इस फिल्म को शुरू से ही इस मान्यता के साथ देखना होता है कि यह निर्देशक का सिनेमा है बावजूद इसके कि इसमें टीवी से सिनेमा में बड़ी सम्भावनाओं के साथ आये लोकप्रिय कलाकार सुशान्त सिंह राजपूत नायक हैं। ऐसे दर्शक जो हाल के कुछ वर्षों में युवा फिल्मकारों और तकनीशियनों की प्रतिभा से प्रदर्शित होने वाले सिनेमा को समझने में लगे हैं वे दिवाकर बैनर्जी को ज्यादा जानते हैं। दर्शकों को उनकी पिछली फिल्म "शंघाई" का स्मरण जरूर होगा।
एक सदी पहले चालीस के दशक का परिवेश खड़ा करने में निर्देशक ने अपनी जिद पूरी की है और इस नाते कला निर्देशक का काम भी काबिले तारीफ माना जाना चाहिए कि उस पूरे वातावरण, तब के देशकाल और परिस्थितियों के अनुरूप परिवेश खड़ा करने में आर्ट डायरेक्टर का काम कमाल का है। निर्देशक से पहले इस नाते तारीफ उनकी की जाये तो कोई अतिश्योक्ति न होगी।
व्योमकेश बख्शी तब के समय का एक जासूस चरित्र है जिसके स्वभाव, उसके आरम्भिक जीवन की विफलताएँ, आसपास का माहौल, खासकर जहाँ वह रहता है, पास-पड़ोस सभी को लेकर जो एक तानाबाना, हमारे द्वारा विस्मृत हो चुके इसी नाम के धारावाहिक के बाद एक अलग आस्वाद में ताजा करती है यह फिल्म। अंग्रेज और जापानियों के बीच पकते षडयंत्र में दाँव पर लगे कोलकाता और उस शहर की अस्मिता को बचाने का चातुर्य फिल्म के नायक के सारे उपक्रम को देखकर ही दर्शक जान पाता है।
कालखण्ड विशेष की फिल्में बनाना अलग तरह की चुनौती का काम है। यशराज फिल्म्स निर्माता है। एक तरह से वो सारा समय जुटा कर रख दिया गया है फिल्म में। अपराध, षडयंत्र को दर्शकों तक ज्यादा प्रभाव के साथ पहुँचाने के ख्याल से ही उसको बनाते हुए पूरे बर्ताव को निर्देशक ने स्याह छायाएँ सृजित की हैं। अधिकतर प्रसंग रात के हैं, धुंधलके के हैं और अपराध का स्वभाव भी ऐसे ही सन्नाटे में जन्म लेने और जवान होने का होता है। निर्देशक फिल्म के एक स्त्री किरदार स्वस्तिका मुखर्जी के माध्यम से बड़े अपराधों में उसकी संलप्तिता, भावुक पक्ष और जरूरत के मुताबिक उत्तेजक व्यवहार को भी उपयोग में लाते हैं। हालाँकि आखिर में उसका खलनायक से रो-रोकर यह पूछना कि वो उससे प्यार करता है कि नहीं, निरर्थक और अनावश्यक ही लगता है क्योंकि गुनहगारों की भागीदारी में तमाम धोखे, षडयंत्र और बुराइयों की सीढ़ियाँ बनने के पीछे प्रेम भर तो नहीं होता, खैर।
खूबियों और सावधानियों के बावजूद फिल्म की धीमी गति और सुशान्त सिंह का बहुत काबिल साबित न हो पाना कमजोर पक्ष हैं। फिल्म के पात्र प्राय: इतनी सिगरेटें पी रहे होते हैं कि एक तरफ उसकी चेतावनी लगभग धरी ही रहती है। ऐसा लगता है कि एक कोने में अँगीठी ही जल रही हो। सुशान्त के मित्र बने आनंद तिवारी ज्यादा आश्वस्त दीखते हैं अपनी उपस्थिति में। सब कुछ के बावजूद फिल्म के खलनायक अनुकूल गुहा की भूमिका निबाहने वाले नीरज कबी ज्यादा प्रभावित करते हैं, खासकर अपनी बहुत आकर्षक आवाज, अच्छे गेटअप और किरदार को जीने के इंटलेक्चुअल अन्दाज के जरिए। खासतौर पर क्लायमेक्स में वे प्राय: हर दृश्य में दूसरे किरदारों पर भारी पड़ते हैं।
इसे यों पूरी तरह *** सितारों की फिल्म भी नहीं कहा जा सकता, हाँ ** से जरूर थोड़ी बेहतर है। इसका बाजार भी सम्भवत: उत्साहजनक न होगा लेकिन फिर एक बात कहनी होती है कि समझ के साथ सिनेमा को बनाने की ऊर्जा अच्छे निर्देशकों में बनी रहे, इस नाते इस फिल्म को देखना चाहिए बिना बहुत ज्यादा ऊबे।
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