आजकल की फिल्मों में मनोरंजन को लेकर न तो लेखक चिन्ता करना चाहता है, न कलाकार और न निर्देशक। निर्माता की सारी चिन्ता इसी में रहती है कि फिल्म पिट गयी तो क्या होगा, जाहिर है सबसे बुरा उसी का होगा क्योंकि पैसा वही लगा रहा है। कलाकार के नाज-नखरे, ऐशो-आराम, खुद और चार लग्गू-भग्गुओं का खर्च भी उसी के माथे है, और भी तमाम सब। दूसरा निर्देशक है जिसके सिर पर तलवार लटकी है, निर्माता की, कि मुनाफे वाला काम करके देना है नहीं तो खैर नहीं। वह लेखक से खूब सिर खपाकर निर्माता के भरोसा करने लायक पटकथा लिखवाकर काम करता है।
कलाकार सुरक्षित हैं, जमकर पैसा तय कर लिया गया है, ले लिया गया है, अब काम अपनी तरह से होगा। संजीदा और समर्पित कलाकार होगा तो अनुशासन का पालन करेगा, अपने किरदार पर ध्यान देगा और हर शॉट के लिए मेहनत करेगा। ऐसा भला न हुआ तो उसी के डमरू पर निर्देशक को नर्तन करना पड़ेगा। ऐसे में जो फिल्म बनकर आयेगी, वह जैसी भी होगी, दर्शकों आप ही के हवाले है। आप तय ही नहीं कर पाओगे कि देखूँ या नहीं क्योंकि भारी भरकम टिकिट पर पैसा वसूल की गारन्टी नहीं है। एक अच्छी फिल्म भले दो दिन आनंद में न रखे लेकिन एक बुरी फिल्म भुगतकर एकाध सप्ताह तो दर्शक पछताता ही है, जेब सहला-सहलाकर।
पहले के अनुभवी निर्देशकों में मनोरंजन तत्वों के लेकर कई तरह के मुहावरे हुआ करते थे। चिन्नप्पा देवर दक्षिण के जाने-माने निर्देशक थे, उन्होंने हाथी मेरे साथी बनायी तो हाथियों को इस तरह पेश किया कि राजेश खन्ना से ज्यादा श्रेय वे ले गये और फिल्म हिट हो गयी। निर्देशकों ने ही हीरो से ज्यादा हास्य अभिनेताओं मेहमूद, जॉनी वाकर और खलनायकों कन्हैयालाल, हीरालाल, के.एन. सिंह, चरित्र अभिनेता अशोक कुमार, मोतीलाल, बलराज साहनी को अपनी फिल्मों में ऐसी भूमिकाएँ दीं, कि लोग उनके लिए फिल्म देखने गये और नायक-नायिका और उनकी कहानी गौण हो गयी। छत्तीसगढ़ के दो से भी कम फीट आकार के नत्थू दादा को राजकपूर ने मेरा नाम जोकर में जोकर बनाया तो बाद में वे दो सौ फिल्मों में अपने जौहर दिखाकर दर्शकों को कौतुहल से भर देने में कामयाब रहे।
ऐसा अनेक बार हुआ जब दर्शकों ने ऐसे कलाकारों के दृश्य विशेष को बहुत पसन्द किया और उसके लिए फिल्म देखने दोबारा गये। जैकी श्रॉफ की एक फिल्म तेरी मेहरबानियाँ में एक कुत्ता अपने मालिक के तीन हत्यारों का बदला लेता है और हर सफलता पर मालिक की समाधि पर माला चढ़ाता है। सफलता के फार्मूले और फार्मूला फिल्में अपना वजूद रखा करती थीं। अब सिनेमा का कारोबार जोखिम से भरा है। एक रुपए की लागत में शायद बीस पैसे लौट रहे हैं।
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