मंगलवार, 31 जनवरी 2012

गुड़िया : बिटिया की नन्हीं सखी



ईश्वर ने बचपन को जितना निर्लिप्त, जितना निर्मल और जितना स्वच्छ रखा है, उसकी कल्पना हर एक मन-स्मृतियों में एक तरह से चिरस्थायी होती है। बचपन हमारे जीवन में एक समय के पश्चात छूट अवश्य जाता है मगर इस तरह छूटता है कि वो हमारी ही निगाह बचाकर एक नन्हे पंछी की तरह चुपचाप हमारे मन के किसी कोने में जाकर बैठ जाता है। वहीं से वह हमारी चेतना के बीच एक बहुत ही पतला सा धागा बांध देता है। बचपन इसी धागे को कभी-कभार हमारे अकेलेपन में, बड़ी कठिनाइयों से मिल पाने वाली क्षणमात्र की सहजता में इस तरह झंकृत कर दिया करता है कि हम अपने आपको स्मृतियों के झूले में पाते हैं। हमारा छुटपन ऐसे ही कई बार मन-बिम्ब में प्रतिबिम्बित होने लगता है, तब हमको याद आता है बहुत सारा भूला हुआ, खोया हुआ अपना संसार जहाँ हमको सिर्फ और सिर्फ प्यार मिल रहा होता है, हमारी फिक्र हो रही होती है, माँ की गोद से लेकर पिता के कंधे पर बैठे गर्वोन्मत्त हम। कुछ देर में अचानक फिर दृश्य बदल जाता है, अपने संगी-साथियों के साथ हम खेल रहे हैं। पास-पड़ोस के हम सब, छोटे-बड़े सारे। खेलने के लिए कितना कुछ है, बाज़ार से खरीदे हुए खिलौने और नानी, दादी, बुआ, मौसी, माँ और दीदी की बनायी हुई गुडि़या...............

गुडि़या, बचपन का सबसे प्रिय खिलौना होता है। गुडि़या, बिटिया की नन्हीं सखी होती है। बिटिया के पास बहुत सारे खिलौने होते हैं लेकिन उसे गुडि़या अवश्य चाहिए। गुडि़या के बिना बिटिया के खिलौनों की पिटारी पूरी नहीं होती। कार होगी, तोता होगा, चिडि़या होगी, बत्तख होगी, झुनझुना होगा लेकिन अगर गुडि़या न हुई तो बिटिया की दुनिया अधूरी है। अपने मम्मी-पापा को उनकी रोज़मर्रा की स्वाभाविक-अस्वाभाविक और आकस्मिक व्यस्ताओं के लिए बिटिया तभी मुक्त करती है जब उसको, उसके आनंद की दुनिया की सारी चीज़ें जुटा दी जायें। बिटिया का चाहा, बिटिया के पास है तो फिर उसे न पापा की चिन्ता और न मम्मी की, न भूख की फिक्र और न प्यास की। 

बिटिया के मन की गुडि़या बनाकर देना आसान काम नहीं होता। चालीस-पचास साल पहले पारिवारिक और कौटुम्बिक अवधारणा में हमारे सरपरस्त हमारे अविभावक, नाते-रिश्तेदार, पास-पड़ोस हुआ करते थे। एक वृक्ष पूरी शाखाओं और यहाँ तक पत्तियों तक की चिन्ता किया करता था। उस वक्त तीज-त्यौहारों के स्वादिष्ट व्यंजनों का हुनर भी हमारे घर में होता था और घर-आँगन की सुन्दरता, रंग-रोगन की चिन्ताएँ भी मिलकर की जाती थीं। ऐसे ही वातावरण में किसी को सिलाई-बुनाई और तुरपाई का काम बड़ी सफाई के साथ आता था तो किसी को अनुष्ठानिक और मांगलिक अवसरों के गीत याद हुआ करते थे, अपने घर-परिवार का सांस्कृतिक वातावरण अलग ही हुआ करता था। परिवार की महिलाएँ उत्सवों, मांगलिक कार्यों और त्यौहारों पर गाती थीं, ढोलक और मंजीरे के साथ, नाचती थीं भक्ति और वन्दना के गीतों के साथ। इन्हीं में से किसी को गुडि़या बनाना भी आता था और सचमुच जो गुडि़या बनाता था, उसके आसपास बिटिया मँडराया करती थी, जि़द किया करती थी, पास बैठ जाया करती थी और तब तक मान-मनुहार, रूठना-मनाना, रोना-धोना और अधीर बने रहने की स्थिति रहा करती थी जब तक गुडि़या बन न जाये। ज़ाहिर है, गुडि़या का बन जाना आसान भी नहीं हुआ करता था। माँ, मौसी, दीदी, नानी, दादी, बुआ जो भी इस काम को किया करती थीं, उनके लिए अपने नियमित कामों में से समय निकालना मुश्किल हुआ करता था। फिर भी अगर बिटिया से वचन हार गयीं तो गुडि़या बनाकर देना होता था। बिटिया भी लगातार गुडि़या के बन जाने की एक नटखट और सुचिन्तित किस्म की बालसुलभ व्यग्रता के साथ जल्दी से जल्दी गुडि़या बन जाने के लिए बार-बार याद दिलाने और जि़द किए रहने के उपक्रम किया करती थी। हम जब यह सब बातें कर रहे हैं तो स्वाभाविक है, ऐसे सारे प्रसंगों और घटनाओं की याद ताज़ा हो रही हो।



