मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

सत्यदेव दुबे का निधन रंगमंच की अपूरणीय क्षति


पण्डित सत्यदेव दुबे का निधन हिन्दी रंगमंच और उसके सशक्त-सबल पक्ष को होने वाली असाधारण क्षति है, यह बात उनके नहीं रहने की खबर सुनते ही तत्काल ज़हन में कौंधती है। कुछ समय से वे बीमार थे। लगभग दो साल पहले मुम्बई में पृथ्वी थिएटर ने उनके प्रति आदरांजलि व्यक्त करते हुए एक लगभग सात दिन का रंग समारोह भी आयोजित किया था, जिसमें उनके अवदान पर प्रदर्शनी भी लगायी गयी थी। दुबे जी दशकों से मुम्बई रह रहे थे और हिन्दी रंगमंच और सार्थक सिनेमा के लिए काम कर रहे थे। प्रख्यात फिल्मकार श्याम बेनेगल से उनकी गहरी मित्रता थी, श्याम बाबू दुबे जी की कलम के पारखी और समर्थक थे। दुबे जी ने श्याम बाबू, गोविन्द निहलानी और महेश भट्ट के लिए अंकुर, निशान्त, भूमिका, जुनून, कलयुग, आक्रोश, मण्डी और मंजिलें और भी हैं फिल्मों की पटकथाएँ और कुछ के संवाद लेखन का काम भी किया था।

अविभाजित मध्यप्रदेश के बिलासपुर जिले में 12 मार्च 1936 को जन्मे पण्डित सत्यदेव दुबे की शिक्षा-दीक्षा बिलासपुर सहित नागपुर और जबलपुर में भी हुई थी। सेंट जेवियर्स कॉलेज मुम्बई से स्नातक होने के बाद वे हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर में अंग्रेजी से स्नातकोत्तर करने आ गये। बाद में बिलासपुर में कुछ समय पढ़ाने के बाद लगभग पचास वर्ष पहले वे मुम्बई आ गये और रंगमंच से जुड़ गये। दुबे जी ने सौ से भी अधिक नाटकों का निर्देशन किया जिसमें हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी और गुजराती भाषा के नाटक शामिल हैं। पण्डित सत्यदेव दुबे ने सातवें-आठवें दशक में समकालीन भारतीय नाटककारों के साथ ही विदेशी रचनाकारों की श्रेष्ठ कृतियों को हिन्दी रंगमंच पर लाने में अपना मूल्यवान योगदान किया। अंधायुग उनकी पहली बड़ी रंगमंचीय प्रस्तुति थी, जो रंग-इतिहास की एक बड़ी घटना मानी जाती है। इसका मंचन मुम्बई में 1962 में हुआ था। 

पण्डित सत्यदेव दुबे समकालीन रंगकर्मियों और उनकी कृतियों के बीच अपनी सर्जना के माध्यम से एक ऐसे सेतु बने जिसने हिन्दी रंगमंच को समृद्ध करने में अपनी अहम भूमिका निभायी। विजय तेन्दुलकर, बादल सरकार, आद्य रंगाचार्य, गिरीश कर्नाड, धर्मवीर भारती, मोहन राकेश आदि भारतीय कृतिकारों के साथ ही पिरान्देल्लों, इब्सन और चेखव जैसे नाटककारों की महत्वपूर्ण कृतियों को भारतीय परिवेश और समकालीनता में इस तरह प्रस्तुत और सम्प्रेषित किया, जिसने उनकी प्रतिष्ठा रंग जगत में बहुत बढ़ायी। दुबे जी भारतीय रंगकर्मियों के बीच बड़ी आदर और श्रद्धा की निगाह से देखे जाते रहे। उनके द्वारा निर्देशित नाटकों में अंधायुग, हृयवदन, आधे अधूरे, सखाराम बाइण्डर, एवं इन्द्रजित, प्रतिबिम्ब, विरासत आदि प्रमुख हैं। उन्होंने तकरीबन पचास हिन्दी और अंग्रेजी नाटकों में अभिनय भी किया। दिलीप चित्रे की फिल्म गोदाम और श्याम बेनेगल की फिल्म निशान्त में उन्होंने अभिनय भी किया।

भारत सरकार द्वारा पण्डित सत्यदेव दुबे को पिछले साल ही पद्मभूषण से विभूषित किया गया था। दुबे जी पूरी तरह मूडजीवी व्यक्ति थे। कलाकारों में उनके व्यक्तित्व और गुण को लेकर बड़ा सम्मान रहा है, यद्यपि वे अपने मन और जीवन के एक तरह से राजा थे। यह उल्लेखनीय है कि उनकी शिष्य परम्परा बड़ी लम्बी रही है। महान अभिनेता स्वर्गीय अमरीश पुरी उनको हमेशा अपना गुरु मानकर जब तक जिए, उनका बड़ा ख्याल रखते रहे। दुबे जी फक्कड़ इन्सान थे और खुद उन्हें या उनके आसपास को उनके गुस्से का पूर्वाभास नहीं हुआ करता था। इसके बावजूद सच्चे तौर पर उनके अपने, वास्तव में उनके अपने थे, जो दुबे जी से सीखे ज्ञान को शिरोधार्य करते थे और कृतज्ञ रहते थे। जब श्याम बेनेगल भारत एक खोज का निर्देशन कर रहे थे तब दुबे जी ने उनसे साफ-साफ कह दिया था कि सीरियल में चाणक्य की भूमिका मैं ही करूँगा और इसके लिए उन्होंने पहले से ही अपने आपको उस गेटअप में तैयार कर लिया था। गिरीश कर्नाड, श्याम बाबू, अमरीश पुरी, गोविन्द निहलानी या महेश भट्ट उनका इतना आदर करते थे कि उनकी किसी बात को न नहीं कह पाते थे, यह बात भी साथ में जोडऩी चाहिए कि पण्डित जी के एक्सीलेंस पर भी उनको गहरा विश्वास था। 

दुबे जी का अध्ययन बड़ा गहन था। उन्होंने भारतीय भाषाओं के तीन पीढिय़ों के नाटककारों की कृतियों का गहरा अध्ययन किया था। पूरे जीवन, पूरी तन्मयता से नाटकों को समर्पित रहने वाले पण्डित सत्यदेव दुबे ने हिन्दी रंगमंच को विशिष्ट गरिमा प्रदान करने का काम अपने सृजन से किया था। रंग-सामग्री के सही मुकामों की जाँच परख तथा चयन में उनकी रंग-दृष्टि अचूक और बेजोड़ थी। अभिनव रंग-रुझानों के प्रवर्तन और नवीन रंग चेतना के विकास में पण्डित जी का योगदान अतुलनीय है। वे संवेदनशील कृतियों के साथ सूक्ष्मग्राही कलात्मकता और कल्पनाशील बरताव के कारण हमेशा जाने, जाते रहे।
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2 टिप्‍पणियां:

Rahul Singh ने कहा…

फिल्‍म दीवार वाली छोटी सी भूमिका में भी वे याद रह जाते हैं.

Satyendra Mishra , I write the blogs on Science and politics, History ने कहा…

बेहतरीन सख्शियत