बुधवार, 4 अगस्त 2010

सुप्रतिष्ठित गायिका गिरिजा देवी से एक दुर्लभ मुलाक़ात

भारतीय शास्त्रीय संगीत परम्परा की यशस्वी और मूर्धन्य विभूति सुश्री गिरिजा देवी से बात करना जैसे सुरीले अमृत तत्वों को अपनी शिराओं में निरन्तर प्रवाहित होना, अनुभव करना है। दो वर्ष बाद गिरिजा देवी अस्सी बरस की हो जाएँगी लेकिन बचपन में पिता बाबू रामदास राय ने अपनी बिटिया को संगीत के साथ-साथ बहादुरी की और भी जिन साहसिक कलाओं में दक्ष किया था, उसी का परिणाम है कि वे चेहरे से हर वक्त तरोता$जा और ऊर्जा से भरपूर दिखायी पड़ती हैं। पाँच वर्ष की उम्र से उन्होंने बनारस घराने के निष्णात कलाकारों स्वर्गीय पण्डित सरजू प्रसाद मिश्र और पण्डित श्रीचंद मिश्र से संगीत सीखना शुरू किया। शास्त्रीय और उप शास्त्रीय संगीत में निष्णात गिरिजा देवी की गायकी में सेनिया और बनारस घराने की अदायगी का विशिष्टï माधुर्य, अपनी पाम्परिक विशेषताओं के साथ विद्यमान है। ध्रुपद, ख्य़ाल, टप्पा, तराना, सदरा, ठुमरी और पारम्परिक लोक संगीत में होरी, चैती, कजरी, झूला, दादरा और भजन के अनूठे प्रदर्शनों के साथ ही उन्होंने ठुमरी के साहित्य का गहन अध्ययन और अनुसंधान भी किया है। भारतीय शास्त्रीय संगीत के समकालीन परिदृश्य में वे एकमात्र ऐसी वरिष्ठï गायिका हैं जिन्हें पूरब अंग की गायकी के लिए विश्वव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त है। गिरिजा देवी ने पूरबी अंग की कलात्मक विरासत को अत्यन्त मोहक और सौष्ठवपूर्ण ढंग से उद्घाटित करने का महती काम किया है। संगीत मे उनकी सुदीर्घ साधना हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के मूल सौन्दर्य और सौन्दर्यमूलक ऐश्वर्य की पहचान को अधिक पारदर्शी भी बनाकर प्रकट करती है।