गुडि़या जो बिटिया की काँख में दबी दुनिया की सैर कर लिया करती है, उसका बनना बड़ा ही सृजनात्मक किस्म का हुआ करता था। परिवार की गुणी महिलाएँ पुराने इस्तेमाल में आये मगर अनुपयोगी रंग-बिरंगे कपड़ों को सहेजकर रखा करती थीं जो वक्त पड़ने पर ऐसे काम आया करते थे। छोटे-बड़े टुकड़े, बची चिन्दियाँ, रंगीन धागे, पुराने चुटीले, भिन्न-भिन्न रंगों के बटन आदि से ही गुडि़या बनाने में मदद ली जाती थी। गुडि़या का आकार पहले तय हो जाया करता था। बिटिया स्वयं बताती थी कि उसे कितनी बड़ी गुडि़या चाहिए। एक बालिश्त या उससे छोटी भी और बड़ी तो फिर बड़ी से बड़ी, जिस आकार-प्रकार की गुडि़या, उसी आकार-प्रकार का जतन मगर गुडि़या बनाना, भले समय का अभाव हो, घरेलू कामकाज से फुरसत निकालना कठिन हो, होता लगन का ही था। इसे अपनी बिटिया के लिए खानापूर्ति समझकर कोई नहीं करता था। बिटिया का भरोसा जो इसके साथ जुड़ा रहता था। हर बिटिया अपने परिवार में जिससे गुडि़या बनवाती थी, वह इस परम विश्वास को बनाये रखती थी कि मेरी गुडि़या सबसे अच्छी बनेगी। गुडि़या जल्दी से जल्दी बन जाये, इस अधीरता के साथ मगर सुन्दर बने, इस धीरज के साथ, बिटिया की आँखों से होकर ही पूरा सृजन हुआ करता था। 

बिटिया के धीरज को साधना कई बार माँ के बस में भी नहीं होता लेकिन विश्वास दिलाकर यह काम पूरा किया जाता था। गुडि़या बनना कब शुरू होगी, इसका जवाब बिटिया को तत्काल नहीं मिलता था लेकिन अपनी माँ के किए वादे और दिन की प्रतीक्षा भी व्याकुल होकर की जाती थी। माँ, बिटिया की अकुलाहट का समाधान करते हुए, कुछ-कुछ समय लेकर बताया करती थी कि कपड़ा इकट्ठा कर लिया है, सामान जुटा लिया है, सजाने की चीजें़ मिलती जा रही हैं, बस जल्दी ही काम शुरू हो जायेगा। जिस दिन काम शुरू हुआ, वह दिन बिटिया की घोर प्रसन्नता का दिन होता। पालथी मारकर बैठी नन्हीं बिटिया के सामने माँ उसके सपने से एक-एक करके झीना परदा हटा रही है, उसकी गुडि़या बनना शुरू हो रही है। माँ ने पहले एक देह गढ़ी है, दो पैर, दो हाथ लगाये हैं, पेट में चिन्दियाँ भर दी हैं, सिर गोल-गोल बनाया जा रहा है, बन जाने के बाद उसे दोनों कंधों के बीच रखकर सुई-धागे से सिल दिया जायेगा। बिटिया ये सब देख रही है, बीच-बीच में माँ मुस्कुराते हुए अपनी बिटिया के चेहरे की तरफ निहार लेती है, बिटिया की आँखें चमक रही हैं, वो मम्मी को देखकर मुस्कुरा देती है, अपनी खुशी छिपा पाना उसके लिए सम्भव नहीं होता। काम करते हुए माँ को बीच-बीच में उठना भी होता है, कई बार यह काम दूसरे ज़रूरी कामों की वज़ह से पिछड़ भी जाता है, जिसकी सफाई माँ, बेटी को दिया भी करती है। गुडि़या कब बन जायेगी, इसका आश्वासन एक-एक दिन आगे भी बढ़ता जाता है कई बार। काम अधूरा रह जाता है जो अधबनी गुडि़या सभी ज़रूरी सामानों के साथ एक जगह कहीं रख दी जाती है। कई बार आगे का काम कुछ समय या दिनों के लिए रुक जाता है तो कई बार जल्दी पूरा होने की बारी भी आ जाती है।

