पहली बात यह हुई। इसी के समानान्तर मसान फिल्म को देखने किस तरह तमाम बड़े सितारे गये और तारीफों के पुल बांधकर आये, यह दूसरी बात। पिछले लम्बे समय से अभिनेत्री रिचा चड्ढा ने अपनी इस नयी फिल्म के प्रति लोगों को आकृष्ट करने का काम बड़े सलीके और तरीके से किया। यह फिल्म कुछ समय पहले सिनेमाघरों में आकर गयी है। यह बात और कि इसको उतने अधिक सिनेमाघरों में नहीं लगाया गया जिस तरह दूसरी बड़ी फिल्मों को लगाया जाता है। मेरे ही शहर में एक किसी बड़े व्यावसायिक केन्द्र में प्रतिदिन अधिकतम दो या तीन प्रदर्शन इस फिल्म के शुरू हुए लेकिन देखते ही देखते इसकी दर्शक संख्या में इजाफा हुआ। सारे बड़े सितारों को मसान देखने के लिए फिल्म के निर्माता अनुराग कश्यप, निर्देशक नीरज घैवान और अभिनेत्री रिचा चड्ढा ने आमंत्रित किया। बड़े ही तरीके से उनका स्वागत किया और फिल्म प्रदर्शन के अवसरों के छायाचित्र विभिन्न प्रचार माध्यमों, समाचार पत्रों को प्रकाशन हेतु जारी किए। सबके विचारों को भी उप शीर्षक की तरह प्रस्तुत किया गया। इस तरह वास्तव में एक अच्छी फिल्म, समझदार और ऊर्जावान रिचा चड्ढा जैसे सितारों के माध्यम से जाया होने से बच गयी। समीक्षकों ने इस फिल्म को अच्छा समर्थन दिया।
सार्थक परिश्रम निरर्थक न हो, इसके लिए रिचा चड्ढा जैसे कितने सितारे होंगे जो इस बात का ख्याल रखते होंगे कि अपनी फिल्म को दर्शकों तक कैसे ले जाना है!! मैं प्रतिदिन रिचा चड्ढा के कम से कम बीस-पच्चीस ट्वीट तो पढ़ता ही रहा हूँ और मसान पर उनका निरन्तर संवाद मुझे उनकी सूझ का कायल बनाता रहा है। वास्तव में अच्छे सिनेमा को दर्शकों तक पहुँचाना जितना कठिन है, उतना ही आसान भी और उतना ही सूझ भरा भी। प्रख्यात पटकथा लेखक एवं गीतकार जावेद अख्तर ने मसान की बहुत तारीफ की और कहा है कि यह हिन्दी की अब तक की सबसे उम्दा फिल्मों में से एक है। शाबाना आजमी का भी कहना मायने रखता था कि मसान हिन्दी सिनेमा में आने वाले युग की फिल्म है। उन्होंने यह भी कहा कि मुझे गर्व है कि मैं ऐसे वक्त में जी रही हूँ जब हमारे यहाँ मसान जैसी फिल्में बनायी जा रही हैं।
यह तो खैर एक उद्देश्यपूर्ण और सार्थक फिल्म का पक्ष हुआ। इसके कुछ समय पहले दक्षिण से एक फिल्म आयी बाहुबली। एक साथ कई भाषाओं में तैयार की गयी यह फिल्म हिन्दी में भी प्रदर्शित हुई। हिन्दी में इसके वितरक करण जौहर थे जिन्हें बाहुबली की सफलता के प्रति अगाध विश्वास था इसीलिए वे भी प्रदर्शन के पहले सामाजिक सक्रियता के माध्यमों के जरिए फिल्म का प्रचार-प्रसार कर रहे थे। बाहुबली फिल्म की सफलता पिछले कुछ समय की दूसरी बाजार की फिल्मों की सफलता से बड़ा कीर्तिमान है, यह बात अलग है कि हिन्दीभाषी