बनारस, मेरा घर और घराना

मेरा जन्म वाराणसी में हुआ और मैं वहीं पर अपने पापा के साथ रहती थी। उन्हें संगीत का बड़ा शौक था और उनको सुनने से मुझे भी शौक हो गया मगर शौक ऐसा हो गया कि पापा ने फिर मेरी पाँच साल की उम्र में ही संगीत सिखाने के लिए गुरु जी को बुलाया और शुरूआत की। वो मेरे पिताजी के गुरु भी थे, उन्होंने भी गाना-वाना उनसे सीखा था लेकिन वो थे सारंगी के नवा$ज थे स्वर्गीय पण्डित सरजू प्रसाद मिश्र जी बनारस के। लेकिन मेरे पिताजी मुझे गाना सिखाना चाहते थे तो इस तरह फिर मेरा गाना शुरू हुआ, उनसे सीखना। फिर मैं चौदह साल की उम्र तक उन्हीं से गाना सीखती रही और उसके बाद उनकी डेथ हो गयी। अठारह साल की उम्र में फिर मेरे दूसरे गुरु जी हुए। उस बीच मेरी शादी भी हो गयी। उस समय, ज़माने मेें छोटेपन में शादी हो जाया करती थी, मेरी शादी सोलह साल में हो गयी थी। अठारह साल मेें बेबी हो जाने की वजह से बाद में फिर मैंने गाना शुरू किया और बहुत रिया$ज और बहुत अच्छी तरह से सब करना पड़ता है।
उस समय ऐसा था कि लड़कियाँ गुरु जी के घर नहीं जाती थीं, गुरु जी ही घर आते थे। घर में शिक्षा-दीक्षा होती थी और मेरे दादा गुरु जी जो थे वो इतना मानते थे कि सुबह नौ, साढ़े नौ बजे आ जाते थे और शाम को चार बजे, साढ़े चार बजे जाते थे, गर्मी के दिन में और जाड़े के दिन में तो जल्दी चले जाते थे। तो वे खाना-वाना खा करके आराम करते थे, हम लोग उनकी तमाखू भरते थे, उनका पीठ दबाना, उनका सिर खुजलाना ये सब करते थे, बच्चे थे तब। तो उस समय गुरु की सेवा करना और गुरु का हमारे माँ-पिता कैसे सम्मान करते थे, तो ये देख-देखकर के बच्चों में एक ची$ज बन जाती है न, इसके बाद पढ़ाई मेरी स्कूल में शुरू किया था लेकिन तीसरे क्लास में जाते-जाते मैंने कहा, मैं नहीं पढूँगी क्योंकि इतना टीचर्स मेरे पिताजी ने रख दिया था, एक संस्कृत, हिन्दी पढ़ाते थे, उर्दू उस $जमाने में पढ़ाते थे, एक इंगलिश पढ़ाने वाले आते थे और एक गाने के लिए। चार टीचरों का काम करने से घबड़ा जाते थे, बच्चे तो थे ही, तो इसलिए हमने कहा, हम पढ़ेंगे नहीं, गायेंगे। इस पर मेरी माँ बहुत नारा$ज हुई थीं कि गाना ही गाना सीखेगी, पता नहीं इसका गाना चलेगा कि नहीं चलेगा, पता नहीं क्या, आ आ करवाते रहते हैं दिन भर। तो माँ-पिताजी में कभी-कभी ये भी हो जाता था कि लडक़ी को खाना बनाना, घर गृहस्थी सम्हालना, ये सब भी बताना चाहिए, तो इस पर पिताजी ने कहा, नहीं, ये कुछ और ही लडक़ी हुई है हमको, इसलिए सुबह को जब हमें ले जाते थे टहलने के लिए पिताजी, तो चार बजे, साढ़े चार बजे उठकर पाँच बजे हम लोग जाते थे टहलने के लिए। उस $जमाने में पिताजी ने हमें फिर घोड़ा चलाना सिखा दिया, स्वीमिंग करना सिखा दिया, लाठी चलाना सिखा दिया, याने एक तरह से पूरी बहादुरी और पूरा संगीतमय जीवन उन्होंने कर दिया था।
तो वो जो असर पड़ा था मेरे सिर पर, तो वो उतरने का नाम ही नहीं लिया। फिर उसके बाद शादी हो जाने के बाद बच्चे को सम्हालें, क्या करें, तो बेबी एक साल की हुई तब इसको माँ के पास छोड़ करके मैं चली गयी सारनाथ। एक बगीचे में जहाँ कि मैं तीन बजे रात को उठ करके, नहा-धो करके सात बजे तक रिया$ज करती थी। फिर उसके बाद नाश्ता-वाश्ता बना करके, खाना-वाना बना करके, एक मेरे साथ नेपाली नौकर था, एक आया खाना बनाने वाली थी, हम तीन जने ही जाकर वहाँ रहते थे और बच्चे को रो$ज बुला के, देख-दाख करके छोड़ देते थे। इस तरह से हमारा जीवन चला। पति भी हमारे रात को वहाँ चले जाते थे और गुरु भी जाते थे। तो वो लोग एक क मरे मेें, मने, वरण्डा था, वहाँ सोते थे और कमरे में मैं रहती थी। उस समय बिजली भी नहीं थी और हम लोगों को लालटेन जला करके रहना पड़ता था, सारनाथ में। ये बात मैं बता रही हूँ आपको करीब, पैंसठ साल तो हो ही गया, हाँ तेरसठ-चौंसठ साल पहले की बात है। उस समय बनारस में बिजली आ गयी थी परन्तु सारनाथ तरफ नहीं थी। तो इस तरह से एक बरस वहाँ पर, जिसको कहिए कि हमने अपने को बन्द कर लिया था। न किसी से मिलना, न जुलना। खाली संगीत का अध्ययन। फिर गुरु जी हमारे बैठ के सिखा देते थे। फिर वो लोग रिक्शे में चले आते थे शहर फिर मैं दिन को तीन बजे उठकर रिया$ज करती थी। शाम को गुरु जी फिर आते थे, तब रात आठ बजे से लेकर दस बजे तक उनका रिया$ज, इस तरह से छ: - सात घण्टे का रियाज चलता था।



