शनिवार, 14 अगस्त 2010

हमारी गुरु माता ही हमारी भगवान हैं - पण्डित हरिप्रसाद चौरसिया

उनकी बाँसुरी बजती है तो लगता है जैसे प्रकृति गाने लगी है। प्रतीत होता है, कि पहाड़ों को संगीत मिल गया है, महसूस होता है, कि फूलों की क्यारियाँ खूबसूरती और खुश्बू मेें और जवाँ हो गयी हैं। आँख मूंद लेने को जी करता है और तब तक खोलने की तबीयत नहीं होती जब तक आवाज़ थम नहीं जाती। पण्डित हरिप्रसाद चौरसिया, सचमुच हमारे समय के ऐसे अनूठे मुरली वाले हैं जिनकी बंसी का स्वर हमारी अनुभूतियों को महक देता है, अहसास होता है कि एक ऐसा स्वर हमारे साथ है जो जि़न्दगी को कुछ देर ही सही, एक ऐसे रूमान से भर देता है, जिसके बाहर आने को फिर जी नहीं चाहता। प्रख्यात सन्तूर वादक पण्डित शिवकुमार शर्मा के साथ शिव-हरि की जोड़ी बनाकर जो कुछ खास फिल्मों में उन्होंने संगीत दिया है, वो अत्यन्त सुरीला, मीठा और अविस्मरणीय है। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन पण्डित जी चौबीस घण्टे बाँसुरी बजाते हैं। वे कहते हैं कि जब लोग अपने यार-दोस्तों के जन्मदिन के अवसरों पर दिन-रात हुड़दंग और शोर करते हैं तो मैं अपने प्रभु का जन्मदिन रात-दिन बाँसुरी बजाकर क्यों नहीं मना सकता?
अहा जि़न्दगी के प्रेम विशेषांक के लिए उन्होंने रचनाशीलता का उनका जगत,भक्ति, प्रेम, खूबसूरत ख़्वाब, गुरु, माँ, सफलता आदि को लेकर वो सब कुछ कहा जिसका कहीं न कहीं निश्चित रूप से प्रेम और उसकी पगडण्डी से सच्चा सरोकार स्थापित अवश्य होता है-


मेरी रचनाशीलता का जगत

हर रचनाशील मनुष्य का अपना जगत होता है, ऐसा मेरा मानना है। हर रचनाशील मनुष्य अपने जगत में अपनी रचनाशीलता के जगत की भी एक जगह बनाता है। यह उसकी रचनात्मक बेचैनी और सन्तुष्टि दोनों के लिए ही अत्यन्त ज़रूरी भी होता है। इस जगत से ही तो सारी सृजन ऊर्जा प्राप्त होती है। मेरी रचनाशीलता का जगत, मुझे लगता है कि मेरे लिए स्वर्ग जैसा है। मैं जब भी उस जगत में प्रवेश करता हूँ, अपनी रचना के बारे में या किसी भी प्रकार का संगीत, शास्त्रीय संगीत हो या फिल्म संगीत हो, वो जगह मुझे स्वर्ग दिखायी पड़ती है। कहाँ क्या करना है, कहाँ कितनी ज़रूरत है, किस चीज़ की ज़रूरत है, कैसे संगीत की ज़रूरत है, उसका रूप क्या होना चाहिए, उसकी शक्ल क्या होना चाहिए, यह सब हम अपने हिसाब से करते हैं। हमारे साथ भगवान होते हैं और भगवान के आशीर्वाद से सब कुछ ठीक होता है, अब तक ठीक हुआ है। यह मेरे विश्वास और आस्था पर भी निर्भर करता है।
मेरी दृष्टि में भक्ति एक ऐसा मार्ग है जो भगवान का सीधा दर्शन कराता है। जिस आदमी में भक्ति होती है वो दुनिया के लोगों का दिल जीतता है। पहले जैसा मैंने कहा कि भक्ति से भगवान के दर्शन होते हैं। इन्सान यदि भक्ति से भगवान का दिल जीत सकता है तो वो इन्सान का दिल भी जीत सकता है। भक्ति का सकारात्मक भाव और विनयशीलता हमारे जीवन में बहुत सारे श्रेष्ठ मार्ग प्रशस्त करने का काम करती है। लेकिन यह सब तभी हो सकता है जब हम भक्ति के मर्म को समझ सकें क्योंकि जिस इन्सान में भक्ति नहीं है, उस इन्सान में बहुत बड़ी कमी रह जाती है।
यह बात कभी सोची है आपने कि सब लोग टाटा-बिरला क्यों नहीं बनते? दुनिया में टाटा-बिरला से ज्य़ादा मेहनत करने वाले लोग हैं। सुबह 6 बजे से उठकर रात को 12 बजे तक काम करते हैं। छोटी सी दुकान खोलकर बैठे रहते हैं और फिर भी वो एक समय ही खाना खाते हैं लेकिन वो टाटा-बिरला नहीं बन सकते। उनमेें ज़रूर कोई कमी है। तो मुझे लगता है कि भक्ति की कमी है। हम जो भी काम करें, उसमें भक्ति आवश्यक है। काम चाहे छोटा हो या बड़ा, यदि हमारी साधना, हमारे जीवन और हमारे भविष्य से जुड़ा है तो उसे हमें भक्ति भाव से ही करना चाहिए। इसी भावना से जिन लोगों ने काम किया वो उन्होंने अपने जीवन में इसका सर्वोत्कृष्ट फल पाया। ये लोग भक्त थे। उन्होंने देखा कि व्यवसाय उनके लिए भक्ति है और उन्होंने दुनिया में बहुत नाम कमाया। आप जो भी काम करने जा रहे हैं उसे भक्ति की तरह से लेंगे तभी दुनिया आपकी तरफ़ देखेगी।


