शुक्रवार, 11 मई 2012

इश्कजादे : प्रभावी कई स्तरों पर मगर एक बड़ी खामी के साथ


फिल्म निर्माण के बड़े घरानों में दूसरी पीढ़ी, स्वयं अपनी समृद्ध विरासत को दक्षता के साथ आगे चलाने के बजाय अवसर अपेक्षित प्रतिभाशाली युवा पीढ़ी को पहचान कर अपने बैनर पर काम करने का मौका दे रही है। दृष्टि, विचार और साहस से भरे नये फिल्मकार ऐसे प्लेटफॉर्म का बखूबी उपयोग कर रहे हैं। फिल्म की सफलता से निर्माण घराने को खूब फायदा होता है और निर्देशक को भी अपने पैर जमाने में बड़ी सहायता हो जाती है। इस समय यशराज फिल्म्स और धर्मा प्रोडक्शन्स में यह खूब हो रहा है बल्कि यशराज में और ज्यादा। 

हबीब फैजल की फिल्म इशकजादे इसी तरह की फिल्म है जो इस हफ्ते रिलीज हुई है। हबीब फैजल ने इसके पहले ऋषि कपूर और नीतू सिंह के साथ एक अच्छी फिल्म दो दूनी चार बनायी थी जो बड़े दिनों बाद रिलीज हो पायी थी। इशकजादे के जरिए वे आदित्य चोपड़ा के सम्पर्क में आये। इस फिल्म की कहानी और पटकथा में हबीब से ऊपर आदित्य चोपड़ा का नाम है। इशकजादे देखकर यही अन्दाजा होता है कि तार्किकता के धरातल पर यह एक अधूरी फिल्म है। कहानी जिस परिवेश के अनुरूप गढ़ी गयी है, उस तरह से उसे पूरा फिल्माया भी गया है मगर तीन चौथाई बेहतर होने के बाद यह अन्त में लगभग दिशाहीन सी हो जाती है।

उत्तरप्रदेश के हरदोई जिले में इसका फिल्मांकन हुआ है। कुछ दिन पहले ही उत्तरप्रदेश में चुनाव हुए हैं और सरकार बनी है। इशकजादे की कहानी मे नायक का दादा और नायिका का पिता चुनाव मैदान में एक-दूसरे के खिलाफ हैं। फिल्म का आरम्भ नायक-नायिका के बचपन के एक दृश्य से होता है जिसमें स्कूल जाते हुए दोनों में तू-तू, मैं-मैं हो रही है और एक-दूसरे के माता-पिता को दोनों ही भला-बुरा कह रहे हैं। स्थापित करने की कोशिश यह है कि बचपन से ही नफरत है। चौहान और कुरैशी विधायक का चुनाव लड़ रहे हैं। चौहान का बिगड़ैल पोता अपने दादा को जिताना चाहता है। कुरेशी का परिवार भी अपनी दमखम लगा रहा है। इधर युवा हुए नायक-नायिका में वही बचपन वाले हुज्जत भरे आपसी रिश्ते हैं। नायिका, नायक को थप्पड़ मारकर कॉलेज में उसकी बेइज्जती कर देती है जिसके जवाब में नायक अगले दृश्यों में उसको मोहब्बत का यकीन कराता है, दोनों शादी कर लेते हैं लेकिन शादी के बाद अन्तरंग सम्बन्ध स्थापित करके नायक कुटिल हँसी हँसता हुआ बायीं दिशा में चला जाता है, यह कहते हुए कि उसने अपना बदला ले लिया। 

कहानी यहाँ से अपनी दिशा खोती है। एक तरफ नायक इस घटना के एमएमएस पूरे शहर के मोबाइलों में भेज देता है। चुनाव होते हैं और नायक के दादा की विजय हो जाती है। श्रेय नायक को मिलता है। नायक को प्रायश्चित नहीं है। नायिका तेज-तर्रार है, वह गोली मारकर बदला लेना चाहती है। दोनों के परिवार और अविभावक एक-दूसरे का प्रभुत्व स्वीकारने को तैयार नहीं है। नायक की विधवा माँ हिम्मत दिखाती है, अपने बेटे को सही रास्ता दिखाने की कोशिश करती है मगर ऐसी ही एक जद्दोजहद में नायक का दादा, नायक की माँ को गोली मार देता है। मरती हुई माँ नायक से गल्ती सुधारने को कहती है। माँ की मृत्यु और अन्तिम इच्छा से नायक की आँखें खुलती हैं। वह और नायिका विरोधाभासी परिस्थितियों में एक तो हो जाते हैं मगर अब नायक का दादा और नायिका के पिता दोनों आपस में मिल गये हैं और अपने राजनैतिक भविष्य की फिक्र करते हुए यह फैसला करते हैं कि परमा और जोया दोनों को मार दिया जाये। फिल्म का अन्त यह है कि अपने ही दुश्मनों से घिरे परमा और जोया आपस में एक-दूसरे को गोली मारकर जीवन का अन्त कर लेते हैं। 