क्षेत्रों में उस फिल्म को उतने बड़े स्तर और कामना अनुसार दर्शक नहीं मिले जैसा सोचा गया था लेकिन इतना जरूर हुआ कि बाहुबली की कमायी ने मुम्बइया सिनेमा में करोड़ों की स्पर्धा लेकर चलने वाले सितारों, निर्माताओं और निर्देशकों में हड़कम्प जरूर मचा दिया। यह कम दिलचस्प नहीं है कि पिछले कुछ वर्षों से तेलुगु की सुपरहिट फिल्मों को हिन्दी में बनाकर मुम्बइया निर्माता और सितारों ने अपनी जगह बहुत मजबूत कर ली है फिर चाहे वो आमिर खान हों, सलमान खान हों, अक्षय कुमार हों या अजय देवगन हों। इतना ही नहीं ये सितारे और इनके निर्देशक लगातार दक्षिण से ऐसी ही सफल फिल्मों पर निगाह लगाये रहते हैं और हिन्दी में इन्हें बनाने के अधिकार हासिल करते हैं। ऐसी फिल्मों में बहुत सारा मूलभूत बिना किसी परिश्रम के दोहराया जाता है, हाँ मुम्बइया सिनेमा के दर्शकों के मिजाज के अनुरूप उतने परिवर्तन या नवाचार किए जाते हैं जितने जरूरी होते हैं। बाहुबली ने लेकिन दक्षिण से अनेक भाषाओं में ऐसा हस्तक्षेप किया कि मुम्बई फिल्म जगत को सोचने पर जरूर मजबूर किया।
कुछ समय पहले ही लोकप्रिय सिनेमा के एक बड़े सितारे सलमान खान की फिल्म बजरंगी भाईजान का प्रदर्शन हुआ। इसका रूपक ही अलग था। प्रत्येक शहर में पहले से ही इसके स्वागत की तैयारियाँ कर ली गयी थीं। वास्तव में निर्माता से लेकर वितरक तक सभी ने समय से पहले सिनेमाघर, प्रदर्शन आदि की दैनन्दिन सुनिश्चित कर ली थी। सभी का मानना था कि फिल्म सफल है ही, वह कहीं नहीं जाने वाली। इतना बुलन्द सितारा है जिसका परदे पर पहले दृश्य में आना ही सिनेमाघर में बैठे दर्शक का धीरज छुड़ा देता है। दर्शक खुशी के मारे किलकारी भरने लगता है, सीटी, ताली बजाने लगता है। फिल्म के आने के पूर्व समर्थन में लेख भी उस तरह के प्रचारात्मक ढंग से खूब छपे। सभी का मानना था कि सिनेमा व्यावसाय में एक अन्तराल के बाद फिर आंधी आने वाली है, पैसा बरसने वाला है। हुआ भी ऐसा ही। फिल्म लगी और दो-तीन दिनों में ही करोड़ों के आँकड़े उछलने लगे। जोड़-बाकी में माहिर बाजार पर नजर रखने वालों ने उसकी वृद्धि की रफ्तार का भी उसी तरह का आकलन किया और करोड़ के ऊपर करोड़ रखते हुए सैकड़ों करोड़ का महायोग प्रस्तुत कर वंचित दर्शकों को जैसे इस तरह प्रेरित किया कि घर बैठे क्या कर रहे हो, उठो और जाओ जाकर फिल्म देखो। यह प्रयोग भी सफल हुआ और दर्शकों ने बाजार के लारी-लप्पा खेल का सफल सम्मोहन प्राप्त किया। यह फिल्म भी हिट। कमायी बढ़ती ही चली गयी। जब तक फिल्म लगी रहेगी बढ़ती रहेगी। थमेगी तभी जब कोई दूसरी फिल्म आकर उसका स्थान लेगी। हालाँकि इस बात से इन्कार फिर भी नहीं किया जा सकता कि यह फिल्म बाहुबली के बाजार के आँकड़ों से प्रभावित हुए बगैर न रह सकेगी फिर भी सफलता को बाजार से तौलने वाले व्यावसायी यह खबर उड़ाकर भी खुश है कि इस फिल्म ने आमिर खान की धूम-3 से भी ज्यादा धन कमा लिया है।
