गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

सार्थक बहस की सम्भावना और आक्रोश

प्रदर्शन के पहले प्रियदर्शन ने अपनी नवीनतम फिल्म आक्रोश का खासा माहौल बना दिया है। उसके प्रोमो ध्यान आकृष्ट करते हैं। प्रियदर्शन बड़े लम्बे समय से कॉमेडी मेें रम गये थे। अच्छी-बुरी, सफल-असफल कितनी ही कॉमेडी फिल्में बना डालीं उन्होंने। एक दशक पहले हेराफेरी बनाकर उनको एकाएक हास्य फिल्मों को बनाने में रस आने लगा था। इस अवधि में दस-बारह फिल्में उन्होंने इस तरह की बनाकर प्रस्तुत कीं। कुछेक इनमें से अच्छी रहीं और बहुतेरी विफल भी।

कुछ कलाकारों को लगातार रिपीट करने के मोह के कारण भी उनकी कई फिल्में सफल नहीं हो पायीं, हालाँकि उनकी फिल्मों में कई जगह क्राफ्ट और एक्स्ट्रा कलाकारों से बहुत सी संवेदनाएँ और जीवन-दर्शन के फलसफे निकलकर आते थे मगर हमारे दर्शक में अब इतनी एकाग्रता या हार्दिक उदारता नहीं बची कि वो ऐसे कुछेक हिस्सों या दृश्यों के लिए फिल्म देखे।

कुल मिलाकर यह भी कि कई तरह की खामियों के बावजूद प्रियदर्शन हमारे समय के एक उल्लेखनीय फिल्मकार हैं। कांचीवरम से राष्ट्रीय पुरस्कार लेकर जरूर उन्होंने आत्ममंथन किया, यद्यपि उसके बाद फिर दो-एक बुरी फिल्में बनायीं लेकिन मुस्कुराहट, विरासत और गर्दिश बनाने वाले इस निर्देशक ने आक्रोश एक अच्छी फिल्म बनायी होगी, ऐसा लगता है। इस फिल्म के माध्यम से उन्होंने परेश रावल की बुद्धू छबि को भी साफ करके पेश किया है गोया कि वे आक्रोश में खलनायक हैं। प्रोमो में उनका एक डायलॉग, हमारे देश की पुलिस तक तक एक्शन नहीं लेती जब तक कम्पलेन्ट न लिखायी जाये, दिन भर में बहुत बार रिपीट होता है। प्रोमो, जाहिर है बार-बार आता है, सो यह डायलॉग लगभग कौंधने सा लगा है।

पता किया जाना चाहिए कि इस डायलॉग को सुनकर पुलिस के बड़े अधिकारी क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं? व्यक्तिश: वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के सान्निध्य बहुत आत्मीय रहे हैं और परिवार में भी गर्व प्रदान करने वाले पुलिस अधिकारी के बड़े भाई होने के आत्मिक और मानसिक सुख हैं, मन करता है, कि ऐसे डायलॉग के बहाने हिन्दी सिनेमा में पुलिस को केन्द्र में रखकर बनने वाली फिल्मों के बारे में कुछ बातचीत की जाए मगर कई बार सार्थक बहस की स्थितियाँ आसान नहीं होतीं। फिर भी भारतीय सिनेमा में गोविन्द निहलानी जैसे फिल्मकार की रेंज असाधारण है जिन्होंने आक्रोश, अर्धसत्य, द्रोहकाल और देव जैसी फिल्में पुलिस को केन्द्र में रखकर बनायीं। ये सभी अपने समय की सशक्त फिल्में हैं और आज भी इनका पुनरावलोकन ऊष्मा देने का काम करता है।

खुद प्रियदर्शन की फिल्म गर्दिश भी इसी तरह की है। आक्रोश में प्रियदर्शन के ट्रीटमेंट को देखना महत्वपूर्ण होगा, आखिर वे साधारणतया खारिज कर दिए जाने वाले निर्देशन नहीं हैं मगर यह फिल्म एक बहस शुरू करेगी, इसकी पूरी उम्मीद लगती है।

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