रविवार, 15 मई 2011

पारम्परिक खलनायकों से खाली होता सिनेमा


पिछले दिनों हिन्दी फिल्मों के खलनायक शक्ति कपूर भोपाल आये थे। एक जमाना था जब उनका आगमन बड़ी सम्भावनाओं के साथ हुआ था। शुरूआत में उनका नाम सुनील कपूर था। अर्जुन हिंगोरानी उनके गॉड फादर थे जिन्होंने उनको अपनी फिल्म खेल खिलाड़ी का, से चांस दिया था। पहली फिल्म बड़ी ऊर्जा के साथ उन्होंने की। बाद में ज्यादा नहीं चल पाये तो सोचा नाम बदल लूँ सो शक्ति कपूर हो गये।

शक्ति कपूर होने से चल निकले हों, ऐसा नहीं है मगर तब के बड़े खलनायकों अमजद खान, कादर खान, मदन पुरी और अमरीश पुरी की गैंग के गुण्डे की भूमिकाएँ करते-करते अपनी क्षमताएँ बढ़ाते रहे। अभिनेत्री पद्मिनी कोल्हापुर की बड़ी बहन शिवांगी से शादी की। आगे काम करते हुए लाइम लाइट में आये। सुभाष घई, फिरोज खान, राजकुमार कोहली, राज सिप्पी आदि के साथ काम करते हुए शक्ति ने अपने को मजबूत किया। सत्ते पे सत्ता, उनकी एक अच्छी फिल्म थी। बाद में डेविड धवन ने उनको राजा बाबू से फूहड़ और घटिया संवादों और हावभावों से हँसाने वाला कॉमेडियन बना दिया। यह लाइन शक्ति को खलनायकी से ज्यादा रास आयी।

शक्ति कपूर मुख्य खलनायक नहीं बन पाये मगर वरिष्ठ खलनायकों के रिटायर होने से उनको जो जगह मिल सकती थी, वह धारा बदल लेने से नहीं मिल पायी। इधर सिनेमा पारम्परिक खलनायकों से खाली होता चला गया। पहले मदन पुरी गये, फिर सबसे ज्यादा शक्तिशाली अमजद खान चले गये। कादर खान, घटिया कॉमेडी के परोसदारों में शक्ति कपूर से आगे निकल गये। तब सबसे अच्छा वर्चस्व अमरीश पुरी का स्थापित हुआ। अमरीश पुरी की खासियत थी, उनका थिएटर कमिटेड होना, किरदारों में उतर जाने की खासी क्षमता और मेहनत का परिचय देना और सशक्त निर्देशकों का पसन्दीदा कलाकार होना।

अमरीश पुरी ने इस अवसर को पूरा अपने पक्ष में इस्तेमाल किया और लगभग एक दशक से भी ज्यादा समय तक एकछत्र राज किया। यह उनकी खूबी ही कही जायेगी कि वे जब तक जीवित रहे तब तक लाइम लाइट में रहे, उनके पूछ-परख और सम्मान बना रहा, उनको अवसर मिलते रहे। उनके नहीं रहने के बाद जैसे हिन्दी सिनेमा से खलनायक इरा ही खत्म हो गया। धीरे-धीरे स्थिति यह आ गयी कि सिनेमा सशक्त खलनायक से रहित नजर आने लगा। इधर न तो मजबूत हीरो रहे और न ही उनको टक्कर देने वाला मजबूत खलनायक।

पिछले दस-बारह सालों में जो कलाकार हीरो बनकर आये, उन्होंने जायका बदलने के लिए बीच-बीच में नकारात्मक भूमिकाएँ कीं, जैसे जैकी श्रॉफ, संजय दत्त, अजय देवगन लेकिन सशक्त खलनायक की परिपाटी फिर कायम नहीं हो पायी। आज का सिनेमा न तो कायदे की हीरोशिप का है और न याद रह जाने वाली खलनायकी का।

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