प्रेम बड़ी पर्सनल चीज़ है

प्रेम एक अलग चीज़ है। प्रेम भी पर्सनल होता है। प्रेम हम सारी दुनिया से नहीं कर सकते। हम अपने परिवार, अपने मित्रों से करेंगे। इसके अलावा ज्य़ादा लोगों से प्रेम कर नहीं सकते क्योंकि फिर प्रेम बहुत साधारण हो जायेगा। प्रेम की विशिष्टता ही यही है, उसकी खूबसूरती ही यही है कि वह अपने निजीपन में, अपना निजता में श्रेष्ठ अभिव्यक्ति और अनुभूति को जीता और प्राप्त करता है। उसकी असाधारणता, असाधारण रहस्य को वही जानता है, जो प्रेम को जीता है। भक्ति एक ऐसी चीज़ है कि वो हम किसी से भी कर सकते हैं। अपने कार्य से भक्ति करेंगे तो जो हमारा कार्य है, जो हमारा फील्ड है, जो हमारा जगत है वहाँ हमको सफलता मिलेगी। यदि हम खेती करते हैं और भक्ति के साथ करते हैं तो फिर चाहे सारी दुनिया मेें सुनामी आ जाये, लेकिन हमारी खेती में अनाज ज़रूर होगा। प्रेम बड़ी पर्सनल चीज़ है। प्रेम में भी कई प्रकार का प्रेम है। जो प्रेम हम अपनी पत्नी को करते हैं, वो बच्चे को नहीं करते। जो प्रेम हम अपने बच्चे को करते हैं, वो अपने भाई को नहीं करते। उसके भिन्न-भिन्न रूप हैं। प्रेम की परिभाषा बहुत अलग है। हम उसकी व्याख्या उसकी गरिमा और खुश्बू को बरकरार रखते हुए भी अलग-अलग ढंग से कर सकते हैं। भक्ति की परिभाषा एक ही है लेकिन प्रेम की बहुत सारी परिभाषाएँ हैं। आपके गुरु से आपका प्रेम अलग रहेगा, आपके माता-पिता से आपका प्रेम अलग रहेगा, आपके बच्चों से आपका प्रेम अलग रहेगा और आपके मित्रों से आपका प्रेम अलग ही रहेगा। प्रेम को डायल्यूट कर सकते हैं आप लेकिन भक्ति को डायल्यूट नहीं कर सकते। प्रेम कई बार बदल भी जाता है लेकिन भक्ति बदल नहीं सकती। प्रेम बदल भी जाता है, कभी झगड़ा हो गया किसी से, आपकी पत्नी से ही बहुत प्रेम था मगर झगड़ा हो गया तो डिवोर्स हो गया, प्रेम खत्म हो गया। लेकिन भक्ति कभी खत्म नहीं होती। शुरू में एक बार यदि इसका रस मिल गया तो फिर जीवन भर रहता है।


