आल्वेज ऐसा नहीं होता था पर अब काफी समय से होने लगा है। टेलीविजन पर फिल्मों की झलकियाँ चलती हैं तो बहुत कुछ मूढ़तापूर्ण दिखायी देता है। शाहरुख खान की कम्पनी ने एक फिल्म बनायी है जिसका नाम है, आल्वेज कभी-कभी। नाम सुनकर ही आश्चर्य से भर गया क्योंकि जहन में यश चोपड़ा की फिल्म कभी-कभी का एक अच्छा असर अभी तक है। अब ये आल्वेज कभी-कभी का मसला क्या है, आसानी से समझ न आया। खैर बादशाह की फिल्म है। बादशाह इस समय बहुत सारी चुनौतियों से जूझ रहा है।
सबसे बड़ी चुनौती बादशाहत की है जो चार-पाँच साल से लगातार झोल खा रही है। इसके साथ-साथ आमिर, सलमान आदि के साथ शाब्दिक ताल भी ठोंकना पड़ती है अक्सर। हमेशा सामने वाले के दहले को भी नहला समझना और अपने नहले को दहला ही मानना, यह भी अच्छे खासे तनाव का कारण है। समय व्यतीत होता जा रहा है, फिल्में आ नहीं रहीं जबकि स्पर्धी अपना परचम फहराने में लगे हैं। दूसरों की तीन फिल्में आ जाती हैं तब बादशाह की एक आती है। अस्सी-सौ सिगरेटें रोज पीने की कतिपय खबरों से अलग अचरज होता है कि एक अच्छा-खासा किस्मत का धनी कलाकार किस तरह अपने को रिड्यूज करने में लगा है, सेहत और समझ के साथ।
आल्वेज कभी-कभी में खुद नहीं हैं, मगर खुद की फिल्म है, इसलिए थोड़ा-बहुत तो रहना ही होगा सामने न सही, परोक्ष ही सही। आल्वेज ऐसा क्यों होता है, आल्वेज वैसा क्यों होता है की फिलॉसफी के साथ बादशाह फिल्म का माहौल बना रहे हैं, उधर रॉ-वन विलम्बित हो रही है। गजब भूत है अंगरेजी का हिन्दी सिनेमा पर। बरफी से मीठी और स्वादिष्ट चॉकलेट बतायी जा रही है। लव यू मिस्टर कलाकार की पब्लिसिटी एक चैनल पर चल रही थी और अमृता राव कह रही थीं, कि सूरज जी ने फिल्म के निर्देशक एस. मनस्वी पर भरोसा इन्वेस्ट किया। भरोसा क्या वाकई पूँजी की तरह इन्वेस्ट होता है, अपन को पता न था।
फिल्म जगत में हो सकता है, होता होगा, तभी न सूरज बडज़ात्या ने किया। यह अमृता राव जानती हैं। आल्वेज सब कुछ अंगरेजी में ही है, हिन्दी की सम्पदा खत्म भले न हुई हो, मगर पीढिय़ों ने, माध्यमों ने अब इसे औपचारिकता के लिहाज से केवल 14 सितम्बर के लिए ही रख छोड़ा है। सिनेमा भाषा को मेट रहा है। आल्वेज ऐसा ही हो रहा है, सचमुच शाहरुख खान, कभी-कभी ही नहीं।
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