बुधवार, 3 अगस्त 2011

माण्डू में जुगलबन्दी


मध्यप्रदेश में इस बार मानसून की बरसात बहुत अच्छी हो रही है। खासतौर पर ग्रामीण अंचलों में इस बार भरपूर पानी हुआ है। अभी तक जो बरसात हुई है और उसमें तीव्रता जरा भी दिखायी नहीं दी बल्कि हल्की और औसत गति से पानी बरस रहा है जो पथरीली जमीन से अपना रास्ता बनाता हुआ मिट्टी में गहरे जाकर पैठ बना रहा है। दरअसल पानी की जरूरत जमीन के नीचे इसलिए भी है कठिनाई के समय वही काम आता है और खेतों के लिए तो इस तरह का पानी जैसे वरदान हो गया है। शहरों में बरसात देर तक जमती है।

दिलचस्प यह भी होता है कि कुछ दूर पर ही सामने पानी नहीं बरस रहा होता है और हम जहाँ होते हैं वहाँ भीग रहे होते हैं। मुझे अक्सर ऊपर वाले की ऐसी लीला देखकर भागीरथ दूध वाले का वो डायलॉग याद आता है, जो वो अक्सर हमारे घर के दरवाजे रोज सुबह दूध के ढबरे रखकर काँख कर कहता था, ऊपरवाले तेरी माया, कहीं धूप, कहीं छाया। उस वक्त मेरी उम्र कोई पाँच-छ: बरस रही होगी। धूप और छाया की तरह बरसात का भी ऐसा ही है, ऊपरवाले तेरी माया.. .. ..।

इसी मौसम में माण्डू में एक रचनात्मक जुगलबन्दी का साक्षी होना मेरे लिए बड़ा सुखद रहा। सृजन की बहुआयामी विधाओं में एक जिज्ञासु की तरह मेरा मन बड़ा रमता है। हालाँकि इतना अवकाश कम होता है या मिलता है कि अपनी ऐसी चाह पूरी कर सको, लेकिन जब कभी ऐसे अवसर सार्वजनिक अवकाश के साथ इकट्ठा हो जाते हैं, तो मन की यह इच्छा पूरी हो जाती है।

माण्डू में यह जुगलबन्दी मंच पर किसी गायन, वादन या नृत्य की नहीं वरन कैनवास पर देखने को मिली। एक कला शिविर का आयोजन था, सात-आठ दिन रहकर नागर और लोक के चित्रकारों को एक साथ काम करना था। अपने-अपने चित्रों के साथ एक-एक कैनवास पर आधी-आधी जगह लेकर एक नागर और एक लोक चित्रकार को भी अपने-अपने चित्र बनाने थे।


मध्यप्रदेश के वरिष्ठ चित्रकारों, युवा और प्रतिभाशाली चित्रकारों का यह शिविर था जो पर्यटन विभाग के एक होटल में एक बड़ा हॉल लेकर आयोजित किया गया था। यहाँ सुबह नौ बजे से कलाकार आ जाया करते थे, नाश्ता करने के बाद। फिर शाम तक लगातार काम होता। दोपहर के भोजन का वक्त होता तो कई बार भोजन वहीं आ जाया करता था, कई बार पास के ही कमरे में जाना होता था। शाम के वक्त चाय होती थी, वो वहीं ला दी जाती।

शिविर में मूर्त-अमूर्त दोनों माध्यमों के कलाकार थे, लक्ष्मीनारायण भावसार, रामचन्द्र भावसार, विवेक, मोरेश्वर कानड़े, नर्मदा प्रसाद, भूरी बाई, शबनम शाह, भारती दीक्षित, मीतू वर्मा, लाडो बाई, हँसली बाई आदि। इनमें भावसार बन्धु, विवेक, मोरेश्वर कानड़े, शबनम, भारती और मीतू नागर कलाकार थे और शेष लोक चित्रकार। सभी ने अपना काम वातावरण और परिवेश के साथ मिलकर गहरी तल्लीनता के साथ किया।

बातचीत और कहने-सुनने के आधुनिक माहौल में चित्र को पेंटिंग कहकर उसकी सार्थकता तक ज्यादा जल्दी पहुँचा जाता है, ऐसा मानकर ही शायद उसे सभी ने चलन में ले लिया होगा, अन्यथा पेंटिंग करना, चित्र बनाने से अधिक प्रभावी नहीं है। इस कला शिविर में एकाग्रता के साथ काम करते हुए, एक-दूसरे के काम में अपना विचार या संशोधन प्रकट करने की स्थितियों से कई बार अच्छी चर्चा और परिष्कार की स्थितियाँ बनती थीं।

अक्सर मजा तब भी आता था जब कला और उसके धरातल को लेकर होने वाली बातचीत उम्र, अनुभव, ज्ञान और इन सबके प्राकट्य से दिलचस्प बन जाती थी। इस शिविर की यह एक विशिष्टता रही कि सभी ने एक-दूसरे की प्रतिभा, व्यक्तित्व, मर्यादा का ख्याल लगातार रखा। संस्कृति विभाग की ओर से समन्वय का काम करने वाले संजय राजापुरकर, हमारे सहयोगी भी थे और छोटी उम्र के मित्र भी।


शिविर के दिनों में माण्डू में भी पानी खूब बरसता रहा। माण्डू का महल और उसके तमाम हिस्से, रानी रूपमति और बाज बहादुर की प्रेमकथा की प्रतिध्वनियों को सदियों बाद भी महसूस कराते हैं। आसपास ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों से घिरा, दूर-दूर तक दिखायी देते जलाशय, गले में घण्टियाँ बांधे घास चरते मवेशी और समग्रता में प्रशान्त वातावरण माण्डू को अनूठा सौन्दर्य प्रदान करता है। जहाँ-जहाँ तक निगाह जाती थी, सब कुछ भीगा-भीगा दिखायी देता था। महल की दीवारें धुल गयी थीं, बह नहीं सकने वाली जगहों पर पानी इकट्ठा हो रहा था, महल के अलग-अलग अस्तित्व वाले भागों में कहीं सरोवर में भरे पानी से बरसती बून्दें छेड़छाड़ कर रही थीं, तो कहीं लम्बी खुली जगह पर हरी घास गलीचे की तरह दिखायी दे रही थी।

यह सब एक रविवार, जिस दिन काम से अवकाश रखा गया, उस दिन देखने को मिला। गुलजार की 1977 में बनी फिल्म किनारा को यहीं घूमते हुए याद किया। धर्मेन्द्र, हेमा मालिनी, जितेन्द्र ने इस फिल्म में काम किया था। नाम गुम जायेगा, चेहरा ये बदल जायेगा, मेरी आवाज ही पहचान है, गर याद रहे, गाना यहीं फिल्माया गया था। अन्तरों में यह गाना बहुत याद आया, लगा कहीं धीमा बज भी रहा है.. ..।
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2 टिप्‍पणियां:

कला रंग ने कहा…

Sunilji aapne is aalekh me jeevan,itihas,vastu, kala, sangeet, film, bachpan sabko ek sath jod diya.bahut sunder rachna. badhai.

सुनील मिश्र ने कहा…

babli jee, apne sabhee pakshon ko padhkar saraha, yah hamare liye bahut mahatvpoorn hai. aapka abharee hoon.