मंगलवार, 5 जुलाई 2011

मुम्बइया सिनेमा की बेलगाम भाषा




इस समय एक बड़ी बहस इमरान खान की नयी फिल्म देल्ही-वेल्ली को लेकर चल रही है। यह वाकई आश्चर्य की बात है कि इस फिल्म के संवादों में जिस तरह गाली-गलौज का इस्तेमाल किया गया है, उसको लेकर समीक्षकों ने लगभग आँखें मूँदते हुए जी-भरकर इसकी तारीफ की है जबकि इस फिल्म के माध्यम से ही हम यह लगभग तय हुआ पाते हैं कि मुम्बइया सिनेमा की बेलगाम भाषा की एक तरह से इन्तेहा हो गयी है और इसका चरम देल्ही-वेल्ली में दिखायी देता है।

हाँलाकि ऐसा भी नहीं है कि इस वाचिक अराजकता का संज्ञान नहीं लिया गया हो। फिल्म का सफल नहीं हो पाना इस अराजकता के विरुद्ध गया है। दर्शक तुरन्त अपना फैसला देकर अब अगले शुक्रवार की फिल्म की बाट जोह रहे होंगे। विगत बीस वर्षों में हिन्दी सिनेमा से हिन्दी भाषा और भाषा की समझदारी, शिष्टाचार और मर्यादा समाप्त होना शुरू हो गयी थी। यह धीमा जहर धीमे-धीमे ही दिया जाता रहा। दो दशकों में सेंसर बोर्ड ने बहुत कुछ नजरअन्दाज किया। विजय आनंद जब सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष थे तब उन्होंने अपनी नीतियों और हस्तक्षेप से कुछ चीजें सुधारनी चाही थीं मगर बाद में जब उन्हीं का विरोध होने लगा तब विवादास्पद स्थिति में उन्होंने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था।

बाद में सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष का काम अभिनेत्री आशा पारेख, शर्मिला टैगोर ने सम्हाला। फिल्मों का स्तर इनकी सक्रियता और कार्यकाल में भी प्रभावित होता रहा। शर्मिला टैगोर के कार्यकाल में ही सैफ-करीना की कुरबान फिल्म आयी जिसको लेकर खासा विवाद हुआ। वर्तमान सेंसर बोर्ड अध्यक्ष लीला सेमसन के कार्यकाल सम्हालने के चार महीनों में ही पहले भिण्डी बाजार और फिर देल्ही-वेल्ली अपने आपमें कई विरोधाभासों के साथ सामने आयी है।

वास्तव में अब वह समय है जब मुम्बइया सिनेमा की भाषा और जबान का मूल्याँकन, आकलन होना चाहिए। वयस्कों का सर्टिफिकेट प्राप्त कर लेने के बावजूद अश£ीलता, हिंसा और भाषायी अराजकता की मात्रा और स्तर पर नीति-निर्धारण करना जरूरी है। अगर अनदेखी इसी तरह की जाती रही तो फिर सेंसर नाम की संस्था का न कोई अर्थ रह जायेगा और न ही सार्थकता।

1 टिप्पणी:

कला रंग ने कहा…

delhi-belli ne vakai nirash kiya.