खेल और सिनेमा के परस्पर रिश्तों के दिलचस्प तथ्य और घटनाएँ हैं। अतीत की बातें बहुत सी हैं मगर वर्तमान में होता यह है कि जब खेल हो रहा होता है तब सिनेमा बड़ी आर्थिक हानियों का शिकार हुआ करता है। खेल का जोर कुछ ऐसा हो गया है कि निर्माता पहले से ही अनुमान लगा जाते हैं कि ऐसे माहौल में अपनी फिल्म रिलीज करना कितना बड़ा जोखिम है। बड़ी-बड़ी फिल्में बुरे-बुरे हश्र को प्राप्त होती हैं। मँहगी फिल्में बनाने वाले ऐसे जोखिम से बचना चाहते हैं इसलिए अपनी फिल्मों की प्रदर्शन तिथियाँ आगे बढ़ा दिया करते हैं।
छोटी फिल्मों का जहाँ तक सवाल है, तो क्या लाभ, क्या हानि? वे फिल्में सिनेमाघर को रोशन करती अवश्य हैं मगर हॉल खाली रहता है। कभी-कभार ऐसे जोर में कुछ अच्छी फिल्में भी आकर लग जाया करती हैं जिनकी चर्चा कुछ प्रतिशत दर्शकों को सिनेमाघर तक ले आती है मगर सराहना का प्रतिशत ऊँचा रहने के बावजूद आर्थिक लाभ तो नहीं ही होता। खेल के माहौल में फिल्म प्रदर्शित करने का जोखिम उठाया ही नहीं जाता, ऐसा नहीं है मगर इसके नकारात्मक परिणाम ही ज्यादा होते हैं। गर्मी के मौसम में अपने घर में टेलीविजन पर मैच देखना, खेलप्रेमियों का प्यारा शगल है। खेल प्रेमी यह शगल काम की जगहों पर भी फरमाते हैं, यह अलग बात है मगर बड़ा पैसा खर्च करके फिल्म देखने जाना कोई पसन्द नहीं करता।
मार्च का महीना इसी लिहाज से पूरी तरह खाली है। कोई खास फिल्म अब रिलीज नहीं हो रही। हिन्दी फिल्मों की अभिनेत्रियों को मैच देखने का खासा शौक है। शौक खेल का देखने से भी आगे जा चुका है। अभिनेत्रियाँ टीमें खरीद रही हैं, मैच करवा रही हैं और अपने मूल काम को छोडक़र इसकी राजनीति में बढ़-चढक़र हिस्सा ले रही हैं। शाहरुख खान जैसे अभिनेता भी इसी काम में जुटे हैं। शर्मिला टैगोर और जीनत अमान के जमाने से लेकर दीपिका पादुकोण तक मैच-प्रेमी अभिनेत्रियों के नामों की लम्बी सूची है।
अभिनेत्रियों का खिलाडिय़ों से रोमांस भी रहा है और शादियाँ भी हुई हैं। सितारा क्रिकेटर बड़ी अभिनेत्रियों के साथ रोमांस करके दुतरफा ख्यातियाँ हासिल कर चुके हैं। वह आकर्षण आज भी कम नहीं हुआ है।
सिनेमा मनोरंजन का एक अलग और विशिष्ट तरह का माध्यम है और खेल, अपने चाहने वालों में गहरे रोमांच का सबब। दोनों की अपनी ख्यातियाँ, ग्लैमर और रोमांच हैं, मगर यह भी उतना ही सच है कि खेल की गरमी, सिनेमा को अब सबसे ज्यादा बेहाल करती है और पसीना लाती है।
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