माँ, बिटिया को बताती है कि सबसे बड़ा काम तो पूरा हो ही गया है, गुडि़या के हाथ, पैर और सिर लगा ही दिया है, अब आँख, नाक, कान वगैरह बनाना है, फिर उसके कपड़े और गुडि़या तैयार। बिटिया यह सब सुनते हुए अपनी नन्हीं-नन्हीं आँखों में जैसे बनी हुई पूरी गुडि़या देख लेती है, और खिलखिलाकर अपनी माँ के जतन को सार्थक कर देती है। माँ, अब सही मायनों में गुडि़या को रच रही है। उसे खूबसूरत दो आँखें बनाना है, फिर उसके बाद नाक की बारी आयेगी, नाक बन जायेगी तब फिर मुँह बनाया जायेगा। रंग-बिरंगे धागे और सुई से ये काम किया जा रहा है। नाक अलग से बनाकर लगाना होती है जबकि आँख और मुँह सुई और धागे की मदद से बन जाता है। हाँ नाक की ही तरह दोनों कान भी अलग से ही बनाकर लगाये जाते हैं, उन्हें अलग से बनायी हुई नाक की ही तरह सिल भी दिया जाता है। इन सबके बाद आती है, बाल की बारी, तो बाल पुराने चुटीले से बनाकर सिल दिये जाते हैं। बिटिया के कहने पर ही उसकी एक या दो चोटी की जाती है। 

बिटिया अब जल्दी में है, माँ से कहती है, अब गुडि़या बन गयी है, जल्दी से इसके कपड़े बनाकर पहना दो। गुडि़या के कपड़े जल्दी से बनाकर पहनाना माँ के लिए सम्भव नहीं है, वह गुडि़या बना लेने के बाद विचार करेगी कि किस तरह के कपड़े बनाये और पहनाये जायें? साड़ी, ब्लाउज या घाघरा-चोली और ओढ़नी। गुडि़या, दुल्हन की तरह भी बनती है और गुडि़या, बिटिया की तरह भी। ज़्यादातर बिटिया, गुडि़या भी बिटिया की तरह ही बनवाना पसन्द करती है। इस तरह फिर पुराने बचे कपड़े और चिन्दियों से गुडि़या के कपड़े बनाये जाते हैं। माँ हाथ की सिलाई से अपना कौशल दिखाती है। छोटे-छोटे कपड़े बनकर तैयार हो जाते हैं। कपड़े बन गये तो बिटिया से अब इन्तज़ार हो पाना मुश्किल होता है, वह कहती है अपनी मम्मी से, जल्दी से पहना दो और मेरी गुडि़या मुझे दे दो। माँ, बिटिया के चेहरे पर खुशी देखकर अपनी सर्जना पर भावुक हो रही है। वह बेटी को गुडि़या के रूप में उसकी एक ऐसी सखी देने जा रही है, जिसके साथ बेटी की एक अलग ही दुनिया बन जायेगी जहाँ जाने क्या-क्या होगा! माँ का हुनर है, सुन्दर सजीले कपड़े गुडि़या को पहना दिये गये हैं, कपड़े इस तरह बनाये गये हैं कि उनको बार-बार बदलना न पड़े, इसी कारण उनको भी सुई धागे से सिल दिया गया है। कपड़े पहना देने के बाद माँ के हाथ में बिटिया ज़्यादा देर तक गुडि़या को रहने नहीं देना चाहती, वह लगभग छीन लेने को आतुर है, बहुत सारी सखी-सहेलियों को दिखाने की जल्दी है लेकिन माँ भी एक बार इत्मीनान कर लेना चाहती है कि सबकुछ ठीकठाक है कि नहीं, गुडि़या पूरी होकर अच्छी दिख रही है कि नहीं। इस इत्मीनान के होते ही खूब सारे प्यार-दुलार के साथ वो फिर गुडि़या अपनी प्राण-प्यारी बिटिया को सौंपती है, जिसे लेकर बिटिया उड़न-छू हो जाती है, आकाश में उड़ चली खूबसूरत पतंग की तरह जिसे अब खुशियों के पंख फैलाने से कोई रोक नहीं सकता........................

