होशंगाबाद मंगलवारा घाट के पास ही राजघाट में 12 जुलाई की शाम झुटपुटा हो चला था। भोपाल से अपनी बुआ की पार्थिव देह के साथ उनके अन्तिम संस्कार के लिए आ गया था। पिता और पिता के जीवनभर के साथी उनके मित्र हमारे दुबे, पाटिल, गोपाल चाचा, छोटा भाई, बेटा और अपने बहुत ही अच्छे दोस्तों के साथ। कंधे से कंधा मिलाकर साथ देने की बात अपनों में की जाती है। यहाँ सभी ने कंधे से कंधा मिलाकर बुआ की अर्थी को कंधा दिया था। बयासी की उम्र में चली जाने वाली बुआ पिछले पाँच सालों से यही रटती थीं कि मुझे कुछ हो जाए तो होशंगाबाद नर्मदा में फेंक आना। इस पर हम लोग कहते थे कि इस तरह की बात क्यों करती हो? मधुमेह, रक्तचाप, जोड़ों की बीमारी वो लम्बे समय से भोग रही थीं। अभी तीन-चार सालों में वे अक्सर बार-बार गम्भीर हो जाया करती थीं। स्याह रातों मेंं तीन-चार बार उन्हें एम्बुलेंस में अस्पताल नाजुक हालातों में ले जाना पड़ा था, हर बार डॉक्टर के प्रयत्नों से ठीक होकर घर आ जाया करती थीं।
हमारे परिवार में बुआओं में ये श्यामा बुआ सबसे छोटी थीं। उनकी दो बड़ी बहनें भी थीं जो एक-एक करके बीस साल पहले नहीं रहीं। अपने रहने वाले शहरों के मुताबिक ही उन्हें छुटपन से हम क्रमश: कानपुर वाली बुआ, इटारसी वाली बुआ और ग्वालियर वाली बुआ कहकर बुलाया करते थे। ये ग्वालियर वाली बुआ प्राथमिक शाला में प्रधान अध्यापिका होकर रिटायर हुई थीं। बाद में भोपाल में एक छोटा सा घर खरीदकर रहने लगीं। वे अकेली थीं मगर हम सब उनके थे। दोनों नवरात्रि के कन्या भोज, परिवार के दिवंगतों की पुण्यतिथियाँ और श्राद्ध, हम सभी के जन्मदिन सब उनके स्नेहिल निर्देश और आदेश पर उनके मार्गदर्शन और व्यवस्था में होते थे। उनकी अपनी डाँट, फटकार और ठसक को पिता सहित हम सभी डरते थे। जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती गयी, उनका वह गुस्सा और बात करने का अन्दाज हमारे लिए प्यारा ज्यादा हो गया। हाल के वर्षों में उनकी तबीयत और सेहत के लिए की जाने वाली हमारी जिद को मान लिया करती थीं मगर साथ रहने के लिए कभी तैयार न होतीं। पिता के घर या हमारे, अधिक से अधिक दो-चार दिन, फिर उनको कस्तूरबा नगर का अपना घर याद आने लगता। सामने का मन्दिर और पड़ोसी, बच्चे याद आने लगते। वहाँ चली जातीं तो फिर हमें याद करतीं। सभी बारी-बारी से जाकर उनसे मिलते और पास बैठते भी थे।
कानपुर के निकट नरवल गाँव से उनके जीवन की यात्रा आरम्भ हुई थी। श्यामा बुआ छोटी उम्र से जीवट की धनी थीं। बड़ी दो बुआओं की शादी कानपुर और इटारसी में हो गयी थी। छोटी बुआ पढ़-लिखकर ग्वालियर आ गयी थीं और वहीं उनकी शिक्षा विभाग में नौकरी हुई। बाद में उन्होंने हमारी अजिया, पिता और ताऊ जिन्हें हम बचपन से जाने कैसे बप्पा कहने लगे, को भी पढ़ाई-लिखाई के लिए यहाँ बुला लिया। बाद में पिता की नौकरी भोपाल में हुई और यहीं हमारा और हमारी दो बहनों और एक भाई का भी जन्म हुआ। भोपाल शहर हम लोगों की जमीन बना और श्यामा बुआ जिन्हें हम छोटी बुआ भी कहते थे, ग्वालियर में नौकरी करती रहीं। तब चि_ी-पत्री का चलन था। जीवन के सुख-दुख, घटनाएँ, आप बीती, सेहत, अच्छा-बुरा सब लम्बी-लम्बी चि_ियों में व्यक्त होता था। पापा-मम्मी छोटी बुआ को दिदिया कहते थे। बुआ चि_ी के अन्त में बड़े प्रेम से लिखती थीं, तुम्हारी ही दिदिया.. .. ..। जब मैंने चि_ी लिखना शुरू किया तो लिफाफे में मेरी चि_ी भी जाती। अलग से वे यदि जवाब न देतीं और मम्मी-पापा की चि_ी में ही, सुनील को प्यार लिख देतीं तो मैं बड़ा गुस्सा होता। बाद में वे मुझे भी अलग से जवाब देने लगीं।
यादें, स्मृतियों में एक-एक करके बड़ी तेजी से आवाजाही कर रही थीं। साथ आये सभी ने तेजी से लकडिय़ाँ जमा दी थीं। सूर्यास्त से पहले अन्तिम संस्कार जरूरी था। पीछे नर्मदा नदी का बड़ा खुला किनारा, शान्त बहती नर्मदा जीवन और यथार्थ की मौन व्याख्या करती सी लग रही थी। बुआ की चिता को अग्नि देने के लिए पापा ने बप्पा के चौथे पुत्र को अधिकृत किया था क्योंकि पिछले दो वर्षों में वह और उसकी बहू बुआ की गहरी सेवा-सुश्रुषा में थे। हमारे उसी भाई कल्लू ने बुआ की चिता को अग्नि दी। बड़ी जल्दी देखते ही देखते चिता जलने लगी। मुझे अपने घर में कहीं बहुत पुराना बुआ का एक फोटो याद आ रहा था जिसमें वे दो वर्ष के मुझ को गोद लिए हुए हैं। वो अक्सर मुझसे कहा करती थी, तू ऐसी धाड़ मारकर रोता था कि घण्टों चुप नहीं होता था, मैं तुझे जब तक छाती से चिपकाए रहती थी, तब तक चुप और जरा लेटा दो तो फिर हाहाकार। ऊँची लपट और लकडिय़ों के बीच बुआ की देह को राख होते महसूस कर मुझ फिर उसी तरह बहुत तेज रोना आ गया। बारहवीं पास किया मेरा पुत्र मेरे पास आकर कहने लगा, पापा, मत रो, आप तो बाबू (मेरे पिता) को सम्हालने आये हो, आप रोओगे तो वे भी नियंत्रित नहीं रह पाएँगे। मैं पिता की तरफ सावधानी से देखने लगा, हम सब के सम्बल के लिए वे अपना सारा दुख, क्षति बड़ी ताकत से रोके हुए लगे। अगले दिन हम लोग फिर होशंगाबाद आये। बुआ का हुक्म था, सारी राख नर्मदा में बहा देना, कोई आडम्बर मत करना। मंगलवार की दोपहर वह भी हो गया। बीमारी और उम्र ने अशक्त कर दिया था बुआ को। उनके चले जाने को इस अर्थ में लेकर मन, मन को समझाता है, उनको पीड़ा से मुक्ति मिल गयी मगर फिर मन, मन को झकझोरता है, हमारे परिवार अनुशासित रखने और बरगद सी छाया देने वाली बुआ अब कभी नहीं आयेंगीं।
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