शुक्रवार, 15 मार्च 2013

जहन में देर तक बनी रहने वाली फिल्म


काई पो चे, एक मन में भीतर तक उतर जाने वाली फिल्म देखने का अवसर बड़े दिनों बाद जुट पाया। हालाँकि इस बीच उसकी समीक्षाएँ अंग्रेजी और हिन्दी अखबारों में खूब आ गयीं। सभी की अपनी दृष्टि और विश्लेषण था। जब खुद यह फिल्म देख चुका तो लगा कि हमारे समीक्षकों ने बड़ी जिम्मेदारी के साथ इस फिल्म में लिखा, हिन्दी में अब सिनेमा पर उतना पढऩे में नहीं आता क्योंकि बखूबी लिखे जाने की स्थितियाँ लगातार कम होती गयी हैं मगर फिर भी पूर्वाग्रही  विश्लेषण से यह फिल्म बची रही, यह बड़ी बात है।

पिछले दो-तीन सालों में सिनेमा में यह सम्भव हुआ है कि कुछ संजीदा फिल्मकार, लेखक और अभिनेताओं की जगह बननी शुरू हुई है जो इस माध्यम का अत्यन्त रचनात्मक उपयोग करने की नैतिकता रखते हैं। आप स्वयं इस बात को महसूस करते होंगे, यदि फिल्में चुनकर देख लिया करते हैं तो, कि कुछेक फिल्में तो सचमुच जिम्मेदारी के नाम पर अपनी क्षमताओं का भरपूर और बेहतर इस्तेमाल करते हुए बनायी गयी हैं। अभिषेक कपूर अभिनेता जीतेन्द्र के भाँजे हैं मगर अपने मामा, भाई और बहन से जुडऩे के बजाय पहली फिल्म में हीरो के रूप में विफल होने के बाद एक बिल्कुल अलग धरातल में उन्होंने अपनी परीक्षा दी। सुखद है कि काई पो चे के रूप में एक साहसिक प्रयोग करके उन्होंने अपनी जगह बना ली है।

काई पो चे की कहानी अब तक सभी ने देख-पढक़र जान ली है, अतएव अब उसके बारे में बात करना निरर्थक दोहराव जैसा ही होगा, लेकिन इतना जरूर कहा जाना चाहिए कि लेखक जैसे पूरे घटनाक्रम, जिन्दगियों के द्वन्द्व और कहीं न कहीं मित्रता उलझे-सुलझे रिश्तों और हादसों के बीच कहीं न कहीं बड़ी नजदीकी से जिया है। पूर्वदीप्ति में किसी फिल्म का प्रस्तुत होना हमेशा दर्शक को सजग होने के लिए विवश करता है, यहाँ पटकथा और दृश्य सृजन में बड़ी जवाबदारियाँ निहित होती हैं क्योंकि फिल्म का अन्तिम दृश्य उसी तरह फिल्मकार से एक सशक्त उपसंहार की अपेक्षा भी करता है। मित्र को लगी गोली का जख्म ओमी के दिल पर भी बड़ा गहरा है और चेहरे पर भय, पसीना और आँसू जैसे मित्र के सीने से बहे रक्त की ही बून्दें हैं।

ईशान, गोविन्द और ओमी की दोस्ती विविध स्वभावों की परस्पर मैत्री है। बहुत सारी असहमतियों के बावजूद सपने एक-दूसरे को जोड़ते हैं। ईशान की भूमिका केन्द्रीय है, दो और मित्रों के बावजूद और फिल्म के क्लायमेक्स में उसी का अन्त हो जाता है। हमारे भटकाव और कभी-कभी अचानक से हमारे विवेक को नष्ट कर देने वाला, शून्य कर देने वाला अंधत्व हमसे क्या कुछ छीन लेता है यह इस फिल्म में गहरी संवेदना के साथ बताया गया है। सपनों को गढऩे आँखों में झाँकने का मौका यह फिल्म खूब देती है। ठीक उस उम्र की दिशाहीनता जहाँ से जिन्दगी के रास्ते तय होते हों, ऐसे दृश्य शायद अपने-अपने वक्त पर हम सभी ने अपने घर में जिये हैं, काई पो चे में देखने को मिलते हैं। यही कारण है कि माता-पिता के बीच असहमतियों से जूझते-जिद्दियाते ईशान, ओमी या गोविन्द में हम अचानक अपने आपको पहचानते महसूस करते हैं। यह सुशान्त सिंह की फिल्म तो है ही, छोटे परदे का सकुचाया सा किरदार अचानक हमारे सामने एक बड़े कैनवास में अपने आपको सिद्ध करता है, साथ ही साथ यह फिल्म उन सबके बारे में भी जिज्ञासा जगाती है, जिन्होंने इस फिल्म की पटकथा मिलकर लिखी, संवाद लिखे और दृश्य-बन्ध रचे।

काई पो चे देखते हुए कुछ-कुछ क्षण के लिए भले जिन्दगी न मिलेगी दोबारा या थ्री ईडियट्स की याद आती हो लेकिन फिर भी यह एक मौलिक फिल्म है जिसमें एक साथ बहुत सारे रचनात्मक और तकनीकी प्रतिभाशालियों ने अपने काम बड़े अच्छे ढंग से किये हैं। यहाँ पर राजकुमार यादव और अमृता पुरी के उन दृश्यों की भी याद करनी चाहिए जो पढ़ाई के प्रसंग हैं, बड़े दिलचस्प लगते हैं। इसके अलावा तीनों मित्रों के मोटरसाइकिल पर शहर में जाते हुए दिखायी देते दृश्यों में भी सपनों को उनके पड़ाव की तलाश का सा बोध होता है। फिल्म के गाने तो गहरे उतरते हैं ही, स्वानंद किरकिरे ने सीधे मन को छू जाने वाला दर्शन लिखा है, खुद उन्होंने गाने गाये भी हैं, रूठे ख्वाबों को मना लेंगे, कटी पतंग को थामेंगे, हा हा है जज्बा, हो हो है जज्बा, सुलझा लेंगे उलझे रिश्तों का मांझा गाना तो अमित त्रिवेदी ने हृदयस्पर्शी लयात्मकता के साथ किया है।

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