सतीश कौशिक
रोड मूवी के बहाने अपने भीतर के
कलाकार से रूबरू एक फिल्मकार
सुनील मिश्र
एक युवक है जिसके परिवार में सिर में लगाने वाले तेल का छोटा सा कारोबार है। माँ है, पिता है, एक छोटी बहन है और वह है। पिताजी के सिर पर बाल नहीं हैं मगर वे इस गारन्टी और विश्वास के साथ तेल बनाते हैं कि इससे गिरते हुए बाल बच जाएँगे। जहाँ गिर गये हैं वहाँ फिर से उगना शुरू हो जाएँगे। कुल मिलाकर कमाल है। पिता अपने हथेली में तेल लेकर बेटे को सुंघाते भी हैं इस नसीहत के साथ, इसे सूंघ, यह तेरा फ्यूचर है। पिता ने एक विज्ञापन भी बनाया है जिसे वे खुद बोलते हैं और परिवार से भी दोहरवाते हैं.......आत्मा तेल लगाया, बाल भर सर पाया, बाकी सब माया...।
युवक का दिल पिता के इस कारोबार में नहीं लगता है। वो जगह-जगह बैठकर तेल बेचना नहीं चाहता। ऐसे ही में एक दिन जब वह अपने पिता के बनाए तेल की शीशियाँ लेकर उनके एक मित्र के पास जाता है जो टूरिंग थिएटर का काम खुद अपने बूते करते हैं। अपने बूते से मतलब एक बूढ़े आदमी का अत्यन्त पुराना खटारा ट्रक चलाते हुए सुदूर यात्रा पर जाना और जगह-जगह फिल्म दिखाना। वो अपना ट्रक जाने के लिए तैयार कर रहे हैं और युवक पिता की ओर से भेजा हुआ तेल उनको देता है साथ में यह भी पूछता है कि यह ट्रक जहाँ ले जाना है, मैं ले जाऊँ, इसके जवाब में वो बूढ़ा आदमी युवक को हतोत्साहित करता है मगर बाद में उसे यह अवसर दे देता है। युवक यह काम यह सोचकर ले लेता है कि पिता के कारोबार से जान छूटेगी मगर जाते वक्त जब बहन ट्रक के सामने नीबू-मिर्च का टोटका टांग रही होती है, माँ बेटे को टीका लगा रही होती है तब पिता भीतर से दो डब्बे कार्टून भरकर तेल की शीशियाँ ट्रक में यह कहते हुए रख देता है कि मौका लगे तो इसे भी बेच देना।
बेटा विद्रोही नहीं आज्ञाकारी है सो रख लेता है और सबसे विदा लेकर ट्रक स्टार्ट कर चल पड़ता है। सिनेमा के परदे पर इस चलते हुए ट्रक को देखकर, खासकर एक जीवन यात्रा के प्रवाह के अनुकूल पाश्र्व संगीत के साथ हम इस फिल्म का हिस्सा बनते हैं। इससे पहले के ये दस मिनट हमारे सामने एक संजीदा फिल्म के प्रारम्भ होने की जमीन तैयार करते हैं। यह देव बेनेगल निर्देशित रोड मूवी है जिसकी चर्चा पिछले दिनों बर्लिन सहित दुनिया के दो-तीन विशिष्ट फिल्म समारोह में हुई है। जिस युवक के बारे में हम बात कर रहे हैं वो अभय देओल है जो हमेशा कुछ अलग किस्म की भूमिकाएँ करने की चुनौतियाँ उठाया करते हैं, खासकर अपने भाइयों सनी, बॉबी या ताया धर्मेन्द्र से अलग।
मुख्यत: यह सतीश कौशिक की फिल्म है। करोलबाग, नई दिल्ली के सतीश कौशिक हिन्दी सिनेमा में कई आयामों में पिछले लगभग पच्चीस वर्षों से उपस्थित हैं। मुख्य रूप से वे अभिनेता हैं पर अपनी जिद पर निर्देशक। उनके अभिनेता और निर्देशक के बीच हमेशा द्वन्द्व स्थापित है। एक सप्ताह पहले उनसे मुम्बई में मुलाकात हुई थी तब वे ऐसे ही कह रहे थे कि मैंने तो डायरेक्शन, इसलिए शेखर कपूर के साथ ज्वाइन कर लिया था क्योंकि उस समय फिल्में नहीं मिल रहीं थी। मुझे लगा क्या करूँ तो शेखर का सहायक बन गया। सतीश कौशिक मुम्बई में आये अभिनेता बनने ही थे, यह बात पहली है। शुरूआत में छोटी-छोटी भूमिकाएँ, पटकथा और संवाद लेखन का काम और धीरे से शेखर कपूर की शार्गिदी। यह सब करते हुए भी वे चक्र, जाने भी दो यारों, मण्डी, उत्सव, सागर, वो सात दिन, सुसमन आदि फिल्मों का हिस्सा बने। शेखर कपूर की मिस्टर इण्डिया में उनका किरदार कैलेण्डर बड़ा दिलचस्प था जो अनाथ बच्चों के लिए खाना बनाने का काम करता है। लगभग यही फिल्म ऐसी थी जहाँ से उनको दर्शकों ने हास्य भूमिकाओं में देखना चाहा। रूप की रानी चोरों का राजा से लेकर मिलेंगे-मिलेंगे तक तेरह फिल्म निर्देशित करने वाले सतीश कौशिक ने बीच-बीच में अकस्मात् हृयूमर रचने वाले दिलचस्प अभिनेता के रूप में भी अपनी अनूठी जगह बनायी।
