रविवार, 5 दिसंबर 2010

मेरी सूरत तेरी आँखें

श्रेष्ठता और चुनौतियों का कोई मापदण्ड नहीं होता। बेहतर और उत्कृष्ट काम सर्वव्यापी हो, सबके मन का हो और सभी की सुरुचि का विषय बने यह भी जरूरी नहीं होता। इसके बावजूद ऐसे काम हुआ करते हैं। सृजनात्मक क्षेत्रों में भी अच्छे कामों की अपनी सामयिकता और कालजयता है। रविवार एक अच्छी फिल्म को चुनने के सोच-विचार में आर.के. राखन निर्देशित फिल्म मेरी सूरत तेरी आँखें अचानक स्मृतियों में ताजी हो गयी। इस फिल्म का प्रदर्शन काल 1963 का है।

लगभग पाँच दशक पहले की यह फिल्म कई कारणों से प्रभावित करती है। अपनी अनेकानेक खूबियों के साथ-साथ यह हमारे सामने एक बड़ा और गहरा प्रश्र यह भी उपस्थित करती है कि किसी इन्सान को पहचानने के हमारे प्रचलित मानदण्ड कितने सार्थक हैं?
मेरी सूरत तेरी आँखें, का मुख्य कलाकार एक बड़ा गायक है। उसके गाने से पंछियों के स्वर थम जाते हैं, हवाएँ ठहर जाती हैं, पूरा वातावरण उसकी स्वर-सलिला पर मंत्र-मुग्ध हो उठता है।

मोहम्मद रफी का गाया गाना, तेरे बिन सूने नैन हमारे, बाट तकत गये, साँझ-सकारे, मन में गहरे उतर जाता है। राग पीलू का यह दादरा नायक गा रहा है। खूबसूरत नायिका उस आवाज का पीछा करती है। गाना पूरा होता है, तो अपने सामने एक कुरूप काले इन्सान को देखकर डर जाती है। फिल्म यहाँ से शुरू नहीं होती पर शायद शुरू होती तो और भी बेहतर होता मगर निर्देशक ने कहानी सीधी-सादी रखी। एक डॉक्टर के यहाँ बच्चे का जन्म होता है। डॉक्टर और उसकी पत्नी बड़े सुन्दर हैं मगर यह बच्चा काला और कुरूप। स्थितियाँ यह हैं कि माता-पिता बच्चे को अपने पास रखना नहीं चाहते। नफरत है। ऐसे में एक गरीब, निसंतान आदमी इस बच्चे के चेहरे में खूबसूरती देखता है और उसे डॉक्टर से लेकर अपने घर ले जाता है और उसकी परवरिश करता है।

अपने जमाने में मुनीम, जमींदार के आज्ञापालक की नकारात्मक भूमिकाओं में आम हो चुके चरित्र अभिनेता कन्हैयालाल ने गरीब अविभावक की यह भूमिका निभायी थी। अशोक कुमार ने भी भरपूर सफल समय में अपना चेहरा काला और कुरूप बनाने का फैसला किया था। मेरी सूरत तेरी आँखें, एक मर्मस्पर्शी फिल्म थी। गरीब पिता, जो कि एक गायक है, इस बेटे को स्वर-साधना में खूब पारंगत करता है। पूछो न कैसे मैंने रैन बितायी, गाना राग अहीर भैरव में क्या खूब जुगलबन्दी है, बाप-बेटे की, फिल्म देखकर ही इसका आनंद लिया जा सकता है। फिल्म का एक मोड़ यह है कि उसी डॉक्टर का दूसरा बेटा बड़ा खूबसूरत है पर बिगड़ैल और चरित्रहीन।

मेरी सूरत तेरी आँखें, हमारे समय की त्रासदी और विडम्बनाओं को उन अर्थों में भी व्यक्त करती है, जहाँ हमारे सामने अन्तर्दृष्टि को नेह-दृष्टि दफनाए रखती है और हमारे मापदण्ड बेहद अलग हो जाते हैं। यह फिल्म अशोक कुमार और कन्हैयालाल के अविस्मरणीय अभिनय यादगार है। शैलेन्द्र के लिखे गीत सचिन देव बर्मन के संगीत निर्देशन में कहानी और मर्म के अनुकूल साबित होते हैं। राग भैरवी में तीन ताल का कहरवा, नाचे मन मोरा, तुझसे नजर मिलाने में, ये किसने गीत छेड़ा आदि सभी फिल्म के बहाने क्रम से याद आते हैं।

2 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

बिल्कुल सही विश्लेषण किया है ये फ़िल्म थी ही लाजवाब्।

सुनील मिश्र ने कहा…

वंदना जी, सराहना के लिए आपका आभार।