संगीत ही हमारा खूबसूरत ख़्वाब

हमारा खूबसूरत ख़्वाब जितना भी था, संगीत था। बचपन से ही यही एक स्वप्र देखा, तन-मन और लगन से साधना की और भगवान की कृपा से हमारी साधना को प्रतिसाद मिला। जो स्वप्र देखा था, इसी साधना और एकधुन से साकार हुआ। संगीत के अलावा जो हमारी गुरु भक्ति थी, वह हमारे लिए अत्यन्त मूल्यवान रही है। शिष्य भाव से अपने जीवन में अपने गुरु से जो संस्कार सीखे, कला का जिस तरह का मार्ग और माध्यम हमारी शिक्षा में आया, वह हमारे लिए बेहद अनुभूतिजन्य रहा है। जो गुरु से हमको मिला है, वो हम किस तरह से लोगों में बाँटें और गुरु ने किस हिसाब से हमको दिया है और हम उस हिसाब से बच्चों को दें, हमको किस तरह से प्यार दिया है, उस तरह से प्यार दें, किस तरह से खाना - पीना खिलाया, हम गरीब थे, हमको बहुत सहायता की, हम भी उसी तरह से बच्चों को सहायता करें, यही हमने सोचा और करने का प्रयास किया है।
यह हमारा ख़्वाब था कि गुरु का संस्कार, हमारी साधना और परिश्रम जीवन में हमें यदि इस योग्य बनाता है तो हम भी अपनी शिष्य परम्परा में उन संवेदनाओं को तवज्जो देंगे जो हमने अपने गुरु में देखीं। हमारा यही स्वप्र था, वो भी पूरा हो गया। मुम्बई में बहुत अच्छा गुरुकुल बन गया और दूसरी जगह भी बन रहा है, उड़ीसा में काम किया है, अमेरिका मेें काम किया है। यही हमारा ख़्वाब था जो पूरा हो रहा है। गुरुकुल तो एक बहुत प्राचीन कन्सेप्ट है। एक पुरातन परम्परा। शिक्षण और संस्कार की एक ऐसी जगह जहाँ आप सब छोडक़र जायें और इस तरह समर्पित हों कि आपको पूरी तरह वहाँ के वातावरण में शामिल होने में कोई कठिनाई न हो। आपको अपनाया जा सके, गोद लिया जा सके और जब तक वो चाहें आप उनके साथ समय बिता सकेें। अगर वो चाहें पन्द्रह साल, तो पन्द्रह साल उनके साथ रह सकें, सब भूलकर। आप यह सोचें कि यह मेरा ही कुल है, यह मेरा ही गुरु है और यह मेरा ही घर है। फिर आपको वहाँ सारी व्यवस्था मिलती है, जैसे घर में खाना, पीना, सोना, रहना। कोई पैसे नहीं लगते लेकिन गुरुकुल के जो बहुत सारे सिस्टम होते हैं उनका पालन करना पड़ता है। उस हिसाब से आप रह सकते हैं और गुरुकुल में भी पाँच हज़ार लोग तो रहते नहीं, पाँच लोग रहते हैं या सात लोग या दस लोग रहते हैं। उन सभी के लिए शिष्यत्व एक बड़ी चुनौती भी होती है। उनके नाम के साथ उनके गुरु का नाम भी जुड़ा होता है। वे जहाँ जाते हैं, उनके गुरु का नाम अवश्य ही लिया जाता है, ऐसे में अपने गुरु के नाम का सम्मान रखना उनके लिए न सिर्फ कला और अनुशासन के स्तर पर अहम होता है बल्कि व्यक्तित्व और आचरण के स्तर पर भी।


