रविवार, 24 अक्तूबर 2010

चल री सजनी अब क्या सोचे......

रविवार को चर्चा करने के लिए देव आनंद की यादगार फिल्म बम्बई का बाबू अचानक ही प्रासंगिक लगी जब प्रख्यात पाश्र्व गायक स्वर्गीय मुकेश का गाया यह गीत सुनने को मिला, चल री सजनी अब क्या सोचे, कजरा न बह जाये रोते-रोते.....। यह एक विदाई गीत है जो फिल्म के क्लायमेक्स या कह लें लगभग अन्त की तरफ जाती हुई फिल्म में होता है। बम्बई का बाबू, 1960 की फिल्म थी जिसे राज खोसला ने निर्देशित किया था। उस दौर की यह देव आनंद की चुनिन्दा श्रेष्ठ फिल्मों में से एक थी जिसमें सुचित्रा सेन ने ऐसी नायिका की भूमिका की थी, जिससे नायक रिश्तों के अजीब से द्वन्द्व में फँसकर मिलता है और वह भी बड़े विरोधाभासों के साथ।

यह फिल्म एक ऐसे युवक बाबू की कहानी है जो चोरी, डकैती, जुए आदि तमाम बुराइयों में लिप्त है। उसका बचपन का दोस्त पुलिस इन्स्पेक्टर है जो बार-बार उसे अच्छाई के रास्ते पर लाना चाहता है मगर वह दोस्त को यह कठोर बात कहकर निरुत्तर करता है कि छोटी उम्र में जब हम दोनों एक छोटी सी गल्ती के लिए थाने में बन्द कर दिए गये थे तब तुम्हारे पिता केवल तुम्हें छुड़ा ले गये थे, मैं गरीब और अनाथ था, मेरी एक न सुनी गयी। मेरा रास्ता तभी से तय हो गया था। बाबू, तक की बम्बई में अपनी गेंग के आदमियों के साथ अपराध की दुनिया से बाहर ही आना नहीं चाहता। एक दिन जब वह जज्बात में आकर बुरे काम छोडऩा चाहता है तो उसका मुखिया उसे मजबूर करता है, एक गलतफहमी में बाबू से उसका खून हो जाता है। पुलिस से बचने के लिए बाबू भागता है और हिमाचल के एक ऐसे गाँव में उस परिवार का खोया हुआ बेटा बनकर रहने लगता है, जो वास्तव में बाबू का परिवार था।

अंधी माँ, बुजुर्ग बाप को अपने बेटे और बहन को भाई का इन्तजार है। बहन, बाबू को भैया कहती है जबकि बाबू मन ही मन उससे प्यार करता है। उस पार गाँव के जो बुरे आदमी लाभ के लालच में बाबू को उस परिवार का हिस्सा बनवा देते हैं, उन्हीं से एक दिन बाबू इस परिवार के मान-सम्मान और धन की रक्षा बेटा बनकर करता है और नायिका को एक भाई की तरह विदा करता है। यह फिल्म उन दृश्यों में बड़ी द्वन्द्वपूर्ण, भावनात्मक और मर्मस्पर्शी हो जाती है जब नायिका भर यह जान पाती है कि बाबू उसका भाई नहीं है। वह बाबू की भावना को समझती है लेकिन आत्मग्लानि और आत्मबोध के चरम में बाबू बहुत बड़ा त्याग करता है जिससे बुजुर्ग पिता और अंधी माँ अनभिज्ञ हैं।

देव आनंद और सुचित्रा सेन के एंगल पर यह फिल्म बड़ी विशिष्ट हो जाती है। बम्बई का बाबू देव आनंद की श्रेष्ठ अभिव्यक्ति का अहम प्रमाण है। राजिन्दर सिंह बेदी के संवाद मन को छू जाते हैं। मजरूह सुल्तानपुरी के गीत और एस.डी. बर्मन का संगीत भी यादगार है।

1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

अच्छी रही पुरानी यादों की चर्चा...