फिल्म समीक्षा को लेकर आज बात करें तो स्थितियाँ बड़ी विकट नजर आती हैं। फिल्म समीक्षा के स्तर का निर्धारण सितारों से होता है। जाहिर है फिल्म का स्तर भी सितारों से ही होता है। दोनों जगह अलग-अलग तरह के सितारे हैं। एक सितारा सिनेमा का है दूसरा सितारा, समीक्षक के पास होता है। फिल्मों को देखकर आकलन किया जाता है और प्रदर्शन के बाद हमें तत्काल ही मालूम हो जाता है कि समीक्षक ने क्या देखा और क्या तय किया? प्रश्र अब आदर्श समीक्षा को लेकर उठने लगा है। तकनीक और सम्प्रेषण के व्यवहारिक साधन इतने त्वरित और तीव्र प्रभाव के साथ आप तक पहुँचते हैं कि आप खुद चकित हैं।
मुम्बई में अमूमन फिल्म, समीक्षकों को एक दिन पहले दिखा दी जाती है। विशेष मेहमानों और पत्रकारों के लिए उसका विशेष शो इसीलिए रखा जाता है ताकि इनायत रहे। अब सब रिश्ते भी सौहाद्र्र के बनाने में विश्वास करते हैं। अच्छा परिचय समीक्षा को बहुत प्रभावित करता है यह भी सच है। कई आदर्श और अपनी कलम से साथ टू द पाइंट होने वाले समीक्षक हालाँकि रिश्तों की परवाह नहीं करते। कई बार फिल्म बनाने वालों पर भी सख्त किस्म के, एकदम सख्त न भी कहिए तो मुलायम न रहने वाले समीक्षकों का दबाव-प्रभाव रहता है, जो, जो देखते हैं, अपना आकलन करके साफ-साफ लिखने में विश्वास करते हैं। ऐसे समीक्षकों से सिनेमा का सच्चा आकलन भी होता रहता है। बहरहाल मुम्बई के बाहर स्थितियाँ ऐसी नहीं हैं। समीक्षकों को फिल्म का विश£ेषण पता नहीं होता। भावुक उदारता से सितारे दे दिया करते हैं। इण्टरनेट पर मनोरंजन के तमाम डॉट कॉम में समीक्षा अपना अपना दृष्टिकोण होता है। बहुत से अखबारों को समीक्षा अगले दिन छापना अपरिहार्य है।
बहुत से अखबार, रविवार का दिन मुकर्रर करते हैं। इस तरह शुक्रवार को सिनेमाघर में लगी फिल्म पर व्यवस्थित टिप्पणी आसानी से सम्भव हो जाया करती है। अलग-अलग स्थितियों और अपरिहार्यताओं के कारण समीक्षा के पृथक रंग दिखायी देते हैं। एक फिल्म पर आप चार जगह पढक़र अलग-अलग राय जान पाते हैं। निष्पक्ष, निष्कपट और इसके उलट पूर्वाग्रहग्रस्त टिप्पणियाँ भी अपना आकर्षण रखती हैं। समीक्षाएँ, सिनेमा की अब रिपोर्टिंग ज्यादा हो गयी हैं। समुचित जानकारी और अनुभव के अभाव में अच्छी टिप्पणी अब दुर्लभ है।
यह बात भी उतनी ही सच है कि अब सिनेमा उस तरह का होता भी नहीं कि लिखने वाला बहुत ज्यादा कसरत करके कलम उठाए मगर बुरी फिल्म की अच्छे ढंग से बुरी समीक्षा करना भी एक किस्म का रचनात्मक हुनर है। हिन्दी सहित भारतीय भाषाओं में ऐसे हुनरमंद समीक्षक कम हैं।
2 टिप्पणियां:
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सहमत हूँ आपकी बात से। निश्चय ही समीक्षा के लिए अनुभव और पूरी जानकारी होनी चाहिए।
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आपके समर्थन और सम्बद्धता दोनों के लिए आभारी हूँ जिएल जी।
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