गुरुवार, 12 अगस्त 2010

दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है

किस्मत अपने आपमें ऐसा शब्द है जिसके साथ सम्भावनाओं की सकारात्मकता और नकारात्मकता दोनों ही जुड़ी हुई हैं मगर इसी शब्द में गजब का आकर्षण है जो हमेशा उसके बेहतर परिणाम के लिए आश्वस्त करता है। चालीस के दशक में हिन्दी सिनेमा में किस्मत नाम की ऐसी फिल्म का निर्माण हुआ था जिसने सफलता के ऐतिहासिक झण्डे गाड़े थे। शोले तो पचहत्तर में पाँच साल चली थी मगर किस्मत 1943 में पाँच साल चलने वाली, कीर्तिमान स्थापित करने वाली फिल्म का नाम था। इस फिल्म को देखने का अनुभव लेने वाली पीढ़ी हमारे बीच पितृ पुरुषों के रूप में मौजूद है।

इसी फिल्म में कवि प्रदीप, आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है जैसा अविस्मरणीय गीत लिखकर अमर हो गये थे। किस्मत फिल्म की बात करते हुए हम ऐसे समय की याद करते हैं जब भारत परतन्त्र था और दृढ़ प्रतिवाद का माध्यम बनकर सिनेमा सरस्वती पुत्रों के सृजन से विदेशी हुकूमत के सामने सीना तानकर एक बड़े खतरे का रूप ले रहा था। अभिव्यक्ति के संगीन खतरों के बीच देशभक्ति का ऐसा दुस्साहस करने वाले दधीचि कवि प्रदीप ने किस्मत को अपने गीतों से गजब का तेवर देने का काम किया था। वे अपने जीवन और आचरण में देश और समाजचेता थे। किस्मत एक ऐसी फिल्म थी जिसने पहली बार बेटे और भाइयों के बिछुडऩे और अलग-अलग समय तथा परिस्थितियों में पलकर बड़े होने के बाद विरोधाभासी छबि को जीने का उदाहरण प्रस्तुत किया था। सिनेमा के पहले महानायक अशोक कुमार की यह एक सशक्त फिल्म मानी जाती है।

यह एक ऐसे अपराधी के हृदय में सहृदयता देखती है जो किसी कठिन क्षण में एक मुसीबतजदा घर में पनाह लेता है जहाँ स्वाभिमान और जीवन मूल्य सर्वोपरि होते हैं। गरीबी, अभाव और बेहतर जीवन की अभिलाषाएँ किसी भी इन्सान को उसके धरातल से इधर-उधर होने या नैतिक रूप से पतित होने के लिए विवश कभी नहीं करतीं। विरोधाभास सपनों और हौसलों को हमेशा बड़ी ऊष्मा देने का काम करते हैं। हर वक्त सिगरेट हाथ में लिए अशोक कुमार अपनी आकर्षक और जवाँ छबि से दर्शकों के दिलों पर राज करते थे। सिगरेट पीते हुए छोटी-छोटी आँखों के बीच खिलखिलाकर हँसने का उनका अन्दाज बड़ा मारक था। बॉम्बे टॉकीज की यह फिल्म देविका रानी की देखरेख में बनी थी। ज्ञान मुखर्जी के निर्देशन में बनी इस फिल्म की सशक्त कथा-पटकथा के पीछे पी.एल. सन्तोषी, शाहिद लतीफ और खुद ज्ञान मुखर्जी का योगदान था। एकदम अलग कहानी होने के बावजूद इस फिल्म में देशप्रेम का ऐसा सन्देश प्रवाहित हुआ जिसकी मिसाल हमेशा दी जाती रही है। समकालीनता, तकनीक और समय की सीमाओं में बनी इस फिल्म गुणों को देखते हुए आज की घटिया फिल्मों को धिक्कारने को जी चाहता है।

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