रविवार, 3 अक्तूबर 2010

सिनेमा से अपराध सीखता मनुष्य

एक राष्ट्रीय दैनिक के आखिरी पृष्ठ पर प्रकाशित एक समाचार ने ध्यान आकृष्ट किया। लन्दन में एक अपराधी को सजा सुनायी जाने वाली है। उसका अपराध यह है कि उसने बाइस साल के आपराधिक जीवन में एक हजार से भी ज्यादा महिलाओं के साथ धोखे से दुष्कर्म किया। इतने वर्षों तक वह यह अपराध एक फिल्म को देखने के बाद ली प्रेरणा के वशीभूत करता रहा। फिल्म का नाम द सायलेंस ऑफ द लेम्प्स है।

1991 में प्रदर्शित मशहूर अमरीकी सितारे एंथनी हॉपकिन्स अभिनीत इस फिल्म का अपराधी स्त्रियों के सामने लाचार स्थिति में प्रस्तुत होता है, उनसे मदद की गुहार करता है और मौका पाते ही वार करके यह अपराध करने में सफल होता है। फिल्म का अपराधी टूटा हुआ नकली हाथ दिखाकर महिलाओं से फर्नीचर उठाने में मदद की गुजारिश करता था और झुककर सहयोग करने के लिए प्रेरित स्त्री पर हमला कर देता था। उल्लेखनीय है कि इस फिल्म को स्क्रीनप्ले, निर्देशन, अभिनय आदि के पाँच ऑस्कर मिले थे।

इस फिल्म से एक जर्मन मूल के अपराधी ने प्रेरणा ली और अपने जख्मी होने का बहाना बनाकर बाकायदा ऐसे घरों में घुसकर अपराध करना शुरू किया जहाँ स्त्रियाँ किन्हीं वक्तों में अकेली रहती थीं। उसने हॉलैण्ड, जर्मनी, बेल्जियम और लक्झमबर्ग में हजारों स्त्रियों को अपना शिकार बनाया। अदालत उसके बयान सुन रही है, आकलन है कि अधिकतम पन्द्रह वर्ष की सजा उसको इस अपराध के लिए दी जाए। विश्व में अमरीका सिनेमा का सिरमौर है। कथ्य, प्रभाव, तकनीक, श्रेष्ठता और कमोवेश उत्कृष्टता में भी वह काफी आगे है। हिन्दुस्तान में हम सिनेमा में बढ़ती जा रही हिंसा, अपराध और उसके तौर-तरीकों के साथ ही अनुशासन और न्याय के लिए उत्तरदायी संस्थाओं की भूमिकाओं को भी देखा करते हैं और जाहिर है हमारी राय बड़ी निराशाजनक होती है।

शारीरिक अशक्तता, असहायता से हमदर्दी हासिल करके धोखा देना और अपराध करना, यह मनोवृत्ति केवल द सायलेंस ऑफ द लेम्प्स फिल्म से ही प्रेरित नहीं है। ऐसे उदाहरण जीवन और इतिहास से ही मनोरंजन के इन संसाधनों में अलग-अलग ढंग से आये हैं। पाठ्य पुस्तक में डाकू खड्ग सिंह और बाबा भारती की कथा में भी इसी तरह का छल है। राम तेरी गंगा मैली की नायिका को भी रेल में एक अंधा ही बुरी जगह पहुँचा देता है जिस पर नायिका कहती है कि ऐसा और किसी के साथ न करना वरना लोग ऐसों पर विश्वास ही नहीं करेंगे। मोहरा फिल्म का खलनायक भी पूरी फिल्म में अपनी उपस्थिति काला चश्मा लगाकर ही लाचारी के साथ प्रदर्शित करता है।

हमारे धारावाहिकों में भी बहुत सारे प्रसंग और दृश्य कुत्सित और घटिया मनोवृत्ति के खलपात्रों के हवाले हैं। मन:स्थितियों का संयत रह पाना, मन:स्थितियों को संयत रख पाना बड़ा कठिन जान पड़ता है अब।

1 टिप्पणी:

shashiprabha tiwari ने कहा…

bahut hi samvedansheel rachna hai.