एक बार फिर माँ की सीख याद आयी है......................
बचपन में अक्सर वो कुछ बातों के लिए सचेत किया करती थीं। पिता सरकारी नौकरी में थे और माँ स्कूल में पढ़ाती थीं। अक्सर वो मुझे घर में अकेले छोड़कर स्कूल चली जाती थीं। तब समझाकर जाती थीं कि बेटा, कोई भी आये तो दरवाजा मत खोलना। हो सकता है वो कहे, चिट्ठी है, टेलीग्राम है, दरवाजा खोलो। या फिर कहे कि हम तुम्हारे पापा के दोस्त हैं। हो सकता है वो कहे कि तुम्हारे पापा ने भेजा है या कहे मम्मी ने बुलाया है। तो तुम उसकी बात पर विश्वास मत करना। दरवाजा मत खोलना।
वो जब स्कूल भेजती थीं तब भी सचेत करती थीं। कहती थीं कि हो सकता है कोई तुम्हारे स्कूल में आकर तुमसे कहे, जल्दी चलो, तुम्हारे पापा ने या तुम्हारी मम्मी ने घर बुलाया है, या यह कहे कि तुम्हारे पापा का, तुम्हारी मम्मी का एक्सीडेंट हो गया है, या कहे कि उनकी तबीयत खराब है। तो ऐसे में बिल्कुल मत जाना उसके साथ। बचपन में ये नसीहतें प्रायः रोज ही मिला करती थीं। रोज ही इन नसीहतों का ध्यान कर-करके बड़ा हुआ। माँ की ये नसीहतें बचपन के लिए थीं। बड़े हुए तो सक्षम हो गये। फिर ये नसीहतें याद रखने का ध्यान ही नहीं रहा।
अपने बच्चों को भी इसी तरह की नसीहतें दी जानी चाहिए, इसका भी ध्यान नहीं आया। लगने लगा था कि तब का जमाना और था और अब का जमाना और है। पहले यद्यपि उतना खतरा नहीं था मगर तब बचपन भी बेहद संकुचित और कमोवेश सीमित दायरे में परिष्कृत हुआ करता था। आज दुनिया बदली हुई है और खतरों की जहाँ तक बात है, वो ज्यादा समृद्ध और अराजक हैं। मगर आज का बचपन चालीस साल पहले के बचपन से कहीं ज्यादा आधुनिक और चपल है। बावजूद इसके ऐसा लगता है कि तब के जमाने से कहीं ज्यादा, कहीं ज्यादा आज खतरों के साये में है और बेहद असुरक्षित है।
ऐसे संगीन, सन्देह से भरे और अविश्वसनीय समय में बचपन का पुरसाने हाल हम देख ही रहे हैं। कुछ वर्ष पहले निठारी की घटना ने सामाजिक सुचारूपन को बड़ी भयावहता के साथ हिला देने का काम किया था। पाशविकता का ऐसा भयानक नंगा नाच इससे पहले कभी देखा नहीं गया। इससे पहले तक हम सिर्फ दिल्ली, पूर्वी उत्तरप्रदेश और बिहार में बच्चों के अपहरण को लेकर और बाद में निर्ममतापूर्वक कर दी जाने वाली उनकी हत्याओें से आक्रान्त रहे हैं। आपराधिक प्रवृत्तियों में रुपए-पैसे कमाने के लिए बच्चों का अपहरण सबसे ज्यादा आसान और शत प्रतिशत सफलता का सौदा रहा है। भयभीत अविभावक अपने घर के चिराग की लौ को बचाये रखने के लिए कानून का भी विश्वास नहीं करता और अपनी पूरी क्षमता के साथ अपराधियों के सामने घुटने टेक दिया करता है जो कि उस कमजोर की मजबूरी है।
ऐसे में फिर भला अपराधियों के हौंसले क्यों न बुलन्द हों? मासूमों के अपहरण और उनकी जान की कीमत के नाम पर मोटी फिरौती वसूलने वाले अपराधियों से चार कदम आगे निकल गये निठारी काण्ड के अभियुक्तों ने जो कुछ भी भयावह किया वो इसी प्रजातंत्र में, इसी देश में किया जहाँ आसपास सब मौजूद हैं। हर चार कदम पर पुलिस वाले, चौक-चौराहों पर, सड़क के किनारे, रेल में, तीज-त्यौहारों में, रेड एलर्ट में, गणतंत्र दिवस और स्वतंत्राता दिवस पर बड़ी छोटी बन्दूकों के साथ कानून के पहरुए मौजूद होते हैं। ऐसी कठिन सुरक्षा कि आम आदमी सहूलियत से आ-जा भी न पाये। लेकिन उसके बाद भी निठारी जैसी घटना इसी समाज का सच है।