इलाहाबाद के रेडियो स्टेशन में पहला प्रोग्राम


फिर जब मैं घर आयी तो सारी गिरस्ती पड़ गयी मेरे ऊपर। मेरे भाई, बहनें, ये सब कोई और रिश्तेदार-नातेदार, शादी - बयाह सभी मे हिस्सा लेना था लेकिन मैं संगीत के लिए अपना टाइम निकाल लेती थी। इतना सब करते-करते, फिर फॉट्टीनाइन में इलाहाबाद रेडियो स्टेशन बना तो उसमे मैंने पहला प्रोग्राम दिया, तो उस जमाने में ऐसा नहीं था, कि ए ग्रेड मिले, बी ग्रेड मिले, सी ग्रेड मिले। ग्रेडेशन का ऐसा कुछ था ही नहीं। सामने ही स्टेशन डायरेक्टर वगैरह बैठे थे, सुनकर ही वो लोग कर देते थे, तो फिर मुझको रैंक वैसा ही दिया जैसे बिस्मिल्लाह भाई, सिद्धेश्वरी देवी और रसूलन बाई का, हरिशंकर मिश्रा जी का, जो लोग गायक वगैरह थे, उन्हीं के ग्रेड में। क्योंकि पता इस तरह से लगा कि जो चेक उन्हें मिलता था, वो ही चेक हमें मिलता था। तो इस तरह पता लगा कि नबबे रुपया उनकी फीस थी तो नबबे रुपया मुझे भी मिल गयी। फस्र्ट क्लास उन्हें भी तीन मिला, हमें भी तीन मिला। तो एक बराबर, समझ में आया कि उन लोगों ने किया था। तो कोई बात नहीं थी, सब भगवान की, गुरु की कृपा थी, मिला, मिला। तो फॉट्टीनाइन से मैंने इलाहाबाद रेडियो स्टेशन से गाना शुरू किया।
फिफ्टीवन में मैंने पहला कान्फ्रेन्स आरा में किया। बिहार में आरा एक जगह है, पटना, आरा। तो आरा में जब मैंने वहाँ पर गाया तो बहुत बड़ी बात ये हुई कि एक तो खुले पण्डाल में हो रहा था प्रोग्राम और दूसरे पण्डित ओंकारनाथ जी आने वाले थे बनारस से, उस समय वहीं थे यूनिवर्सिटी में पण्डित ओंकारनाथ जी ठाकुर, तो वो आने वाले थे लेकिन उनकी गाड़ी बीच रास्ते में खराब हो गयी और सुबह उनका प्रोग्राम था ग्यारह बजे से। तो वो नहीं आये और उस जगह हमको बिठा दिया लोगों ने गाने के लिए। इतनी पबलिक आयी थी उनके नाम से कि कह नहीं सक ते, सिर दिख रहा था आदमी का, पता नहीं लग रहा था कितने भरे हुए लोग हैं। तो उस वक्त मैंने जो गाना गाया वहाँ पर। करीब डेढ़ से पौने दो घण्टे मैंने गाना गाया, ख्य़ाल गायी, टप्पा गाया, उसके बाद ठुमरी गायी मगर उसी दिन पहली बार मैंने बाबुल मोरा नैहर छूटो जाये, गाया था, तब से लेकर लगातार उसको कितनी ही बार गया। आज तक लोग पूछते हैं मगर अब मैंने उसे गाना बन्द कर दिया है। गाते-गाते हद्द हो गयी, वो जन गण मन हो गया था मेरे लिए (हँसती हैं) बाबुल मोरा नैहर छूटो जाये। इसलिए वहाँ गायी इक्यावन दिसम्बर में और जनवरी में बनारस में हुआ सन बावन में। तो वहाँ पर हमारे पति ही इसके पे्रसीडेण्ट थे और सारे बड़े लोग जितने वहाँ के थे, सारे मिल कर के इसको किए थे और तीन दिन का कॉन्फ्रेन्स था जिसमें केसर बाई, पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर, पटवर्धन जी, डी वी पलुस्कर, पण्डित रविशंकर जी, अली अकबर खाँ, उस्ताद विलायत खाँ, मने कौन ऐसा नहीं बचा था सितारा देवी, गोपीकृष्ण मने कोई ऐसा, सिद्धेश्वरी देवी, रसूलन बाई, बिस्मिल्ला भाई जितने लोग थे सब भरे हुए थे उसमें और उसमेें मैंने पहला गाना गाया जनवरी में।