गुरु - शिष्य परम्परा

गुरु के बारे में हम यही कहना चाहेंगे कि उनसे भक्ति होती है, प्रेम नहीं होता। गुरु की भक्ति होगी तभी गुरु से ज्ञान मिलता है। सच्चे मन से हमने यदि गुरु मान लिया है तो फिर अपने गुरु का समग्र व्यक्तित्व और उससे जुड़ी छोटी-छोटी चीज़ें भी शिष्य के जीवन में बड़ी मायने रखने वाली हो जाती हैं। गुरु की साधना का अपना ही वैभव होता है। हममे समर्पण होता है तो गुरु का सिखाया हमारी साधना को सार्थक भी कर सकता है। अगर गुरु नहीं भी सिखाएँगे तो भी ज्ञान मिलता रहेगा आपको क्योंकि आपकी भक्ति है। गुरु आपको इग्नोर भी करेंगे तो भी आपको उनके देखने से, उनके हाथ रखने से, उनकी बातचीत से आप हर चीज़ सीखते रहेंगे। वो सिर्फ़ बात भी करेंगे तो उससे भी आप सीख जायेंगे। या कि दूसरे को सिखाते रहें और आपको एवॉइड कर दें तो भी आप सीखते रहेंगे। इसलिए सीखते रहेंगे क्योंकि आपमेें भक्ति है। आप उस मार्ग की तरफ सच्ची भक्ति से जा रहे हैं जहाँ से गुरु की विद्या प्राप्त की जा सकती है। हमारी अपने गुरु के प्रति भक्ति है। हम चाहते हैं कि हम अपने गुरु का नाम ऊँचा करें।
गुरु-शिष्य परम्परा भी तभी सार्थक होगी जब भक्ति होगी। भक्ति होगी तो कितना भी गुरु को अपने शिष्य से नाराज़गी हो, लेकिन बाद मेें उसका भी दिल पिघल जाता है क्योंकि वो भी तो इन्सान ही रहते हैं न? पिघल जाते हैं अपने शिष्य के प्रति। फिर वो सब कुछ देना चाहता है, जो उसके पास विद्या होगी, जो उसका खाना होगा, जो उसका कपड़ा होगा, सब कुछ देना चाहता है। अपने बच्चों से भी ज्य़ादा शिष्य की भक्ति पर गुरु को फिर स्नेह आ जाता है और वह फिर सब कुछ करता है। गुरु ही हमारे इष्ट भगवान भी हैं। क्योंकि उनकी वज़ह से आज हमको दुनिया में लोग जानते हैं, पहचानते हैं। उनकी विद्या की वज़ह से हमारी पहचान है। उस विद्या से ही हमारा जीवन और सृजन सार्थक हुआ है। अगर वो विद्या नहीं होती तो कौन हमको जानता था? कृष्ण भगवान ने तो हमको नहीं सिखाया। उनकी तो तस्वीर हम देखते हैं, केवल। दुनिया के साथ हम भी उनके नत-मस्तक हैं। हमारी गुरु माता ही हमारी भगवान हैं। उन्होंने ही हमें विद्या दी, प्रेम दिया, संस्कार दिया। उनके प्रति मेरी श्रद्धा ऐसी है जिसे मैं बोलकर बता नहीं सकता। शब्दों में बता पाना मुश्किल है। वो ऐसी भावना है जिसे कोई छीन नहीं सकता। मैं उसका प्रकाश भी नहीं कर सकता अन्यथा मैं अपने हाथों से ऐसी किताब लिखता।