दिल्ली से लेकर देश में इस समय जो स्त्रियों के साथ, युवतियों के साथ, बच्चियों के साथ घट रहा है, तमाम प्रदर्शनों, प्रदर्शनों की परवाह न किया जाना, प्रदर्शनों में जूझते लोगों की पिटायी और घटना दर घटना अपराध का अराजक और घृणित स्वरूप बेहद तनाव में लाता है हमें। यह हमें एक बार फिर से नये सिरे से हमारे सामने दिखायी दे रहे असुरक्षित बचपन के प्रति सचेत करती है। लोकल ट्रेनों में, स्कूल बसों और सामान्य बसों में, पैदल जाते हुए बच्चों को देखकर सचमुच लगता है कि इनके अविभावकों द्वारा इन्हें स्वयं की सुरक्षा के लिए सामान्य समझदारी की शिक्षा देनी चाहिए। बल्कि होना यह चाहिए कि शिक्षक भी अपने सभी उत्तरदायित्वों के साथ बच्चों में उनकी सजगता, आत्मनिर्भरता, समझदारी और कठिन परिस्थितियों से निबट पाने के लिए लिए आवश्यक सूझ का पाठ पृथक से पढ़ाएँ।
आज किसी के भी चेहरे से यह अन्दाज नहीं लगाया जा सकता कि वो शाकाहारी है या मांसाहारी या फिर नरभक्षी। ऐसे में बच्चे भला क्यो न धोखा खाएँ? आधुनिक जीवनशैली और माता-पिता के कामकाज ने वैसे भी बचपन को ज्यादा अकेला और आत्मनिर्भर बना दिया है। ऐसे में लगता है कि एक बार सीख और सबक का वह समय फिर लौट रहा है जब बच्चों को बताया जाना चाहिए कि किस तरह सड़क और समाज के पशुओं से वे सतर्क रहें। उन्हें बताया जाना चाहिए कि किसी भी मुसीबत के समय वे किस तरह की सावधानी अख्तियार करें और अपनी रक्षा करें।
अपराधियों का बेहद निर्मम होना, रुपए-पैसों के लिए किसी भी दुस्साहस को पार कर लेना और पुलिस, कानून, सजा से जरा सा भी भय न खाने का आपराधिक मनोबल जिस तरह सड़क पर हर पल अनिष्ट की आशंका को बरपाये है वो बेहद भयानक है। शारीरिक व्याधियों में आज भी दादी माँ के नुस्खों तक कई बार जाया जाता है। आज के अविभावकों को अपने बच्चों की सुरक्षा के लिए अपने माता-पिता के नुस्खों को याद करना चाहिए और अपने बच्चों को बताना चाहिए। असुरक्षित बचपन के इस कठिन समय से जूझने और जीतने के लिए यह बेहद आवश्यक है।
अपने बच्चों को जिन्दगी में बड़ा करने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करने के साथ-साथ उन पर सजग निगाह रखे जाने की जरूरत अब ज्यादा बढ़ गयी है। आँख मनुष्य की दृष्टि से ज्यादा अब नीयत बयाँ करने का माध्यम हो गयी है। हमारे बीच, हमारे नाते-रिश्तेदार, मोहल्लेदार, मित्र, परिचित और नजदीकी लोगों में भी किसके मन में क्या चल रहा है, उसका अन्दाजा नहीं होता। अपनी बेटियों को, छोटी बच्चियों को समझाना चाहिए कि ऐसे अंकलों से दूर रहना चाहिए जो स्नेह-प्रदर्शन की आड़ में लिपटाने-चिपटाने का स्वांग करके अपनी कुण्ठाओं के पक्ष में व्यवहार करते हैं। स्कूल, कॉलेजों में पढ़ाने वालों, नौकरी में अतिशय आत्मीयता और हमदर्दी का प्रदर्शन करने वालों से अपनी हिफाजत कैसे की जाये, इस पर अविभावक बच्चों से खुलकर संवाद करें। सरे राह पैदल चलना, बाइक या वाहनों पर आना-जाना कितना त्रासद है, उससे समझदारीपूर्वक अपनी रक्षा कैसे की जाये, यह बतायें।
बाजार और सार्वजनिक स्थानों में, उत्सवों, मेलों और भीड़-भाड़ में अपने आसपास कैसे निगाह रखी जाये, कितनी सतर्कता बरती जाये, इसका सबक एक बार फिर से दिया जाना जरूरी है। खुद माता-पिता को भी, भले वे अपनी सन्तानों से बेपनाह मोहब्बत करते हों, उनकी चिन्ता, फिक्र या निगरानी रखते हों, अपनी जान न्यौछावर करते हों उसके बावजूद ऐसे पशुओं, जीव-जन्तुओं और प्राणियों से सीखना होगा जो अपने बच्चों पर बुरी छाया बर्दाश्त नहीं करते और आक्रामक हो जाया करते हैं। आज के बचपन को, युवा पीढ़ी को ज्यादा अधिक सावधानी की जरूरत है, रोज-रोज अखबारों के पहले पेज पर निर्मम घटनाओं को पढ़ना बेहद झकझोरता है लेकिन हम भी मुँह बाये उनकी ओर ताकने-निहारने लगते हैं जो हर ज्वलन्त घटना इतनी बहसें आयोजित करते हैं कि अन्तिम निर्णय तक ही नहीं पहुँच पाते।
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