हाल ही में पहले बनारस की पृष्ठभूमि पर आयी एक फिल्म राँझणा को सफलता मिली है वहीं कोलकाता की पृष्ठभूमि पर रची फिल्म लुटेरा को काफी सराहा जा रहा है। उल्लेखनीय यह है कि दोनों ही फिल्मों में ऐसे सितारे हैं जो हमारे सुपर सितारों की श्रेणी में कहीं भी नहीं आते। कैरियर या तो शुरू हो रहा है या शुरू हो चुका है तो मुकाम हासिल होना बाकी है।
लुटेरा को देखते हुए बड़े रूमानी अनुभव होते हैं। जानकारों और टिप्पणीकारों ने इस फिल्म को अपना अच्छा समर्थन दिया है। सार्थक समीक्षाएँ आज भी बिना राग-द्वेष के की जाती हैं यह इस बात का प्रमाण है अन्यथा लुटेरा को तीन या कहीं-कहीं उससे अधिक सितारे नहीं मिलते। लुटेरा की कहानी इसके निर्देशक विक्रमादित्य मोटवानी की है, पटकथा उन्होंने भवानी अय्यर के साथ मिलकर लिखी है। आमतौर पर इस तरह की कहानियाँ कम लिखी जाती हैं। नायक ग्रे-शेड में है। अपराधी है मगर बड़े शिष्ट और कुलीन पहचान के साथ नायिका के घर जाता है। प्रेम होता है पर प्रेम प्राथमिकता नहीं है। उद्देश्य छल-कपट और भ्रम से जायदाद और सम्पत्ति हासिल करना है। नायिका अस्थमा की मरीज है, हादसे में पिता की मृत्यु हो जाती है। नायक जा चुका है।
फिल्म का दूसरा भाग डलहौजी में फिल्माया गया है जहाँ नायिका अपनी जिन्दगी के अन्तिम दिनों को एक तरह से मनाने पहुँची है। यादें पीछा नहीं छोड़तीं, आखिर नायक यहाँ भी आ जाता है, हुलिया बदलकर दूसरे अपराध के लिए। अधपका मगर धोखे और अनिष्ट की भेंट चढ़ गया प्रेम यहाँ नितान्त नकारात्मक परिस्थितियों में फिर एक भरोसे का रूप लेने को होता है लेकिन मुठभेड़ में घायल नायक, प्रेमिका की जिन्दगी बचाने के लिए सूखे दरख्त पर अपने हाथ से बनायी नकली पत्ती बांधता हुआ गिरकर मर जाता है।
लुटेरा की खूबी उसका बहुत वास्तविक होना है। पिछली सदी के छठवें दशक में जाते हुए रसूख की चिन्ता में जमींदार और उसकी जमींदारी के बीच लुटेरे नायक की परम सौम्यता भरी उपस्थिति कमाल की है। जिस खूबसूरती से प्रेम परवान चढ़ता है, उसका बखान करने से बेहतर अनुभव फिल्म देखकर होगा। वह पहला दृश्य बड़ा अनुपम है जिसमें मोटरसाइकिल पर सामने से आते नायक को नायिका अपनी कार से टक्कर मार देती है और वह सीधे पेड़ पर टकराकर गिर जाता है और सम्हलकर पेड़ से टिककर बैठा रह जाता है, एकटक नायिका को देखता हुआ। एक बड़े हिस्से में जब नायक नायिका का प्रेम परवान चढ़ता है, स्वर संयम का क्या खूब खूबसूरत प्रयोग किया गया है, एकदम धीमी आवाज और कुछ दृश्यों में लगभग साँसों के सम्प्रेषण से व्यक्त होते शब्द, वाकई कमाल हैं।
लुटेरा की विशेषता एकदम वास्तविक सेट, अनुकूल कास्ट्यूम खासकर नायक रणवीर सिंह के कपड़े, रंग और खूबसूरत सोनाक्षी। सोनाक्षी से ज्यादा यह फिल्म रणवीर सिंह की है। रणवीर-सोनाक्षी के प्रणय दृश्य मन को छूते हैं। सिनेमेटोग्राफी (महेन्द्र जे. शेट्टी) भी बड़ी कलात्मक और खूबसूरत फ्रेम में है। लुटेरा निर्देशक की भी फिल्म है। विक्रमादित्य मोटवानी ने फिल्म को मनोयोग से बनाया है, डूबकर। सिनेमा में कुछेक निर्देशक ऐसे हैं जो पृष्ठभूमि में मुम्बई की जमीन से दूर कहीं और जाकर देशज परिवेश में कुछ अलग और कुछ मौलिक गढ़ने का प्रयास करते हैं। फिल्म के गाने मनछुए हैं, अमिताभ भट्टाचार्य ने लिखे हैं, संगीत अमित त्रिवेदी का है, गाने भी जैसे एहसासों में बहते हैं।
लुटेरा में एक ही अतिरंजना है और वह है अस्थमा के अटैक में नायक का नायिका को दो बार इन्जेक्शन लगाना वह भी नर्व में जबकि वह डॉक्टर नहीं है।
2 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर समीक्षा प्रस्तुति ..
कविता जी, आपका आभारी हूँ। हिन्दी में गम्भीर सिने लेखन की स्थितियाँ अच्छी नहीं हैं। कोशिश करता हूँ कि अपना काम गम्भीरता से करूँ। मित्रों की सराहना हौसला देती है। शुक्रिया आपका।
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