रोड मूवी में जब नायक का ट्रक खराब हो जाता है तो बेमन से अपने साथ लिए एक ढाबे के ऑर्डर मास्टर बच्चे से किसी मददगार को ढूँढक़र लाने के लिए कहता है। रात का गया बच्चा अगले दिन एक मोटे से आदमी को लेकर लौटता है जिसकी दाढ़ी बढ़ी हुई है। सिर पर कैप लगाये है। जैकेट पहने है और देखने में पहेली जैसा दिखायी देता है। यह सतीश कौशिक हैं। सतीश कौशिक इसमें एक ऐसे किरदार बनकर शामिल होते हैं जो चुप रहता है मगर हर परिस्थतियों का सामना करना, उससे निजात पाना जानता है। कब, कहाँ, कैसी और कितनी मात्रा की समझदारी की बात करनी है, यह भी उसके जीवन का अनुभव है। वह ट्रक सुधारकर चालू कर देता है मगर खुद भी उसमें बैठ जाता है। बेमन से नायक उसको भी ढोता है मगर वह उसका संकटमोचक है। यही आदमी ट्रक में रखे प्रोजेक्टर को झाड़-पोंछकर मालिश वाले तेल से आइल-पानी करके चालू कर देता है जिसकी वजह से एक भ्रष्ट पुलिस इन्स्पेक्टर से वे लोग अपना पीछा छुड़ा पाते हैं।
सिनेमा का जादू, फिल्म के मूल में है। जब सतीश कौशिक प्रोजेक्टर का स्विच ऑन करते हैं और परदे पर दृश्य और गाने दिखायी देते हैं तो वो आँखों में चमक भर कर कहते हैं, सिनेमा का जादू........। यह दृश्य हमें अपने बचपन तक दौडक़र ले जाता है और पलक झपकते ही अपनी अवस्था में ले आता है। रोड मूवी अभिनेता सतीश कौशिक की सृजनात्मक क्षमता एक बड़े अन्तराल बाद की बैचेनी के साथ वापस लाती है। इस फिल्म में एक ट्रक, उसमें एक युवक, एक बच्चा, एक बड़ी उम्र का आदमी और बाद में एक युवती भी शामिल होते हैं। यह चलता हुआ ट्रक जीवनयात्रा की झलक का एहसास कराता है जिसमें चार मन:स्थितियाँ, चार प्रवृत्तियाँ हम देखते हैं। मरुभूमि में पानी की त्राहि-त्राहि है मगर उम्मीद में स्त्रियाँ गीत गाते मीलों दूर चली जा रही हैं। ट्रक में सवार चार लोगों के पास कुछ घूँट पानी बचा है। प्यास का मारा नायक पूरा पानी घूँट में पी जाना चाहता है मगर सतीश कौशिक उस बोतल के साथ छीना-झपटी करके प्यास से बेसुध युवती को पानी देते हैं।
तीन साल पहले एक उल्लेखनीय फिल्म ब्रिक लेन में काम कर चुके सतीश कौशिक ने बर्लिन में रोड मूवी को मिले प्रतिसाद और समीक्षाओं का जिक्र करते हुए बात की कि यह मेरे लिए विलक्षण अनुभव रहा है। वे गम्भीरतापूर्वक अपने अभिनेता के साथ दो-तीन और नयी फिल्मों के लिए अनुबन्धित हुए हैं। अपने सोच, बातचीत, व्यवहार में बेहद सहज और पारदर्शी सतीश कौशिक की निर्देशक सतीश कौशिक के रूप में एक खासियत यह भी है कि वे अपनी हर फिल्म की शूटिंग कुछ न कुछ दिल्ली में अवश्य करते हैं। वे कहते हैं कि इस तरह मैं अपनी रचनात्मकता के साथ खुद को घर आया महसूस करता हूँ। वे कहते हैं कि, अपने शहर में उपलब्धियाँ और उपलब्धियों में अपना शहर शामिल करके मेरी आत्मा को बहुत सुख मिलता है।
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