गुडि़या का रिश्ता बिटिया से इसी तरह बनता है। बिटिया, गुडि़या का पूरा ख्याल रखती है। उससे बात करती है, माँ का वो सारा व्यवहार जो अपनी बिटिया से होता है, वही का वही व्यवहार बिटिया का गुडि़या के संग होता है। गुडि़या को बिटिया एक जगह बैठने और शरारत नहीं करने का अनुशासन भी सिखाती है। कभी-कभी बिटिया गुडि़या के कान भी पकड़ लेती है, स्नेहिल चपत भी मार देती है, फिर गुडि़या रोने लगती है तो उसको चुप भी कराती है और समझाती है, आगे से ऐसा काम मत करना। गुडि़या को अच्छे से ओढ़ाकर साथ सुलाना, फिर खुद सोना और सुबह खुद जागने के बाद जगाना दोनों जवाबदारियाँ बिटिया की होती हैं, तैयार करना भी। चलना-फिरना और दौड़ना भी वही सिखाती है और वक्त पड़ने पर तबीयत खराब हो जाने या जुकाम हो जाने पर दवा भी बिटिया ही लगाती है। बिटिया हमेशा गुडि़या के स्पर्श में रहती है। गुडि़या बिटिया को एक ऐसी संगत देती है जिससे बिटिया का बचपन सुरीले संगीत की तरह मनोरम और मुग्ध कर देने वाला होता है।

बिटिया, गुडि़या के लिए अपने खाने से चार चीजें बचाकर रखती है और उसे खिलाती है। कई बार मौसम के अनुरूप गुडि़या का ख्याल रखा जाता है। यदि गुडि़या सरदी के मौसम में स्वेटर नहीं पहने है तो उसको अच्छी कपड़े से ढाँपे रखकर बिटिया उसके प्रति अपनी चिन्ता का परिचय भी देती है। बिटिया इस बात की भी चिन्ता करती है कि गुडि़या की सहेली और मित्रों की भी एक दुनिया बने, इस नाते वो अपने घर में और गुडि़या या गुड््डा बनवाये जाने की जिद करती है, माँ फिर बिटिया की जिद को सिरमाथे रखती है और फिर शुरू होता है एक नया सृजन। गुड््डा बने या गुडि़या या गुड््डे बनें या गुडि़याएँ फिर तो बिटिया का बचपन और उसके बचपन की दुनिया खूब समृद्ध होती जाती है। बिटिया, गुडि़या के साथ मिलकर खेलती है, सखी-सहेलियाँ मिलकर फिर शादी-ब्याह भी रचाती हैं। 

