ऐसे
ही याद आया, बचपन में माता-पिता का कपड़े दिलवाना और दरजी के पास ले जाकर
नाप दिलवाकर सिलवाने देना, बड़ी खुशी का अनुभव दिया करता था। दरजी कितनी
जल्दी कपड़े सिलकर देगा, उसकी जिज्ञासाएँ लगातार बलवती रहतीं। एक-एक दिन
गिना जाता, जिस दिन कपड़े मिलने को होते, उस दिन शाम होना दूभर लगती। पिता
से पूछते, कपड़े उठाने कब चलेंगे? पिता का सहज जवाब होता, शाम को। अब लगता
कि शाम भी जल्दी नहीं हो रही है, जैसे-तैसे शाम एक युग की आवृत्ति लेकर सामने आती।
दरजी की दुकान में जाकर सिले हुए रखे अपने कपड़े देखकर बाँछें खिल जाया करतीं। मुस्कान चेहरे पर कलाकन्द की तरह हो आती, पिता की तरफ खुश होकर देखते। दरजी भी तब कपड़े अच्छे से तहाकर, अखबार में लपेटकर, चारों तरफ धागा बांधकर दिया करते। अब जल्दी इस बात की रहती कि घर कैसे पहुँचें और पैकेट फाड़कर कपड़े निकालें, पहने। उस समय अक्सर यह भी होता था कि इतवार और बुधवार नये कपड़े पहने जाते हैं...............खैर जिद के आगे सब चलता, अनुमति मिल जाती और पल भर में अपन नया कपड़ा पहने खिले-खिले से....................
बचपन में पिता के पैंट और बुशर्ट को भी, जो पुरानी हो गयी, आल्टर करके अपने नाप की सिलवाकर पहनने में बड़ा मजा आता था। ऐसे काम पास का ही दरजी कर दिया करता। बड़े शान से उसके पास ले जाते। नाप-जोख होता। फिर वहाँ भी वही, कब मिलेगी................कई बार मजा यह आता कि दुकान पास में होने से सुबह दुकान खुलने के पहले ही चक्कर लगाने लगते। वे दरजी नजदीक के होते, चेहरा जाने-पहचाने, कहते बेटा, दिन तो होने दो, कभी बताते, तुरपायी बाकी है, कभी कहते कि काज-बटन होना है...............अपन मुँह बनाया करते लेकिन शाम होते-होते वे भी जब अखबार में लपेटकर अपने नाप की पेंट-बुशर्ट देते तो चेहरा खुशी से फूला न समाता...............
बचपन, बचपन की दुनिया, सपने, व्याकुलता, अधीर होना अब कभी-कभी याद आता है, आज सामने दुनिया की तस्वीर कुछ और है, कल कुछ और थी...................
दरजी की दुकान में जाकर सिले हुए रखे अपने कपड़े देखकर बाँछें खिल जाया करतीं। मुस्कान चेहरे पर कलाकन्द की तरह हो आती, पिता की तरफ खुश होकर देखते। दरजी भी तब कपड़े अच्छे से तहाकर, अखबार में लपेटकर, चारों तरफ धागा बांधकर दिया करते। अब जल्दी इस बात की रहती कि घर कैसे पहुँचें और पैकेट फाड़कर कपड़े निकालें, पहने। उस समय अक्सर यह भी होता था कि इतवार और बुधवार नये कपड़े पहने जाते हैं...............खैर जिद के आगे सब चलता, अनुमति मिल जाती और पल भर में अपन नया कपड़ा पहने खिले-खिले से....................
बचपन में पिता के पैंट और बुशर्ट को भी, जो पुरानी हो गयी, आल्टर करके अपने नाप की सिलवाकर पहनने में बड़ा मजा आता था। ऐसे काम पास का ही दरजी कर दिया करता। बड़े शान से उसके पास ले जाते। नाप-जोख होता। फिर वहाँ भी वही, कब मिलेगी................कई बार मजा यह आता कि दुकान पास में होने से सुबह दुकान खुलने के पहले ही चक्कर लगाने लगते। वे दरजी नजदीक के होते, चेहरा जाने-पहचाने, कहते बेटा, दिन तो होने दो, कभी बताते, तुरपायी बाकी है, कभी कहते कि काज-बटन होना है...............अपन मुँह बनाया करते लेकिन शाम होते-होते वे भी जब अखबार में लपेटकर अपने नाप की पेंट-बुशर्ट देते तो चेहरा खुशी से फूला न समाता...............
बचपन, बचपन की दुनिया, सपने, व्याकुलता, अधीर होना अब कभी-कभी याद आता है, आज सामने दुनिया की तस्वीर कुछ और है, कल कुछ और थी...................
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