विश्व महिला दिवस पर बात करने के लिए इससे समीचीन विषय और क्या हो सकता है कि हम यहाँ पर अपने सिनेमा में स्त्री की जगह पर अपनी स्मृतियों को झकझोरें। भारतीय सिनेमा, दरअसल एक बड़ी परम्परा का रूप है। एक वर्ष बाद ही उसका सौंवाँ वर्ष शुरू हो जायेगा। सौ साल के आकलन के लिए बहुत सी चीजें हैं, पर स्त्री की जगह को लेकर एक सतत विचार हमारे सिनेमा में हमेशा फलीभूत हुआ है। बहुत से ऐसे लोग जो सिनेमा को बीते कल से आज तक का माध्यम मानकर उसमें स्त्री की दुखद दर्शनीय या अनावृत्त स्थितियों के बहाने इस पूरी मान्यता को खारिज करने के बारे में सोचें मगर इस परम विश्वास को मानकर चलना ही होगा कि अछूत कन्या फिल्म से लेकर कम से कम मृत्युदण्ड फिल्म तक सिनेमा में स्त्री के महत्व को प्रभावी ढंग से, संवेदनशीलता के साथ निबाहा गया है।
किसी भी रचनात्मक माध्यम में श्रेष्ठता या एक्सीलेंस निरन्तरता के आग्रह या यथार्थ के साथ ही स्थापित होता है। भारत में सिनेमा का बनना ही एक पुनीत और उद्देश्यपूर्ण विचार के साथ आरम्भ हुआ। दादा साहब फाल्के ने राजा हरिश्चन्द्र बनायी, उसमें भी स्त्री अपने सशक्त रूप में मौजूद थी। यह प्रेरणा हमारी परम्पराओं से आयी है जहाँ स्त्री का अपना आध्यात्मिक तेज और प्रकाश है, वहीं से सांस्कृतिक माध्यम प्रेरणाएँ ग्रहण करते हैं और वहीं से महिमा अपना विस्तार लेती है। प्रस्तुतिकरण हमें उस पूरी मान्यता से सहमत करता है जिसे हम एक अनुशासन में देखते हैं।
आरम्भ में सिनेमा निर्माण घरानों की पहचान हुआ करता था। निर्देशक एक तरह से फिल्म का नियंता हुआ करता था। सिनेमा की शुरूआत से ही विभिन्न विषयों के माध्यम से स्त्री की सामथ्र्य, उसके संघर्ष, उसकी विजय और उसकी संवेदनाओं को आधार बनाने की परम्परा डाली गयी। ऐसी बहुत सारी फिल्में हैं, जो इस मान्यता को सही ठहराती हैं, सबका जिक्र सीमित शब्दों के इस स्तम्भ में सम्भव नहीं है मगर हम दहेज, दुनिया न माने, आदमी, जीवन नैया, किस्मत, नजमा, औरत, मदर इण्डिया, चन्द्रलेखा, परिणीता, बिराज बहू, सुजाता, बन्दिनी, साहब बीवी और गुलाम, पाथेर पांचाली, तीन कन्या, मेघे ढाका तारा, अनुपमा, मिली, दामुल, मिर्च मसाला, रुदाली, भूमिका, आरोहण, राव साहब, चक्र, परमा, छत्तीस चौरंगी लेन, हजार चौरासी की माँ, आराधना, अमर प्रेम, ममता, खामोशी, उपहार, दामिनी, तपस्या जैसी कितनी ही फिल्मों को याद कर सकते हैं। हमेंं इन फिल्मों को याद करते हुए इन फिल्मों के निर्देशक, अभिनेत्रियों को भी याद करना चाहिए जिनके निभाए किरदारों के कारण ही हम आज इन फिल्मों को भूल नहीं पाते।
लगभग पन्द्रह वर्ष पहले प्रकाश झा ने मृत्युदण्ड के माध्यम से एक सशक्त विषय को छुआ था और समकालीन स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में स्त्री के अपने समाज, सम्मान और अस्मिता की स्थितियों और यथार्थ को प्रभावी ढंग से व्यक्त किया था। बाद में राजकुमार सन्तोषी ने लज्जा में अपनी बात कमजोर ढंग से रखी। हम आज के सिनेमा को अब खासकर उस सारे प्रभाव से मुक्त देखते हैं, जिसके माध्यम से हम कुछ बात कर पाते। अतीत हमें फिर भी रोमांचित करता है, गर्वित भी।
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