उस समय जब ज्यादातर मेरा लिखा खारिज हो जाया करता था, खारिज किए जाने के पक्ष में खारिज करने वाला कुछ न कुछ बताता जरूर था। उन्हें वैसे भी कोई चिन्ता, डर या लिहाज भी नहीं था क्योंकि सामने एक साँवला खिसियाया सा युवक होता था जो बड़ी दूर अपने घर से सायकिल चलाकर हाँफता हुआ प्रेस के दफ्तर तक आता था। बाहर जहाँ जगह मिले अपनी सायकिल खड़ा कर दिया करता था। वह दरवाजे के आदमी को भी नमस्ते करके पहचान बनाने का प्रयास करता था।
भीतर फिर यही होता कि जो लिखकर लाये, अतिरेक आदर और श्रद्धा में भरकर, भीतर से न जाने क्यों कुछ भयभीत भी, शायद इसी कारण से कि पढ़ने के बाद न जाने क्या उत्तर आये, खड़ा धड़कते दिल से प्रतीक्षा करता। उनकी निगाहें देखता जो सिर के साथ लाइन दर लाइन गतिमान होतीं। कभी जवाब मिलता, ठीक है। कभी, देखते हैं। कभी, देखेंगे। कभी यह भी कि बड़ा बचकाना टाइप लिखा है, हमारे यहाँ नहीं चलेगा। पहले पैराग्राफ बदलने का शऊर नहीं होता था, इतना समझ में भी नहीं आता था कि पैराग्राफ कहाँ से बदलना है। जिन्दगी ने कुछ रास्ते यहाँ-वहाँ से उठाकर जिस तरह बदले थे, उनको भी तब नहीं समझ पाया था। पता नहीं वे पैराग्राफ की तरह थे या नहीं लेकिन अपने सारांशों में भी छीनने-छुड़ाने के साथ कुछ थमा देने का भी काम रहा करता था।
जो छीना-छुटाया गया, वो भी और जो थमाया गया वो भी, दरअसल सभी बिना सोचे-समझे समेटे रहा। बड़े अन्तराल बाद यह ध्यान आया कि बिना पैराग्राफ छोड़े या बदले, लिखे चले जाने को ही जिन्दगी कहा जाता है शायद। पैराग्राफ छूटते हैं तो वही छूटने-छुड़ाने-थमाने का सिलसिला होता है। उस समय मुझसे यह भी कहा जाता था कि पैराग्राफ न छोड़ने की तुम्हारी आदत ऊबाने लगती है, कुछ ने कोफ्त होने लगती है भी कहा था। बाद में उन सबकी बात मनवा लेने की क्षमता ने इतनी अकल दे ही दी कि कुछ दूरी तय करके पैराग्राफ छोड़ दिया करूँ। अब तक यही करता आया हूँ।
एक समय अपने आप पर यही सोचकर हँस गया कि अब तक दिमाग में यही क्यों बैठा रहा? बिना पैराग्राफ छोड़ने दूरी क्यों तय नहीं कर पाया? अंधेरे में जागते हुए भी इसके उत्तर नहीं मिले। अंधेरा आश्वस्त कर दिया करता है कि नींद पगडण्डी में खड़ी बैलगाड़ी में बिछी हुई है। चार कदम अंधेरे में चलकर उस बिछी नींद में आपको पड़ जाना है। मैं उस बिछी नींद में पड़ा भी पैराग्राफ नहीं छोड़ पा रहा, जाने क्यों..............
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