यह एक सिलसिला है, पीढि़यों से चला आया है। गुडि़या के बारे में हमें हमारे अविभावकों ने, हमारे पूर्वजों ने बहुत कुछ बताया है। बचपन में कितनी ही तरह की गुडि़याएँ हमने अपने पास, मित्रों के पास, इस गाँव से उस गाँव, इस शहर से उस शहर तक आते-जाते देखी हैं। गुडि़या न केवल हमारे अपने घर, प्रदेश या देश का सरोकार है, बल्कि दुनिया में गुडि़या अपने-अपने रूप-रंग, रहन-सहन, संस्कृति और परम्परा की पहचान और हिस्सा बनी हुई है। जापानी गुडि़या से लेकर चीन की गुडि़या और फेयरी टेल का संसार अलौकिक रहा है। भारतीय परम्परा में गुडि़या अलग-अलग राज्यों-प्रान्तों और आंचलिक परिवेश में जीवनशैली और परम्पराओं की जीवन्त छबियों को हमारे बीच प्रतिष्ठित करती है। बचपन, गुडि़या के खेल के बिना व्यतीत होता ही नहीं है। एक डोर है जो गुडि़या और बिटिया के बीच स्पन्दन के संवेदनशील सेतु का काम करती है। अब के आधुनिक समाज में गुडि़या की पहचान को धूमिल करने को ज़्यादा तत्पर टेडी बिअर का संसार हमारी स्मृतियों से भले उसे प्रशान्त जल में दिखायी पड़ते बिम्ब को पल भर में अस्थिर कर दे मगर गुडि़या की बिटिया के हृदय में बनी अमिट जगह को पल भर भी धुंधला नहीं सकती।


 लोकरंग की इस बार की परिकल्पना में बिटिया के माध्यम से ही हम अपनी परम्परा और सांस्कृतिक सरोकारों की बहुआयामीयता में खूबसूरत और नयनाभिराम विस्तार के साक्षी बनने जा रहे हैं। गुडि़या, बिटिया की नन्हीं सखी है, जी हाँ, बिटिया की काँख में घूमती-फिरती, सुरक्षित रहती नन्हीं सखी, हमने उस सखी को सिरजने का उपक्रम एक प्रदर्शनी, एक सर्जना स्थल बनाकर करने का प्रयत्न किया है। भरोसा है, यहाँ सबको अपनी दुनिया याद आयेगी, अपना बचपन याद आयेगा, कुछ किस्से याद आएँगे, गीत और कविताओं की पंक्तियाँ सूझेंगी और याद आयेंगी.................................
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7 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

अति सुन्दर अभिव्यक्ति आपने बच्पन की स्म्रतियो को शब्दो के जरिये सजीव कर दिया !

प्रिंस गुप्ता ने कहा…

अति सुन्दर अभिव्यक्ति आपने बच्पन की स्म्रतियो को शब्दो के जरिये सजीव कर दिया !फेस बुक पर गुडियाओ पर आधरित मेरा अल्बम जरूर देखे

सुनील मिश्र ने कहा…

आपका आभारी हूँ, बेनामी जी। एक अच्छी परिकल्पना खूबसूरती के साथ सार्थक हुई। आपको आलेख पसंद आया, अच्छा लगा।

सुनील मिश्र ने कहा…

हार्दिक आभार प्रिंस गुप्ता जी।

डॉ. जेन्नी शबनम ने कहा…

यूँ तो वक़्त के साथ बचपन की यादें धूमिल हो जाती हैं, लेकिन आपके इस लेख ने उन यादों को जीवित कर दिया. तब न तो टेडी बिअर का ज़माना था न बार्बी डॉल का. घर में ही कपड़े या ऊन से गुड़िया बनती थी. गुड़िया के लिए अलग से वह सब कुछ चाहिए जैसे ख़ुद के लिए ज़रूरी था. कॉलेज के दिनों में बाकायदा मैंने गुड़िया बनाना सीखा, निशानी के तौर पर दो गुड़िया अब भी मेरे पास है, जिसे मैंने ख़ुद बनाया था. दो अपूर्ण गुड्डे गुड़िया भी मेरे पास है जिसे बनाने का वक़्त फिर कभी न मिला. न जाने कितनी यादें ताज़ा हो गई. सुन्दर लेखन के लिए बधाई.

सुनील मिश्र ने कहा…

जेन्नी जी, बहुत खुशी हुई की आपने यह विस्तृत लेख पढ़ा और पसंद किया। भोपाल के लोकरंग आयोजन में गुड़िया पर केंद्रित प्रदर्शनी को बहुत सराहा गया। आपका आभारी हूँ, पसंद करने के लिए, इस बात पर भी अच्छा लगा कि इस टिप्पणी ने आपको पीछे मधुर स्मृतियों में भेजा..............

Unknown ने कहा…

सटीक लेखनशैली तथा अनुपम वर्णन ।। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद जो की आपने बचपन की महक फिर से महकादी।।।।।।।