डॉ राधाकृष्णन ने फरमाइश की, एक ठुमरी और ..............

पण्डित रविशंकर जी उस समय रेडियो में थे दिल्ली के। तो उन्होंने जाकर जिकर किया, एक होता था कॉन्स्टेशन क्लब का प्रोग्राम तालकटोरा में, तालकटोरा गार्डन में, उसको करने वाली थीं पटौदी, बेगम पटौदी और सुमित्रा, शीला भरतराम, नैना देवी इन सबने मिलकर उसे बनाया था और निर्मला जोशी, डॉ जोशी की लडक़ी थी, वो ही सेकेट्री थीं। तो किसी तरह उन लोगों को मालूमात हुई तो मुझे बुलाया। मैं भी पहली बार दिल्ली गयी मार्च में और पलुस्कर जी भी पहली बार गये, बड़े गुलाम अली खाँ साहब पहली बार गये। शायद है कि कहीं वो पत्रिका पड़ी होगी मेरे पास। फस्र्ट टाइम था मेरा। तो वहाँ पर सारे राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरु जी सब लोग आने वाले थे। लेकिन उन लोगों को तो काम हो गया तो वो लोग नहीं आये लेकिन उपराष्ट्रपति जी आये डॉ राधाकृष्णन। बाकी सारे पट्टाभिसीतारमैया, सुचेता कृपलानी जितने भी थे सारे उन लोग के लिए एक घण्टे का प्रोग्राम वो लोग करती थीं। फिर रात साढ़े नौ बजे से एक-दो बजे तक चलता था उन लोग का प्रोग्राम। तो उसमें मुझे और डी वी पलुस्कर साहब को और बिस्मिल्लाह खाँ साहब को बीस-बीस मिनट टाइम मिला। कहा गया बीस-बीस मिनट सब लोग गा लीजिए। तो पहले बिस्मिल्लाह खाँ साहब ने बजाया फिर डी वी पलुस्कर साहब ने गाया उसके बाद हमें गाना पड़ा। तो जब हमें गाना पड़ा तो पण्डित जी ने कहा, रविशंकर जी जिनको हम दादा बोलते हैं, हम बोले क्या गायें, वो बजा लिए राग-रागिनी, वो गा दिए ख्य़ाल बीस मिनट में मध्य लय का, तो वो बोले तुम पाँच मिनट टप्पा गा दो और पन्द्रह मिनट की ठुमरी। तो हमने कहा, ठीक है, चलिए, अइसइ गा देते हैं। तो मैंने पाँच-छ: मिनट का टप्पा गाया, उस समय तो बहुत तैयारी थी और यंग एज था तो टप्पा गाया और फिर ठुमरी गा लिया और मैंने करीब दो-तीन मिनट पहले ही खतम कर दिया, कि वो लोग न कहें कि खतम करो। शुरू से मेरी आदत थी कि कोई न, न करे हमें। हम हट जाएँ लेकिन हम न नहीं सुनना चाहते। तो इसलिए हमने सत्रह-अठारह मिनट में खतम कर दिया तब तक डॉ राधाकृष्णन ने आदमी भेजा कि हमें एक और ठुमरी सुननी है। तो मैं बोल्ड तो थी क्योंकि मैं तमाम ये घोड़ा चढऩा, ये करना, लडक़ों के जैसा काम करना, सबके ऊपर अपना रुआब जमाये रहती थी। तो मैं स्टेज से बोली कि मैं गाऊँगी $जरूर मगर ऐसा न हो कि बीच में से उठ जाइएगा आप लोग (हँसती हैं) । तो वो थोड़ा हँस दिए फिर कहने लगे, नहीं। तो मैंने कुछ आधा घण्टा एक और ठुमरी गायी। एक ठुमरी मैंने आधा घण्टा गायी। तो उस समय सारे पत्रकार लोग एकदम सक्रिय हो गये। सबने फिर लिखा। पेपर में आ गया। तो पहला आरा, दूसरा बनारस, तीसरा दिल्ली में मैंने गाया।

