मूढ़तापरक सृजन का साक्षी होना कई बार सजा काटने की तरह होता है। छोटे परदे के सामने बैठना ऐसी ही सजा काटने सरीखा है। हालाँकि ऐसे सौभाग्य नित्य-प्रति नहीं मिलते मगर परिवार के साथ सामूहिक भागीदारी जिसमें मुख्य रूप से खाना, खाना होता है, ऐसे वक्त में इस तरह की महान अनुभूतियाँ होती हैं। भाँय-भाँय करता संगीत, दोहराये जाते दृश्य, झन्न-फन्न, शूँ-शाँ, ढिच-ढिच की ध्वनियों के बीच रह-रहकर स्थिर होते चेहरे, उनकी बचकानी कुटिलताएँ बर्दाश्त कर पाना बड़ा मुश्किल होता है।
ऐसा लगता है कि उन सभी का अभिनन्दन किया जाये, उन लाखों-करोड़ों लोगों का जो लोग इसे बड़े चाव से बर्दाश्त करते हैं और वह भी भी पूरी एकाग्रता के साथ। बहरहाल, दो दिन पहले फुलवा धारावाहिक देखते हुए खलनायक की आमद वाले दृश्य से ऐसे ही दो-चार होना पड़ा। जिसमें गाँव के शोषक जमीदार और उसका बेटा, खलनायक का महिमा मण्डन कर रहे थे और दृश्य में चेहरा छोड़ हर भाग से उसका उघाड़ा शरीर दिखाया जा रहा था। वह नहा रहा था, कपड़े पहन रहा था, पूजा कर रहा था, रावण का मुखौटा लगाये था। इन्हीं दृश्यों के साथ उसका महिमा मण्डन पूरा हुआ और वह एकदम से उछलकर सक्रिय हो गया। घोड़े पर बैठ गया और दौड़ पड़ा अपने दो आदमियों के साथ एक निरीह कमोवेश मरे-मराये आदमी को मारने के लिए।
यह दृश्य ब्रेक के बाद का पूरा समय लील गया और जब खलनायक का चेहरा सामने आया तो चिकना-गोरा और चॉकलेटी। इतनी देर से प्रतीत यह होता रहा जैसे दिवंगत खलनायक अमरीश पुरी की आमद किसी फिल्म में होती थी, वैसा कुछ बाहुबली सामने आने वाला है, मगर यह सिनेमाछाप नकल बड़ी हास्यास्पद साबित हुई। शाम से लेकर देर रात तक इसी तरह धारावाहिक कर्कश ध्वनि में दिल-दिमाग की बत्ती गुल किए रहते हैं। धारावाहिकों के स्तर को नियंत्रित करने के लिए कोई सेंसर बोर्ड नहीं है, दुखद है। गजब का स्वेच्छाचार चैनल बरत रहे हैं।
इसके बरक्स कछुआ चाल से ही सही स्वस्थ और संजीदा मनोरंजन देने में सब टीवी चैनल का ग्राफ लगातार ऊपर जा रहा है। इस चैनल की तरफ स्तरीय मनोरंजन और जीवन मूल्यों के आकाँक्षी हर दर्शक को आना चाहिए।
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