गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

आखिर नींद समुद्र हो गयी

अंदेशे में बड़े दिन
चुपचाप व्यतीत हो गए
एक दिन बड़ी हिम्मत की
कह गए

जाने कब से रखीं
बांधकर मुट्ठियाँ अपनी जेब में
भीतर ही भीतर कभी खोलकर
उँगलियों की आड़ लकीरों में
दिन गिनते रहे
तय करते रहे कहने का वक़्त
आसमान में बादल
मौसम का मिजाज़
लड़ते रहे "हाँ", "नहीं" और
"नहीं", "हाँ" से
सूखते गले के लिए
बहुत सा पानी पी गए

अब चाहे जो समझो
बिन कहे जागा करते थे
आखिर नींद समुद्र हो गयी
बह गए

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