दो दिन पहले भारत की पहली बोलती फिल्म आलम आरा के प्रदर्शन के अस्सी साल पूरे हुए हैं। 14 मार्च 1931 को मुम्बई के मेजेस्टिक सिनेमा में इसे प्रदर्शित किया गया था। जैसे-जैसी सिनेमा की शताब्दी नजदीक आ रही है, वैसे-वैसे इस तरह की घटनाएँ सौ साल के सिनेमा के गौरवशाली क्षणों की याद दिलाकर मन में गौरव की अनुभूति कराती हैं। सिनेमा का आरम्भ मूक फिल्मों के जरिए हुआ था। दादा साहब फाल्के ने राजा हरिश्चन्द्र का निर्माण 1913 में किया था।
लम्बे समय तक हमारे यहाँ तब फिल्म को साथ खड़े होकर समझाने की प्रक्रिया चलती रही थी। सिनेमा का समग्रता में आनंद दर्शकों को प्रदान करना, तब का सिनेमा बनाने वालों की ज्यादा संजीदा और गम्भीर जिम्मेदारी हुआ करती थी। चेष्टाओं और हावभाव के साथ हिलते ओठों को व्याख्या के माध्यम से, वाद्यों से उत्पन्न संगीत के माध्यम से सम्प्रेषित किया जाता था। अठारह साल का अन्तराल सिनेमा को सवाक होने में लगा जो कि आसान काम नहीं था। उस समय सिनेमा बनाना जुनून की तरह था और उपकरण के लिए विदेश जाना होता था। भारतीय सिनेमा के पितामह, अपना सामान बेचकर सिनेमा बनाया करते थे। दस तरह की तकलीफें उठाकर परदे पर सजीव आकृतियों को खड़ा करते थे।
आलम आरा बनाने वाले फिल्मकार आर्देशिर ईरानी ने मास्टर वि_ल, जुबैदा, पृथ्वीराज कपूर, वजीर मोहम्मद खान, जगदीश सेठी और एल.वी. प्रसाद के साथ यह फिल्म बनायी थी। एक सौ चौबीस मिनट की इस फिल्म में हिन्दी-उर्दू मिश्रित संवादों का प्रयोग किया गया था। आर्देशिर ईरानी का जन्म 1860 में हुआ था। बीस साल के होते-होते कई तरह के अनुभवों से गुजरे मसलन कैरोसिन तेल बेचने से लेकर पुलिस इन्स्पेक्टर बनने तक मगर उनका दिमाग सिनेमा की तरफ था सो 1905 में अमरीका की यूनिवर्सल कम्पनी की फिल्मों के डिस्ट्रीब्यूटर बन गये। एक मित्र के साथ उन्होंने 1914 में मुम्बई का अलेक्जेण्ड्रा सिनेमा घर खरीद लिया। 1926 में ईरानी ने इम्पीरियल फिल्म कम्पनी बनायी और फिर पचास साल लगातार खूब काम किया, अनेक मूक फिल्में बनायीं, जिसमें वीर अभिमन्यु पहली फिल्म थी।
आर्देशिर ईरानी की फिल्मों के जरिए ही जेबुन्निसा, सुलोचना रूबी मेयर्स, याकूब खान, ई. बिलीमोरिया, डी. बिलीमोरिया और जाल मर्चेन्ट जैसे कलाकारों को प्लेटफॉर्म मिला। लगभग सवा सौ से ज्यादा मूक फिल्म बनाने वाले ईरानी ने आलमआरा फिल्म को सवाक् रूप में प्रस्तुत करके सभी को अचम्भित कर दिया था। दर्शक विस्मित और सुखद आश्चर्य से हतप्रभ थे कि परदे पर किस तरह हमारे जैसी दिखायी देने वाली आकृतियाँ बोलने भी लगी हैं।
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