माँ

माँ की तो मुझे सूरत भी याद नहीं है। जब वो मुझे छोडक़र गयी थीं तब मैं बहुत ही छोटा था, पाँच या साढ़े पाँच साल का रहा होऊँगा। इसलिए मुझे उनकी शक्ल भी याद नहीं है। उनको लेकर स्मृतियों में यदि कहूँ तो धुंधली छबियाँ भी नहीं हैं। उनका स्वभाव कैसा था, यह भी याद नहीं है। बचपन, माँ के बिना अकेला, उदास और नीरस तो होता ही है। बच्चों के लिए माँ की छत्रछाया ईश्वर के सम्बल की तरह होती है। माँ तो बच्चे के लिए सब विघ्र, बाधाएँ, मुसीबतें और दुख अपने ऊपर ले लिया करती हैं। अपनी माँ को लेकर बस यही एक दुख सालता रहता था बचपन में कि ये मुझे क्यों छोडक़र चली गयीं? दूसरों की माँ हैं, वो अपने बच्चों को कितना प्यार करती हैं और हमारी माँ क्यों इतनी जल्दी मुझे छोडक़र चली गयीं? मैंने ऐसा क्या गुनाह किया था? इसकी बहुत चिन्ता होती थी। दुख भी होता था। वो दुख आज भी है और हमेशा रहेगा। अगर वो रहतीं तो ये दुख न होता। दूसरे बच्चों को देखता तो लगता कि बच्चे, माँ के साथ झगड़ा करते हैं, माँ उनको बहुत प्यार करती है, फिर माँ मारती है उनको, ये चीज़ें हमने मिस किया अपने जीवन में। हमारा बचपन इन सारे सुखों और भावनात्मक खुशियों से वंचित ही रहा। इस बात का गम तो रहा हमेशा। वो चीज़ कभी-कभी बहुत तकलीफ देती है जब सोचता हूँ तो। पहले बहुत सोचता था, आहिस्ता-आहिस्ता कम हो गया लेकिन कम ही रहेगा, खत्म नहीं होगा क्योंकि माँ तो माँ ही है न.....।


जन्माष्टमी में स्वरोच्चारण

जन्माष्टमी के दिन मैं चौबीस घण्टे बाँसुरी बजाता हूँ। करीब पच्चीस साल हो गया ऐसा करते हुए। भगवान कृष्ण ने इस वाद्य को दिखाया और सारी दुनिया चोरी करके ले गयी। वही तो हमारे दिग्दर्शक हैं। वे ही तो हमको रास्ता दिखाने वाले हैं, इस वाद्य का। हमने इस वाद्य को अपनी साधना का आधार बनाया इसीलिए उनकी भक्ति हम इस तरह से करते हैं। लेकिन उसमें जो जान डालने का काम किया, वो तो हमारे गुरु ने किया। उनकी ही प्रेरणा से अपने सब शिष्यों के साथ हम चौबीस घण्टे जन्माष्टमी पर कृष्ण भगवान का जन्मदिन बाँसुरी बजाकर मनाते हैं। इस तरह अपने शिष्यों के भी अन्तर में हम डालना चाहते हैं कि ये जो हम कर रहे हैं, वो तुम्हें भी करना है। बहुत अच्छा वातावरण होता है उस समय, आप देखेंगे तो आपको अहसास होगा, कैसा लगता है..........।़ वो सही पूजा होती है। जन्माष्टमी के दिन मंत्रोच्चारण तो हर मन्दिर में मिलेगा लेकिन हमारे घर स्वरोच्चारण होता है। रात बारह बजे से लेकर अगली रात बारह बजे तक।
मैं अक्सर सोचता हूँ कि आज ज़माना जन्मदिन पर, चाहे परिवार हों या मित्र-दोस्त, कितना ऊधम मचाते हैं, कितना हुड़दंग करते हैं, कितना शोर-शराबा करते हैं। इन सबके बीच मैं अपने प्रभु, अपने बाँसुरीवाले का जन्मदिन चौबीस घण्टे बाँसुरी बजाकर मनाता हूँ तो उसमें बुरा क्या है? हमारे शिष्य भी बरसों से इसी भावना के साथ जन्माष्टमी के पर्व पर मेरे साथ शामिल होते हैं। हम सब मिलकर जन्माष्टमी, भगवान कृष्ण का जन्मदिन इसी भावना के साथ मनाते आ रहे हैं।