 इशकजादे, मेरे ख्याल से सही नाम इश्कजादे होना चाहिए, बहरहाल हिन्दी के साथ हिन्दी सिनेमा में और भी बड़ी-बड़ी गुस्ताखियाँ होती हैं, अच्छी स्क्रिप्ट और संवादों के साथ अपने पूरे वातावरण से मेल खाती एक बहुत वास्तविक सी फिल्म है। उत्तरपूर्व का एक स्थान, बालुई जमीन से उड़ती गरम धूल और शारीरिक और मानसिक अराजकता में डूबी बाहुबलियों की दुनिया। देशी कट्टे, पिस्तौल और बन्दूक का इस्तेमाल पटाखे की तरह हो रहा है। देश को ऊँचाई पर ले जाने का स्वप्र देखने वाले तथाकथित जन-प्रतिनिधि और उनकी सोच, घरों की प्रताडि़त होती स्त्रियाँ। निर्देशक फिल्म को यथार्थ के काफी नजदीक ले जाकर बनाता है। गन्दी सडक़ों और गलियों में जान बचाती और जान लेने को आतुर बदहवास दौड़, सब कुछ बड़ी सच्चाई के साथ हम फिल्म में देखते हैं। 

नायक के रूप में हमारे सामने बड़े अरसे बाद एक टफ सा चेहरा है अर्जुन कपूर के रूप में। अच्छा है कि देखने में वो न तो बोनी कपूर और न ही अनिल कपूर की छाया देता है, वह एक मौलिक छबि लगती है। अर्जुन ने अच्छा काम किया है, खासतौर से बहुत गम्भीर होकर हँसने की उसकी अदा कमाल है। परमा के किरदार को वो पूरी तरह माहौलसम्मत अराजकता के साथ निभाता है। मरती हुई माँ के गल्ती सुधारने वाले शब्द ही उसका जीवन बदलते हैं। वहाँ से नायक की एक अलग ढंग की प्रतिभा देखने में आती है। नायिका परिणीति चोपड़ा की अपने किरदार में उपस्थिति ज्यादा मुखर और आत्मविश्वास से भरी हुई है। वह सुन्दर तो है ही साथ ही संवादों पर भी उसका गजब का नियंत्रण है। नायक से उसके रिश्ते परदे पर दर्शकों को लगातार गुदगुदाते हैं। नायक के दादा की भूमिका लखनऊ और देश के जाने-माने रंगकर्मी अनिल रस्तोगी ने निभायी है। वे एक ऐसे किरदार को जीते हैं जो अपने कुटुम्ब-परिवार का मुखिया होने के बावजूद अपने राजनैतिक रसूख और भविष्य की फिक्र में सब कुछ दाँव पर लगा देना चाहता है, फिल्म के अन्त में उसका कुरैशी के साथ मिलकर परस्पर स्वार्थ का विषय छेडक़र नायक-नायिका को मरवा देने का प्रस्ताव, फैसला और उसके उपक्रम हैरतअंगेज हैं। वे अपनी भूमिका को बखूब निभाते हैं, इसलिए भी कि लम्बी रंग-सक्रियता और उपस्थिति में उन्होंने सारे वातावरण को नजदीक से देखा परखा है।

चलते-चलते एक बड़ी खामी का जिक्र यहाँ किया जाना जरूरी है और वह यह है कि इस पूरी फिल्म में जहाँ चुनाव, हिंसा, अराजकता, खून-खराबा, मारधाड़, गोलियों की धाँय-धाँय शुरू से लगभग अन्त तक चल रही है, पुलिस का एक सिपाही भी दृश्य में नहीं है। पुलिस फोर्स, बड़े अधिकारी, कानून के नुमाइन्दे देखने-दिखाने तक को नहीं हैं। समझ में नहीं आता, यह चुनाव जैसी गतिविधि किसी स्थान पर उन परिस्थितियों में हो रही है जहाँ सब एक-दूसरे के खून के प्यासे हों, वहाँ पुलिस है ही नहीं। इसी तरह इस फिल्म का अन्त भी अव्यवहारिक है क्योंकि नायक-नायिका दोनों ही बहादुर और साहसी हैं, वे दूर से आते बदमाशों के को देखते हुए जिस तरह एक-दूसरे को गोली मारकर अपना जीवन खत्म कर लेने के लिक उकसाते हैं, वह गले नहीं उतरता।

2 टिप्‍पणियां:

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

महतारी दिवस की बधाई

सुनील मिश्र ने कहा…

dhanyvad lalit jee