मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

सिनेमा और संवेदना के सरोकार

दो दिन पहले इन्दौर में देवी अहिल्या विश्वविद्यालय में भोपाल के सिने-रसिक डॉ. अनिल चौबे के एक लम्बे दृश्य-श्रव्य और प्रस्तुतिकरणप्रधान कार्यक्रम का हिस्सा बनने का अवसर प्राप्त हुआ। लगभग पौने चार घण्टे के इस प्रेजेन्टेशन के सहभागी लगभग दो सौ दर्शक-श्रोता बने जिनमें सभी उम्र के लोग थे और कुछेक फिल्म पत्रकारिता के विद्यार्थी भी। राकेश मित्तल और श्रीराम ताम्रकर की पहल पर सम्भव हुए इस प्रस्तुतिकरण का आरम्भ स्वर्गीय बिमल राय की फिल्म देवदास के उस दृश्य से हुआ जहाँ चन्द्रमुखी और पारो एक दृश्य में पल भर को आमने-सामने होती हैं, जबकि दोनों एक-दूसरे को नहीं जानतीं। एक देवदास से दोनों का कोई रिश्ता है यह भी एक-दूसरे से बाँटने की स्थितियाँ नहीं हैं।

प्रस्तुतिकरण का समापन आलाप फिल्म के गीत से हुआ। इस दिलचस्प और सुरुचिपूर्ण प्रेजेन्टेशन को प्राध्यापक और सिनेमा को एक दर्शक की विशिष्ट लेकिन गहरी निगाह रखने वाले डॉ. अनिल चौबे ने अपनी व्याख्या से ऊ र्जा और ऊष्मा से भरने का काम किया। बीच में एक जगह उन्होंने साठ के दशक की सदाशिवराव जे. कवि की फिल्म भाभी की चूडिय़ाँ का गाना, ज्योति कलश छलके, दिखाया। बड़ा भावुक और मर्मस्पर्शी गीत है जिसमें भोर के साथ गाने की शुरूआत होती है। मीना कुमारी नायिका हैं जो एक भारतीय गृहिणी की तरह होते हुए उजाले में बाहर आकर ईश्वर को प्रणाम करती हैं, घर-आँगन बुहारती हैं, नहाकर रंगोली सजाती हैं, तुलसी की परिक्रमा करती हैं, गाने में एक छोटा बच्चा भी है जो देवर है मगर पुत्र की तरह उसकी परवरिश हो रही है। इस गाने का एक उत्तरार्ध यह भी है कि भाभी मृत्युशैया पर है, देवर बड़ा हो गया है, भाभी के पैरों के पास बैठा हुआ गा रहा है, दर भी था, थी दीवारें भी, तुमसे ही घर, घर कहलाया...।

इस गाने को देखते हुए हॉल में बैठे कई लोगों की आँखें भीग गयीं, कई अपने आँसू पोंछते दिखे। इस घटना से इस बात को प्रमाणित किया कि सिनेमा, अच्छा सिनेमा हमारी संवेदना को बड़े गहरे स्पर्श करता है। एक पूरा का पूरा समय, भारतीय सिनेमा, खासकर हिन्दी सिनेमा में व्यतीत हो चुका है जिसमे फिल्में हमें स्पन्दित करने का काम करती थीं। खोए हुए भाई, पिता-पुत्र, माँ-बेटे मिलते थे तो उस दृश्य में किरदारों के साथ-साथ हमारी आँखें भी नम हो जाया करती थीं। आज ऐसा नहीं रहा।

आज का सिनेमा हमें स्पन्दित करने के बजाय उत्तेजना प्रदान करता है। हर उम्र का दर्शक, आज की फिल्में देखते हुए भद्देपन से उछलकूद करती, इठलाती नायिका को देखकर उत्तेजित हो जाया करता है। एक अलग ही तरह की दुनिया में चला जाता है। घटिया सिनेमा या मनोरंजन हमारी अभिरुचियों को भी घटिया बनाने में अपना योगदान करता है। वो सारी चेतना धूमिल हो जाया करती हैं जिनसे स्पन्दन या संवेदना का कोई सरोकार स्थापित हो सकता है।

3 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

बिलकुल सही कहा आपने
जो इबादत था कभी उस इश्क को कहते कमीना
वो कहाँ बातें रुहानी आज के इस दौर मे यूँ
अच्छा आलेख शुभकामनायें।

सुनील मिश्र ने कहा…

आपका अत्यंत आभारी हूँ निर्मला जी.

सुनील मिश्र ने कहा…

धन्यवाद निर्मला जी।