सफलता का रहस्य

सफलता का रहस्य......यह तो इन्सान पर निर्भर करता है कि वो किस चीज़ को सफलता मानता है? किसी-किसी का दिल नहीं भरता। पैसा कमाते जाते हैं मगर फिर भी दिल नहीं भरता, और लोगों का गला काटते रहते हैं और खून पीते रहते हैं। ऐसे भी लोग हैं और वो समझते भी नहीं कि वो सफल हो गये हैं। फिर उसी में वो बरबाद भी हो जाते हैं फिर भी नहीं समझते। ये आपके ऊपर निर्भर करता है। कुछ-कुछ लोग हैं जो दो रोटी में भी यह समझते हैं कि हमको ऊपर वाले ने बहुत कुछ दे दिया। कुछ लोगों के पास दस मकान भी होंगे, भले ही वे एक मकान में रहते हों मगर यह चाहेंगे कि और एक मकान मिल जाये। सारा जीवन वो अतृप्त रहते हैं। जब तृप्ति नहीं होगी तो सफलता कैसे मिलेगी? एक आदमी वो होता है जिसे कि मालूम होता है कि हमारे पास इतनी बड़ी चादर है कि हमारा पैर ढँक जायेगा, वो यह सोचकर सन्तुष्ट हो जाता है। कुछ लोगों के कबर्ड में चादर भरा हुआ है, वो और भी भरते जाते हैं उसमें लेकिन उनको लगता है कि फिर भी कमी है उनके जीवन में। ये मनुष्य पर निर्भर करता है कि उसकी इच्छाएँ कहाँ जाकर अनुशासित होती हैं।
हर आदमी सफलता के पीछे पड़ा रहता है। कोई बिजनेस में सफलता पाना चाहता है, कोई कुश्ती-कसरत में सफलता पाना चाहता है, कोई आदमी स्पोर्टर्स में सफलता पाना चाहता है कि मैं इतने हज़ार रन बना लूँ, यह सब निर्भर करता है, अपनी-अपनी तसल्ली के धरातल पर। मैं कितने रन बना लूँ तो मेरा जी तृप्त हो जायेगा, कोई आदमी बिजनेस में है, सोचता है अपनी चार फैक्ट्री लगा दिया तो मैं सफल हो गया। कोई आदमी लगाते ही जाते हैं, जैसे बिरला-टाटा लगाते ही जाते हैं, फिर भी वो सोचते हैं कि और भी होना चाहिए। यह भी हर एक इन्सान, हर एक मनुष्य के ऊपर निर्भर करता है कि वो क्या सोचता है, कि अपने जीवन में सफलता का सूत्र क्या होना चाहिए? मैं सोचता हूँ कि मैं तृप्त हूँ। मेरी सफलता से मैं तृप्त हूँ। मैंने जो सोचा था, मुझको मिल गया। भगवान ने दे दिया। अपने आपको मैं बहुत खुश मानता हूँ। मुझे लोग प्यार करते हैं, इससे ज्य़ादा सफलता और क्या चाहिए? किसी को उतना प्यार नहीं मिलता। हमको लोग इतना प्यार करते हैं, इतना सम्मान देते हैं, इससे बड़ी क्या सफलता चाहिए जीवन में..........।़ हम भगवान श्रीकृष्ण नहीं बनना चाहते कि लोग हमारी पूजा करें, हमें प्यार करें बस.......तो मैं अपने आपको भाग्यवान समझता हूँ भगवान श्रीकृष्ण से भी। उनकी तो लोग पूजा करते हैं, हमको लोग प्यार करते हैं। चाहे ठण्ड हो या गरम हो या बारिश हो फिर भी प्यार से आकर सुनते हैं, बातचीत करते हैं और मिलते हैं। छोटे बच्चे भी जिनको ज्य़ादा मालूम नहीं होता, वो आकर बैठते हैं, पास आकर आटोग्राफ मांगते हैं, उनका प्यार देखकर मन गदगद हो उठता है।


क्रोध तो आना ही चाहिए

मनुष्य को भगवान ने ऐसा बनाया है कि उसमें क्रोध भी होना चाहिए, उसमें कृपा भी होना चाहिए, उसमें दूसरों का सत्कार करने का जज़्बा भी होना चाहिए, उसको हँसना भी चाहिए, सब बातें होना चाहिए तभी तो मनुष्य माना जायेगा वरना मनुष्य कैसा? मुझे भी क्रोध आता है, कभी किसी बात पर आ भी जाता है। कभी दाल में नमक ज्य़ादा हो गया और भूख लगी है तो क्रोध आ भी जायेगा। इसमें क्या बड़ी बात है? हमने तो कभी नहीं देखा कि दाल में नमक खूब हो जाये तो आदमी डांस करने लगे........आ...हा....ऐसा ही होना चाहिए। मिर्ची सब्ज़ी में हो गयी, डांस करने लगे......थोड़ा क्रोध तो आयेगा। आपने देखा है किसी को, जली रोटी आयी हो और वो खुशी से डांस करने लगे.....आहा......क्या रोटी आयी है....। सबको क्रोध है। वहाँ क्रोध आना ही चाहिए। नहीं तो फिर आपका दिमा$ग सन्तुलित नहीं है।


