साहित्य और सिनेमा के रिश्तों को लेकर बहुत सी बातें होती हैं। अच्छा सिनेमा, अच्छे साहित्य से ही बन पाता है। बहुत कम फिल्मकारों को यह साहस हो पाया है कि उन्होंने अपनी फिल्म के लिए साहित्यिक कृति चुनने का जोखिम लिया है। बासु चटर्जी ने ऐसे जोखिम सिनेमा में अपने आरम्भ के साथ ही उठाये हैं और अपने विश्वास को प्रमाणित भी किया है। राजेन्द्र यादव के उपन्यास सारा आकाश पर उनका फिल्म बनाना भी इसकी सृजनात्मक वजह है। वास्तव में सारा आकाश पर काम करने के बाद बासु चटर्जी की राजेन्द्र यादव से मित्रता बहुत गहरी हो गयी थी। उन्होंने मन्नू भण्डारी की कृति पर भी रजनीगंधा फिल्म बनायी।
सारा आकाश का निर्माण 1968 में हुआ था। यह ब्लैक एण्ड व्हाइट फिल्म थी जिसके सर्वश्रेष्ठ छायांकन के लिए के. के. महाजन को नेशनल अवार्ड प्राप्त हुआ था। यह फिल्म एक संयुक्त परिवार में नव ब्याहता की मनःस्थितियों और पति से उसका सामंजस्य स्थापित न हो पाने की संवेदनशीलता को प्रस्तुत करती है। परिवार में अपनी इच्छा के विरुद्ध विवाह कर दिए जाने की बात सातवें दशक का एक अहम विषय हो सकती है। उस समय संयुक्त परिवार, पारिवारिक मर्यादाएँ, बड़े-बुजुर्गों की बात को टाल न पाने की विवशता जैसी स्थितियों में ऐसे यथार्थ पनपते थे। यह कहानी उसी का एक मर्मस्पर्शी परिचय है।
फिल्म का नायक समर अपनी दुनिया बुन ही रहा है कि उसका विवाह तय कर दिया जाता है, वह इससे इन्कार नहीं कर पाता। उसकी पत्नी प्रभा सुशील है, पढ़ी-लिखी है, वह निर्दोष है, ब्याह कर ससुराल आ गयी है। सबका ख्याल रखना उसका धर्म उसे बतला दिया गया है। उसकी खुशियों पर अभी बातचीत नहीं हुई है। संयुक्त परिवार के सदस्यों के लिए शायद इस संवेदना की फिक्र करना जरूरी भी नहीं है। ऐसे में प्रभा और समर का कोई रिश्ता ही नहीं बन पाता। एक बार जब प्रभा अपने माता-पिता के घर चली जाती है तब लम्बे अकेले एहसास में समर को प्रभा का ख्याल आता है।
प्रभा वापस आ जाती है लेकिन समर उस सेतु को सृजित कर पाने में सफल नहीं हो पाता कि प्रभा तक वह जा सके, पति-पत्नी होने के अर्थ और उसकी संवेदना के एहसासों को बाँट सके। व्यथित और अकेली सी प्रभा एक दिन अपनी नितान्त अपरिचित उपस्थिति और निरर्थकता से विचलित हो जाती है और घर की छत के एक कोने में लेटी हुई रोने लगती है। समर को यहाँ अपनी भूल का आभास होता है, वह प्रभा के पास जाकर उससे बात करता है। फिल्म का अन्त बहुत ही मन को छू जाने वाला है, ऐसा कि आप उसकी परिस्थितियों से लम्बे समय तक छूट नहीं पाते।
सारा आकाश फिल्म प्रभा की भूमिका निबाह रहीं मधु चक्रवर्ती के माध्यम से उस नव-ब्याहता के मर्म को बखूबी व्यक्त करती है जो अपने ससुराल में आकर कितने ही दिनों तक परायी बनी रहती है, कोई उसकी परवाह नहीं करता। परिवार में नयी दुल्हन सभी की अपेक्षाओं के लिहाज से एक सूत्रधार बनकर जाने कितने बरसों जिया करती है। वह सभी से प्रेम करती है क्योंकि उससे अपेक्षित है लेकिन फलस्वरूप उससे सब स्नेह-प्रेम का रिश्ता बांध लें, यह सम्भव होने में सैकड़ों दिन लग जाते हैं।
सारा आकाश देखना, इस समय सचमुच साहित्य और सिनेमा के मर्म को समझने वालों के लिए राजेन्द्र यादव के प्रति एक मौजूँ श्रद्धांजलि हो सकती है। हमारे समय में साहित्य और सिनेमा का मर्म सदैव ही एक बड़ा विषय रहा है और जब भी इस विषय पर सार्थक बातचीत हुई है, राजेन्द्र यादव और सारा आकाश के बगैर सार्थक नहीं रही है।
1 टिप्पणी:
samvedna se bharpur rachana hai. Ise Vastav me aapne bahut arthpurna samiksha ki hai. badhai punah...
एक टिप्पणी भेजें