तीन दशक पहले 1979 में प्रदर्शित फिल्म नौकर की चर्चा इस रविवार हम कर रहे हैं। हिन्दी सिनेमा हर काल में किसी न किसी सोद्देश्य फिल्म का साक्षी अवश्य होता है। बाजारवाद और स्पर्धाएँ हर माध्यम का एक दूसरा ही दृश्य हमारे सामने खींचती हैं मगर हर दौर में ऐसे कुछ लोग मिल जाते हैं, जो भले अपने काम से बड़ा धनसंचय न कर पाएँ मगर उनका किया हुआ हमेशा याद जरूर रहता है। इस्माइल मेमन निर्देशित फिल्म नौकर तब के दौर की एक ऐसी ही उल्लेखनीय फिल्म है। हालाँकि 79 का साल सफल सिनेमा लिहाज से कमजोर था फिर भी उसी साल यश चोपड़ा की काला पत्थर और सई परांजपे की स्पर्श फिल्में भी रिलीज हुई थीं।
नौकर, एक भावनात्मक कहानी से बुना गया तानाबाना है। अमर एक विधुर है, रईस है, उसकी एक छोटी बच्ची है। साथ में एक नौकर दयाल है जो बचपन का दोस्त है मगर उसकी तवज्जो रईस की निगाह में मित्र और भाई की तरह ही है। ऐसी कहानी हमें उस दुर्लभ पुराने समय की याद दिलाती हैं, जब घर के नौकरों में अपने मालिक के प्रति गजब आदर और बच्चों के प्रति स्नेहिल वात्सल्य भाव हुआ करता था। परिवार में उनकी सुनी जाती थी और बच्चों को इस बात की हिदायत होती थी, कि नौकर के साथ गलत बर्ताव न करें। खैर, नौकर की कहानी में परिवार का अमर पर दबाव है कि वो शादी कर ले। बहुत सारे प्रस्ताव हैं। आखिर एक प्रस्ताव पर बात बनाने की कोशिश है। बमुश्किल राजी अमर, अपनी बेटी और दयाल के साथ लडक़ी देखने जाता है।
अमर एक संवेदनशील व्यक्ति है, उसको लगता है कि शादी के बाद उसकी बेटी का हो सकता है, उस तरह ख्याल न रखा जाये। वह यह भी सोचता है कि देखते समय चेहरे और व्यवहार से किसी का भी स्थायी आकलन नहीं किया जा सकता। रास्ते में उसको एक दिलचस्प ख्याल आता है। वह दयाल से कहता है कि तू अमर बन और अमर खुद दयाल बनकर चलता है। दयाल बमुश्किल राजी होता है। लड़कियों के घर पहुँचकर स्थितियाँ और सच्चाइयाँ सामने आती हैं। आखिर अमर को वो गीता पसन्द आती है जो उस घर की नौकरानी है। नौकर बना अमर उसको अपनी पत्नी बना ले आता है और अमर बने दयाल की शादी उस लडक़ी से होती है, जिसका रिश्ता अमर के लिए आया था।
नौकर एक बड़ी सहज फिल्म है, जो देखते हुए बहुत आनंदित करती है। मुख्य रूप से यह जया बच्चन, संजीव कुमार और मेहमूद की फिल्म है, मगर मेहमूद अपनी रेंज से पूरी फिल्म में अपना बड़ा प्रभाव छोड़ते हैं। अमर, दयाल बनकर गया है, उसे सर्वेन्ट क्वार्ठर में ठहरा दिया जाता है और दयाल जो अमर के रूप में है, वह बंगले में ठाठ-बाठ के साथ। वो दृश्य बहुत हँसाते हैं जब नौकर बने संजीव कुमार, मालिक बने मेहमूद के पाँव दबाते हैं। ललिता पवार, मीना तलपदे और मधु मालिनी फिल्म के सहायक कलाकार हैं। फिल्म के गाने बहुत अच्छे हैं, एक गीत, पल्लो लटके, बड़ा चर्चित हुआ था जो संजीव और जया पर फिल्माया गया था।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें