सत्तर के दशक में जिस नये सिनेमा का आगमन हुआ, वह एक दशक में ही काफी परवान चढ़ा। सत्यजित रे, मृणाल सेन, श्याम बेनेगल, आरम्भ में उनके सिने-छायाकार और बाद में निर्देशक गोविन्द निहलानी आदि फिल्मकारों ने बाजारू सिनेमा में बहते पैसे और निरर्थकता के बरक्स कम खर्च का ध्यान खींचने वाला, चर्चा और बहस खड़ी करने वाला सिनेमा दर्शकों को दिया। एक दशक में इस तरह के सिनेमा का अपना वजूद बना, वह भी इतने कम समय में। इसी आत्मविश्वास की एक और फिल्म का नाम है मण्डी जो दर्शकों ने 1983 में देखी थी। इसके निर्देशक श्याम बेनेगल थे।
मण्डी, जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, वेश्याओं के जीवन के सबसे अस्थिर पहलू पर आधारित है। महानगरों का सच है, वहाँ का सबसे चर्चित बाजार जहाँ जीवन और अस्मिता का सबसे बड़ा संकट है। रसिया वृत्ति का मनोरंजन नाच गाने से ही नहीं होता, न ही यहाँ कला या विरासत के संरक्षण की कोई स्थितियाँ है, रंगीन जिन्दगी चेहरा बदलकर जी जाती है, उस समय के अपने आश्वासन, वादे और भरोसे होते हैं मगर बाद भी फिर चेहरा बदलते ही समाज की चिन्ता होने लगती है, उसके रसातल में जाने का डर सताने लगता है। शाबाना आजमी ने इस फिल्म में रुक्मणी का किरदार निभाया है, जिसकी चिन्ता केवल उसकी बढ़ती उमर ही नहीं बल्कि उन दस-बीस औरतों की दिशाहीनता भी है, जिनको आगे का कुछ पता नहीं। रुक्मणी सबका भरोसा है मगर उसके पैरों तले जमीन आये दिन उखड़ती है जब समाज सेवकों को ऐसा काम करने वाली औरतों को शहर से खदेड़ देने का परोपकार सवार होता है।
मण्डी की सबसे बड़ी खासियत उसकी चुस्त पटकथा होना है। हमें लगातार सामाजिकता और लोकलाज के सवालों पर उस तरह के किरदार दिखायी देते हैं जिनका एक पैर जमीन पर और एक दलदल में फँसा हुआ है। उस दृष्टि से फिल्म दोहरे चरित्रों पर व्यंग्य भी करारा है। पण्डित सत्यदेव दुबे और शमा जैदी ने फिल्म को पटकथा के जरिए ही असरदार बनाया है। शाबाना आजमी, स्मिता पाटिल, अमरीश पुरी, अनीता कँवर, सोनी राजदान, कुलभूषण खरबन्दा, हरीश पटेल, सतीश कौशिक, सईद जाफरी, ओम पुरी, नीना गुप्ता, इला अरुण, श्रीला मजुमदार जैसे बहुत महत्वपूर्ण कलाकार इस फिल्म को अपने किरदारों के साथ यादगार बनाते हैं।
इन सबके बीच नसीरुद्दीन शाह, डुंगरूस का अविस्मरणीय किरदार जीते हैं, एकदम चुप, बिना आवाज के हर बाई का हुक्म बजाने वाला, लेकिन कभी-कभी जब देर रात पीकर भड़ास निकालता है तो रुक्मणी से लेकर सभी बाइयों के नाम लेकर खरी-खोटी सुनाता है। डुंगरूस से लेकिन सब प्यार करते हैं, वो सबके काम आता है। वो दृश्य अनूठा है जब शहर से बाहर कर दी गयीं वेश्याओं के साथ न जाने वाले डुंगरूस कई दिन बाद जब उन्हें दूर से आता हुआ दिखायी देता है, तो सबकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। नसीर के न भुलाये जा सकने वाले कैरेक्टरों में से है ये एक डुंगरूस। कहा जाता है कि यह नाम बिलासपुर के किसी व्यक्ति का था जो पटकथा लेखक पण्डित सत्येदव दुबे ने यहाँ इस्तेमाल किया। मण्डी का अन्त निराशाजनक है, समाधानरहित।
2 टिप्पणियां:
bahut sunder saransh hai.
आपका धन्यवाद शशिप्रभा जी।
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