बाँसुरी के सिवा कोई शौक नहीं

बाँसुरी के अलावा मेरा कोई शौक नहीं है। बचपन से वही किया, वही करता आया। वही करता रहूँगा, जब तक जि़न्दा रहूँगा और अगले जन्म में भी वही करूँगा, अगर मनुष्य का जन्म हुआ तो। जो मिल गया वो खा लेता हूँ, कुछ बनाने-वनाने का शौक नहीं है। बहुत साधारण आदमी हुआ। जैसा हुआ वैसे रह लेता हूँ। लेकिन सब कुछ अच्छा ही मिलता है। जहाँ जाता हूँ वहाँ परिवार की तरह लोग मिल जाते हैं, इससे बड़ी क्या बात होगी.........।़


फिल्म, शिव और यश.....

फिल्म संगीत की तरफ आना, मुम्बई में रहने और काम करने के योग के साथ जुड़ा। मैं रेडियो में नौकरी करता था। शिव कुमार जी फिल्मों में बजाने के लिए आये थे। हमारी मुलाकात हुई। मैं भी फिल्मों के लिए बजाता था। दोनों रोज़ मिलते थे। बातें होती थीं, इस तरह शुरूआत हो गयी। अलग-अलग म्युजि़क डायरेक्टरों के साथ काम करते थे। आगे चलकर हम दोनों में भाई की तरह सम्बन्ध हो गया। बाद मेें जब प्रोड्यूसर्स ने पूछा कि आप दोनों फिल्म के लिए संगीत देंगे तो हमने कहा कि ज़रूर, यह हमारा व्यवसाय तो नहीं है मगर इसको हम शौकिया करेंगे। हमें अवसर मिले, हमने किया। चूँकि शौकिया कर रहे थे, लिहाज़ा अच्छा काम किया और लोगों ने खूब पसन्द भी किया। भाग्य भी अच्छा था।
यश चोपड़ा से जुडऩे का कारण यह था कि हम लोग उनके बहुत निकट थे। यश चोपड़ा ने ही हमें पहले ऑफर किया, तो उनके साथ काम शुरू किया। उनके लिए हमने सिलसिला, चांदनी, लम्हें आदि फिल्में कीं। हमने और भी दूसरे डायरेक्टरों के साथ भी काम किया। लेकिन यश चोपड़ा के साथ हमने ज्य़ादा काम इसलिए किया कि उनके साथ हमारा एक फेमिली जैसा सम्बन्ध हो गया था। वो हमारी जो थोड़ी सी कमियाँ थीं उनको वो समझते थे। कमियाँ मतलब, कभी हम बाहर प्रोग्राम में जायेंगे, तो कोई नहीं रहेगा, उसको एडजस्ट करना, लास्ट मूमेन्ट में हमने उनसे कह दिया, आज हम भोपाल जायेंगे बजाने और ऐसे में उनकी कोई शूटिंग या शेड्यूल पड़ गया, तो उसमें हम यह नहीं कह सकते कि आज हमारी रेकॉर्डिंग या शूटिंग है इसलिए हम बजाने नहीं आ सकते। तो ऐसी सारी चीज़ों को सहृदयतापूर्वक वे एडजस्ट करते थे जो दूसरे लोग नहीं करते।
अभी तो फिल्म एकदम छोड़ दिया है क्योंकि मैं अभी दूसरे कार्यक्रम में लगा हूँ गुरुकुल के। फिर प्रोग्राम भी टू-मच हो जाता है। अब मैं छ: महीने विदेश में भी रहता हूँ। तो मेरी वज़ह से किसी को परेशानी न हो, इसलिए मैंने थोड़ा बन्द करके रखा हुआ है।

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

Sk!Hariji ka yah interview bahut sunder hai.