शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

क्या मिलिए ऐसे लोगों से....

क्या मिलिए ऐसे लोगों से
जिनकी फितरत छिपी रहे
नकली चेहरा सामने आये
असली सूरत छिपी रहे

सदाबहार अभिनेता धर्मेन्द्र की एक बहुत पुरानी फिल्म इज्ज़त का यह गाना है। यह फिल्म सन् 1968 में रिली$ज हुई थी। यह गाना उस दौर के नायक के मनोवेग को व्यक्त करता है। क्या यह बीमारी उतनी पुरानी है? तब भी लोगों का नकली चेहरा ही सामने आया करता था और असली सूरत छिपी रह जाती थी? यदि सचमुच तब यह हाल था, तो आज तो शायद और भी बुरा हाल होगा।
एक बहुत अलग किस्म के दौर में हमारा जीना हो रहा है। मैं अपने पिता के मित्रों से आज भी पिता सा स्नेह पाता हूँ। मेरे पिता का उन मित्रों से जैसा सहकार है, वो मुझे विलक्षण लगता है। मुझे बचपन से पिता ने उनके बारे में यही बताया था कि ये चाचा हैं। मुझे कभी उस गहराई में जाने की $जरूरत नहीं पड़ी कि ये पिता के भाई अर्थात्ï चाचा तो नहीं हैं, ये तो पिता के मित्र हैं, फिर चाचा कैसे हुए। यह तो मुझे चालीस साल में लगा है कि ये तो पिता के वो भाई हैं, जिनका भतीजा होना मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात रही है। एक चाचा का निधन उस दिन हुआ जो मेरा जन्मदिन था और उसी साल से फिर अपना जन्मदिन न तो अच्छा लगा और न ही मनाने का मन हुआ। आज लेकिन अपने आसपास जो दोस्ती-यारियाँ हैं, उनमें अपने बच्चों के उस तरह के चाचा निकलकर प्राय: नहीं ही आते, जैसे हमारे चाचा हैं। ऐसा नहीं है कि बिल्कुल नहीं हैं, हैं मगर एक लम्बा वक्त मथा गया है तब दो-एक रिश्ते बने हैं।
बहुत सारा वक्त हम जिनके साथ जीते हैं, हम देखते हैं कि दो चेहरे हैं जो नजर आते हैं। ऐसा नहीं कि हम बहुत पारदर्शी या एक ही चेहरे वाले आदमी होंगे मगर हर आदमी के आसपास जो भी चेहरा है वो दो है। यह ऐसे समय की सचाई है जब कहा जाता है कि आपको अपने बुरे के लिए अलग से शत्रु बनाने की आवश्यकता नहीं है। आपके नजदीक, आपका अपना ही कोई बखूबी इस काम को कर रहा है। वो आपका खासा दोस्त होगा, खूब हँसकर बात करेगा, खूब आत्मीयता प्रकट करेगा, आपके चेहरे के सामने जब भी वो अपना चेहरा रखेगा, वह चेहरे पर जितने भी भाव लाएगा, वो सब के सब आपके ही लिए होंगे लेकिन जिन तमाम कारणों के गमले पर वो अपनी नफरत की मिट्टी और पानी डाल रहा होगा, उसका आपको पता भी न होगा।
एक आदमी है जो खुले आम यह स्वीकारोक्ति देता है कि वो जीवन में किसी का भरोसा नहीं करता। वो कहता है कि उसे अपनी बीवी का भी विश्वास नहीं। लेकिन कई बार वो इस बात पर बेहद कुपित हो जाता है कि लोग उस पर विश्वास नहीं करते। वो सिर्फ अपने आप ही को इस बात के लिए अधिकृत मानता है, दूसरे उसके प्रति इसी धारणा के लिए अधिकृत हों, यह बात उसे न तो स्वीकार है और न ही बर्दाश्त। ये सब चेहरा फेंटने की कवायद नहीं तो और क्या है? हर आदमी, एक दूसरे का चेहरा ताश की तरह फेंट ही तो रहा है। हर बार जो पत्ता ऊपर आता है, उम्मीद के विपरीत होता है। दरअसल आदमी भी ताश के पत्ते तरह की दो छवियों को जिया करता है। बावन पत्तों का चरित्र ऊपर से एक ही दिखायी पड़ता है मगर दूसरी तरफ कोई हुकुम होता है तो कोई चिड़ी, कोई ईंट होता है तो कोई पान। हाँ जोकर, बावन पत्तों में चार ही होते हैं।
दो चेहरों का समाज, आज की सचाई पता नहीं कितनी है। जब भी जी चाहा नई दुनिया बना लेते हैं लोग, एक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेते हैं लोग, जैसा गाना भी बरसों पहले किसी फिल्म में आया था। पहले कहा जाता था कि भीतर-बाहर दिल एक सा होता है मगर चेहरे के बारे में बात करते हुए यह दावा नहीं किया जा सकता कि यह कितनी परतों में है -

चेहरे तमाम हैं, अनेक रंगों में रंगे हैं,
दुनिया हमाम है, सब के सब नंगे हैं।

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