नाना पाटेकर को यदि अपने तेवर से अनुशासित कलाकार कहा जाये, तो शायद कोई अतिश्योक्ति न होगी। इसी महीने उनकी एक उल्लेखनीय फिल्म शागिर्द रिलीज हो रही है। नाना इसमें अपने उसी तेवर के साथ हैं, जिसकी वजह से दर्शक उनको इतने वर्षों में जानते आये हैं। यह वाकई बड़ी खास बात लगती है कि नाना को दर्शक नाना की तरह ही देखना चाहता है। वह नाना जो अंकुश से हिन्दी फिल्मों में एक अलग ही लकीर खींचने आया था। नाना को हिन्दी फिल्मों में आये लगभग तीन दशक होते आ रहे हैं।
पच्चीस साल पहले अंकुश में हमने उन्हें चार-पाँच ऐसे युवाओं के बीच देखा था जो दिशाहीन हैं और अराजक जिन्दगी जी रहे हैं, उनका स्वयं अपने आपसे विश्वास उठा हुआ है। ऐसे में उनका जीवन एक बुजुर्ग स्त्री और उसकी बेटी की वजह से सन्मार्ग की तरफ आता है, इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमजोर हो ना, गाना हमें व्हीं शान्ताराम की फिल्म दो आँखें बारह हाथ की याद दिलाता है जिसका गाना, ऐ मालिक तेरे बन्दे हम, आज भी अपने भीतर एक तरह का स्फुरण पैदा करता है। अंकुश वैसी फिल्म नहीं थी कि उस बुजुर्ग स्त्री के घर जाने वाले युवाओं को उसकी बेटी से प्रेम हो जाये। एक अलग ही तरह की कहानी फिल्म की थी, जिसमें ये युवा एक बार फिर तब अराजक और नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं जब उस बुजुर्ग स्त्री की बेटी का बलात्कार हो जाता है। नाना पाटेकर ने अपनी भूमिका में उस फिल्म से जो अर्जित किया उसको आज तक भरसक निबाह रहे हैं।
इस बीच नाना को कितनी ही तरह की भूमिकाएँ करने को मिलीं और उन्होंने अपने उसी चेहरे से सबको निभाया भी फिर वो चाहे सलाम बॉम्बे हो, दीक्षा हो, प्रहार हो, तिरंगा हो, दिशा हो, खामोशी द म्युजिकल हो, थोड़ा सा रूमानी हो जाएँ हो, राजू बन गया जेंटलमेन हो, अपहरण हो, वेल्कम हो या, राजनीति हो या और भी तमाम फिल्मेें जो इस वक्त उल्लेख से छूट गयीं। नाना सबको अपनी तरह जीते आये। दर्शक को हमेशा उनका किरदार पसन्द आया। उनकी एक फिल्म अब तक छप्पन जरूर दर्शकों को देखनी चाहिए, भले ही वो उतनी न चली हो, मगर नाना, उसमें वाकई एक-एक दृश्य और संवाद में कमाल करते हैं।
शार्गिद, नाना को एक बार फिर एक्शन के तेवर में लेकर आ रही है। राजनीति के बाद शागिर्द में हमें वे फिर एक बार अपनी उम्र से जरा पीछे दिखायी देंगे।
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