बाहुबली, मसान और बजरंगी भाई जान हमारे सामने अलग-अलग किस्म के तीन उदाहरण हैं। इनमें से दो फिल्में बड़े सपाट ढंग से बाजार की चिन्ता करती हैं, बाजार का गणित लगाती हैं, बाजार की भाषा में ही गुणा-भाग करती हैं। ये दोनों फिल्में अपनी खूबियों पर शायद खुद ही नहीं जातीं। कहीं भी तरीके से हमें किसी भी अखबार में यह पढ़ने को नहीं मिलता कि इन फिल्मों की अपनी सार्थकता क्या है? ये फिल्में बेशक करोड़ों कमाये तो ले रही हैं लेकिन कितने हजार या लाख दर्शकों तक वास्तव में इनकी पहुँच हुई है इस पर वे भी बात नहीं कर पाते जो इन फिल्मों के समर्थन में व्यावसायिक आँकड़े पेश करते हैं। करोड़ों की कमायी की आँकड़ेबाजी में कहीं न कहीं दर्शक, उसका मानस या मंशा और उसकी चाहत नगण्य या गौण होकर रह गये हैं। यह अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता। सिनेमा का वजूद दर्शकों से ही है। मनोरंजन का माध्यम वह बाजार नहीं हो सकता जिसमें एक को माल बेचने के बाद तुरन्त दूसरे ग्राहक की तरफ मुँह कर के आवाज लगायी जाने लगती है। आपका दर्शक वही है और उसे आपको हर बार बुलाना है इसलिए जरूरी है कि दर्शकों के दिलों को भी छुआ जाये केवल जेब में हाथ डालने से काम नहीं चलेगा। करोड़ों कमाते, करोड़ों छुड़ाते एक समय के बाद ऐसा न हो कि इस तरह का सन्तृप्तीकरण आ जाये कि सिनेमा दर्शकों को भी कुछ ज्यादा ही विश्वसनीय ढंग से पैसे बहाने भर का माध्यम लगने लगे, इसके आगे दर्शक फिर कुछ सोचना ही बन्द कर दे।
जरूरी होगा कि मर्यादित सफलता से आगे चलकर करोड़ों अर्जन के इस वासनापूर्ण फितूर को अपने दिमाग से धीरे-धीरे दूर कर लिया जाये और जनमानस में सिनेमा के प्रति सार्थक दृष्टिकोण और विश्वास को फिर से जगाया जाये। आखिर सिनेमा का सम्बन्ध सपनों से यूँ ही नहीं जोड़ा गया। हमारे देश में जब सिनेमा का आविष्कार हुआ था और पहली बार दर्शक इकट्ठा करके अंधेरे में अचम्भा प्रकट करने वाला चलता-फिरता संसार उसके सामने प्रकट किया गया था तब हैरान आदमी की आँखें आश्चर्य से खुली की खुली रह गयी थीं। वह परदे पर आती हुई ट्रेन को देखकर डरकर जान बचाकर भागने को हुआ था। अब दर्शक सिनेमा को बखूबी समझ चुका है। क्या हमारे निर्माता, निर्देशक और सितारे भी दर्शक को उतना समझ पाये हैं?
3 टिप्पणियां:
बहुत खूब ।Seetamni. blogspot. in
दर्शकों को कुछ हासिल हो न हो लेकिन कमाकर वही देते हैं ...बहुत सही ...
"करोड़ों की कमायी में दर्शकों का हासिल" बहुत सही कहा |-
एक टिप्पणी भेजें