इस रविवार, खास होली का त्यौहार पर राजिन्दर सिंह बेदी की महत्वपूर्ण फिल्म फागुन की चर्चा करना बड़ा प्रासंगिक लगता है। धर्मेन्द्र, वहीदा रहमान, जया भादुड़ी, विजय अरोरा और ओमप्रकाश अभिनीत यह फिल्म 1973 में आयी थी। अपनी कथा वस्तु में यह फिल्म बड़ी मर्मस्पर्शी है, और आम पारिवारिक जीवन में होने वाली घटनाओं के प्रभावों को संवेदनशीलता के साथ देखती है।
जैसा कि नाम से जाहिर है, फिल्म फागुन, होली के दिन एक घटना से एक परिवार, एक जिन्दगी और रिश्तों की क्षतियों का आकलन करती है। फिल्म का नायक एक लेखक है जिसके पास आय के नियमित साधन नहीं हैं। एक धनाड्य परिवार की लडक़ी से उसका प्रेम-विवाह हुआ है। पत्नी से बेहद प्यार करने वाला नायक उसके साथ अपने सास-ससुर के बड़े घर में रहता है मगर उसका स्वाभिमान उसे बराबर आत्मनिर्भर होने के लिए कचोटता है। उसके ससुर और दूसरे सदस्य बातों-बातों में उसका अपमान भी करते हैं मगर अपनी पत्नी के प्रेम में वह सब कुछ सहता है।
इसी परिवार में एक होली के दिन हो रहे उत्सव में नृत्य करती, गाती अपनी पत्नी के प्रति अनुराग में भरकर नायक पिचकारी से रंग डाल देता है। इस घटना से वातावरण स्तब्ध है और नायिका के पिता की भृकुटियाँ तन जाती हैं। अपने पिता की निगाह को देखते हुए नायिका, नायक से कहती है कि तुम्हें क्या हक बनता है रंग डालने का जब एक साड़ी लाकर नहीं दे सकते। नायक ताने से व्यथित होकर घर छोडक़र चुपचाप चला जाता है। इस समय नायिका गर्भवती है। बेटी होती है, उसको पालती है और उसका विवाह करती है। वह अपनी बेटी के पक्ष में दामाद का बड़ा ख्याल रखती है जो दामाद को पसन्द नहीं।
फिल्म के क्लायमेक्स में फिर एक होली है जिसमें फिर उत्सव का माहौल है। दामाद, अपनी सास पर रंग डाल देता है मगर दामाद के व्यवहार से दुखी नायिका उसे भला-बुरा कहती है। बेटी हतप्रभ है, दुख का माहौल है मगर इसी वक्त नायिका का पति अपने हाथ में एक साड़ी लिए लौट आया है। अपने कहे कड़वे शब्द का पश्चात पूरे जीवन करती नायिका के चेहरे पर प्रायश्चित है। पिया संग खेलो होली, फागुन आयो रे, गाने का नेपथ्य है और जीवन के उत्तरार्ध में लौटे नायक ने अपनी पत्नी को रंग लगा दिया है। मन को झकझोरकर रख देने वाला चरम है मगर फिल्म सुखान्त है।
धर्मेन्द्र, फिल्म के आरम्भ में पन्द्रह मिनट और अन्त में लगभग दस मिनट हैं मगर पूरी फिल्म में उनके कैरेक्टर का प्रभाव लगातार बना रहता है। वहीदा रहमान ने अकेलेपन की पीड़ा और पछतावे को मर्मस्पर्शी ढंग से जिया है। विजय अरोरा और जया की भूमिकाएँ सामान्य हैं। एक लेखक राजिन्दर सिंह बेदी की फिल्म है जो अपने कथ्य से दर्शक के मन को छूती है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें