बुधवार, 3 नवंबर 2010

फिल्में देखना त्यौहार मनाना नहीं होता

पता नहीं कैसे यह अवधारणा बन गयी है कि तीज-त्यौहार मनुष्य फिल्में देखकर मनाता होगा। फिल्मेें देखना रूटीन में ही कम होता जा रहा है। हमारे फिल्मकार आज तक यह निष्कर्ष नहीं निकाल पाये कि दर्शक का रुझान सिनेमाघर जाकर फिल्में देखने में क्यों कम होता जा रहा है? आज का सिनेमा ऐसा है कि उसे युवा पीढ़ी ही देखती है। इन दर्शकों में भी कुछ और विभाजन भी हो गया है।

बहुत सारे छात्र जो शहरों में सुदूर अंचलों से किस्म-किस्म की शिक्षा प्राप्त करने के लिए, अपना नौकरी और रोजगार में भविष्य सँवारने के लिए आते हैं, उनमें से बहुत से आश्वस्त और निश्चिंत किस्म के युवा कई बार अपनी पढ़ाई को एक तरफ रखकर फिल्में देखने चले जाते हैं। अक्सर मॉर्निंग शो में नजर आने वाली भीड़ में ऐसे युवाओं का समूह खूब हो-हल्ला करता मिलता है, जो पता नहीं फिल्म भी कितनी देखता होगा। दिन के शो की भी ऐसी ही स्थिति रहती है। टीन एजर्स अपनी समझ का सिनेमा देखकर भी उसके साथ व्यावसायिक न्याय नहीं कर पाते। फिल्मों को जब तक घर और परिवार पसन्द करके देखने नहीं जाता तब तक उसका चलना प्रमाणित नहीं हो पाता। इतनी या अन्यथा जनसंख्या फिल्में नहीं चलाती।

हमारे सामने अभी रामगोपाल वर्मा की फिल्म रक्तचरित्र की विफलता का एक उदाहरण है। बड़े और ठसक वाले प्रभावशाली कलाकार भी एक सुपरहिट तेलुगु फिल्म के हिन्दी संस्करण को सफल नहीं बना पाए। सिनेमा की ट्रेड गाइडें जिस तरह का कलेक्शन इन फिल्मों के पहले शो का या एक सप्ताह का बतलाती हैं, वह दुखद आश्चर्य की तरह है। कमाल यह है कि फिर भी फिल्में बन रही हैं।

इधर रोहित शेट्टी ने एक दरजन सितारों को लेकर एक फूहड़ फिल्म बना ली है जो दर्शकों के सिर पर इसी दीपावली में मढ़ दी जायेगी। पता नहीं कितनी सफलता उसको मिलती है। इस फिल्म के प्रोमो, इसे एक निरर्थक फिल्म प्रमाणित करते हैं। सिनेमाघर क्या कहेगा, यह दो-तीन दिन में मालूम हो ही जायेगा। फिल्मी आतिशबाजी के लिए दीपावली सबसे बड़ा मौका होता है। निराशाजनक पहलू यह है कि कुल दो फिल्में रिलीज हो रही हैं। इस पर भी ऐसी फिल्मों को दिखाने के लिए थिएटर अचानक टिकिट की कीमतें वगैरह भी बढ़ाकर दर्शकों की जेब से रुपए छुड़ाने का काम करने में लग जाते हैं।

बस अच्छा सिनेमा ही हमारे यहाँ नहीं बनता, यदि बने तो सबका बेड़ा पार लगाये। अभी हम देख रहे हैं कि बड़े और मँहगे सिनेमा की आतिशबाजी छूटने को है और गलियारे में दस तोला, अल्लाह के बन्दे जैसी कम बजट की अच्छी फिल्में धमाकों और नतीजों के बाद सामने आने की कतार में हैं। देखिए क्या होता है.. .. .. ..

5 टिप्‍पणियां:

Deepa Govind ने कहा…

I totally understand your personal prefrence here. But, Festivities means "enjoying onself (with friends, family, or just strangers)

So, this is a subjective matter and might vary from person to person as to what "festivities mean for them".

Hence it would be wrong to say "movies does not translate as festivites". May be not for you. But for someone else, this is plain enjoyment.
Dont we all have our own ways of "enjoying" So, why condemn something that is not interfering with otehr types of festivities.

PS:- I can only read and understand hindi. Very poor in writing back.

सुनील मिश्र ने कहा…

very thankful to you deepa jee.
i have same problme about english.
but just try by "tooi-footi" angrezee.
sorry,
regards.

बेनामी ने कहा…

sahi baat likhi aapne.

बेनामी ने कहा…

aapne bilkul sahi likha hai.

सुनील मिश्र ने कहा…

धन्यवाद बेनामी जी आपका।