हाल ही में इस खबर ने, जिसका उल्लेख हमने कुछ दिन पहले सुभाष घई निर्मित और रितुपर्णो घोष निर्देशित फिल्म नौका डूबी और उसके हिन्दी संस्करण कश्मकश पर लिखते हुए किया था, कि सुभाष घई ने इस फिल्म के हिन्दी संस्करण के लिए गुलजार साहब से गीत लिखने का अनुरोध किया और यह भी कि संगीत रचना में भी टैगोर की संगीत परम्परा की खुश्बू महसूस की जा सके, हम अपने शहर की सबसे अच्छी और यथा समृद्ध म्युजिक शॉप में इस लालच से गये कि इस फिल्म का संगीत खरीदा जाये, नौका डूबी के नाम से मिले या कश्मकश के नाम से क्योंकि दोनों ही संस्करणों का संगीत काफी दिन पहले जारी हो गया था।
दोनों ही फिल्मों, टैगोर के एक सौ पचासवें जन्मवर्ष का उपलक्ष्य आदि, आदि समझाते हुए इन दोनों फिल्मों के नाम बताकर पूछा कि गानों की सीडी मिलेगी। जवाब न में था। खास बात यह थी बहुत ताजा मसला था, इतना ज्यादा समझाने और उसके बाद ना-उम्मीद होने का अनुमान न था मगर वही हुआ। लेकिन उनका यह भी कहना हुआ कि अब संगीत का बाजार खत्म सा है। सीडीज़ हम नहीं लाते क्योंकि उनको कोई खरीदता नहीं है, लिहाजा बेचा जाना सम्भव नहीं है। ढेर लगाकर क्या फायदा? आजकल जमाना एम पी-3 का हो गया है। बीस-पचीस रुपए में सौ-पचास गाने की डिमाण्ड रहती है। ऐसे में कौन लेगा गानों की सीडी सौ-डेढ़-दो सौ रुपए में?
तर्क और दलीलों के साथ बाजार और लोगों की अभिरुचि पर इतनी लम्बी बात होती चली गयी पर व्यर्थ में हुई यह कहना उपयुक्त न होगा। इसने एक चिन्ता तो सामने रख ही दी। सचमुच अब म्युजिक सीडी के बाजार पर भी खासा कुहासा छाया है। एक बार विख्यात गजल गायक पंकज उधास ने भी कहा था कि कैसेट का दौर चला गया है पूरी तरह। अब लोग कैसेट खरीदते नहीं हैं, बिकते नहीं हैं और बनते भी नहीं हैं। फिल्म संगीत को सुनने का शगल अब किसी का नहीं रहा, नये फिल्म संगीत की बात हो रही है। हमारे एक आत्मीय गजलकार मित्र कहते हैं कि पच्चीस सालों से हमारी रोजी-रोटी पुराने गानों को गाकर चल रही है।
आज का संगीत कोई सुनना ही नहीं चाहता। इस समय जो लोग फिल्में बना रहे हैं उनके पास संगीत को लेकर कोई चिन्ता नहीं है। वे गीत-संगीत को फुलझड़ी और पटाखा की तरह बनाते और इस्तेमाल करते हैं। चलने और छूटने तक ही मजा, बाद में बुहारकर किनारे कर दिया जाता है। इस दुर्दशा के लिए भी शायद यही जिम्मेदार भी हैं।
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