सोमवार, 9 मई 2011

संगीतकार उत्तम सिंह कहाँ हैं.......?


फिल्मों की दुनिया अजीब ही है। यहाँ बेहतर को मौके मिलते हैं और बुरे-बदतर को वक्त के साथ बिसरा दिया जाता है। लेकिन इसी के साथ ही एक सच यह भी है कि यहाँ बड़े आष्चर्यजनक ढंग से बेहतर भी लाइन हाजिर होकर रह जाता है और बुरे-बदतर चलते रहा करते हैं। अभी एक दिन यष चोपड़ा की लगभग पन्द्रह साल पहले की फिल्म दिल तो पागल है, का एक गाना सुना, घोड़े जैसी चाल, हाथी जैसी दुम, ओ सावन राजा कहाँ से आये तुम, तो लता जी की याद हो आयी, उदित नारायण याद आ गये। गीतकार आनंद बख्शी याद आ गये जो हमारे बीच अब नहीं हैं और फिर याद आये उत्तम सिंह।

इतने सारे चर्चित नाम-चेहरे ताजा हुए तो फिर दिल तो पागल है के और भी गाने सुनने की चाह हुई। सभी सुन डाले, भोली सी सूरत आँखों में मस्ती दूर खड़ी शरमाए, दिल तो पागल है दिल दीवाना है, मुझको हुई न खबर चोरी-चोरी छुप-छुपकर, अरे रे अरे ये क्या हुआ मैंने न ये जाना आदि। इन सब गानों को सुनते-सुनते जहन में पूरी तरह उत्तम सिंह आकर ताजा हो गये। ध्यान किया कि शायद इन पन्द्रह सालों में इस अत्यन्त माधुर्यभरे संगीतकार ने पाँच फिल्में भी न की हांेगी। क्यों ऐसा हुआ कि दिल तो पागल है से इतनी बड़ी ऊँचाई, लोकप्रियता, मान-सम्मान-प्रतिष्ठा हासिल करने के बावजूद उनको और काम न मिला। नहीं अन्दाज लग पाया कि कैसे वे उस कैम्प में दोहराए नहीं गये जहाँ से उनके जीवन भर की मेहनत परवान चढ़ी थी। व्यक्तिषः मुझे वह पूरा दौर याद आ गया जब दिल तो पागल है फिल्म आयी थी। इस फिल्म का संगीत सचमुच उन्होंने दिल से, डूबकर रचा था।

शाहरुख खान, माधुरी दीक्षित, करिष्मा कपूर एक अजीब से त्रिकोण का हिस्सा बने किरदार के रूप में सामने थे। प्रेम त्रिकोण में गजब की फिलाॅसफी उस समय साठ साल के होते यष जी ने रची थी। फिल्म का नाम और सामान्य प्रचार में किसी ने नहीं जाना था, कि इस फिल्म को अनेक आयामों में हिट हो जाना है। ऐसी चर्चा हासिल करनी है जो अपने आसपास के तमाम युवा और सफल निर्देषकों को हतप्रभ कर दे, यष जी के काम से। इसमें कोई शक नहीं कि फिल्म का गीत-संगीत लोकप्रियता में बराबर का सहभागी हुआ था। इसीलिए उस वक्त के उत्तम सिंह जैसे रचनाधर्मी और गहरे संगीत-साधक की याद अचानक आ जाना स्वाभाविक था। बाद में उन्होंने जो कुछ फिल्में कीं उनमें तनूजा चन्द्रा निर्देषित दुष्मन और डाॅ. चन्द्रप्रकाष निर्देषित पिंजर थीं।

आज ऐसे वक्त में जब फिल्म संगीत ही नहीं, समूची फिल्म संस्कृति ही क्षणभंगुरता का षिकार है, संगीत भला कहाँ याद रहेगा। जाने क्यों नहीं अच्छे संगीत को अच्छे सिनेमा की जरूरत समझने वाले फिल्मकारों को उत्तम सिंह जैसे उत्तम और गुणी संगीतकार याद नहीं आते?

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