ख़ुशी तुम्हें पता तो होगा
दर्द का नेपथ्य
तुम जो लड़ा करती हो
बड़े भीतर उससे
पता है उस समय
हँस नहीं रही होती हो
बिल्कुल
स्याह परदे के परे
ठिठककर रह जाती हो कभी-कभी
लड़ते-लड़ते ठहर जाती हो
अपने आयुध भूलकर
पता है तुम्हें
तुम्हारी दिव्यता
दर्द को अपने नेपथ्य में
निढाल कर देती है
उस क्षण क्या तुम्हें
बाहर लाती है कविता कोई
बड़ी मनुहार से
सच बताना
तभी तब्दील होती हो खुशी
एक चेहरे में....
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