सात समुंदर पार तक शिष्य परम्परा की अमरबेल

इसके बाद तो भगवान की कृपा थी। सब जगह मैंने गाया। हिन्दुस्तान में ऐसी कोई जगह नहीं, जहाँ मैंने न गाया हो। विदेशों में भी गयी, विदेशों में भी लोगों ने मेरा देखरेख अच्छी तरह से किया। बहुत इज्जत दिया वहाँ पर भी। कई शिष्याएँ भी हो गयीं वहाँ पर भी जो अपने एन आय आर थे, उन लोगों में भी। इस तरह से तो मेरे संगीत का जीवन चलता रहा मगर संगीत में सबसे बड़ी बात है कि एक तो गुरु को बहुत इज्जत देकर के क्योंकि माँ-पिताजी जन्म देते हैं। पहला गुरु तो माँ ही है जो हमें बात करना सिखाती है, जो ये सिखाती है कि ये माँ है, ये तुम्हारे चाचाजी हैं, पिताजी हैं, काकाजी हैं, इसके बाद के मेरे ज्ञान के गुरु जो थे वे मेरे दादा गुरु जी थे और मेरे पिताजी ने मुझे बहुत सम्हाल करके रखा मगर हम लोग क्या, बहुत छोटेपन में ही शादी हो जाती थी, सोलह-सत्रह की उमर में, शादी हो गयी तो मेरी एक बेबी भी हो गयी अठारह साल की उमर में तो इस व$जह से थोड़ा रुक गया था, मगर इसके बाद फिर मैंने बहुत तबियत से गाना-वाना गाकर के मुकाम बनाया। बस भगवान को याद करके, अपने गुरु को याद करके, बड़ों को याद करके आज तक संगीत का मेरा सफर चला आ रहा है। और ऐसे भी मेरे कई शिष्यों, मतलब ज्य़ादा नहीं दस-पन्द्रह हैं क्योंकि अभी मुझ ही को जानकारी लेने से फुर्सत नहीं मिलती, मेरे रिया$ज से फुर्सत नहीं मिलती। हम कहाँ तक दे सकें लेकिन आई टी सी संगीत रिसर्च एकेडमी ने एक बनाया कलकतते में 1977 में। उसमे वे लोग मुझे ले गये बनारस घराना की वज़ह से और वहाँ पर भी मैंने तीन-चार शिष्यों को बनाया। अच्छी गाती हैं वो लोग क्योंकि हर गुरु को तीन शिष्य मिलते थे। एक तो मेरे गुरु जी का लडक़ा ही गया था। मेरे गुरु जी की डेथ हो गयी थी, दूसरे वाले, उनका लडक़ा। दो वहाँ से मिले थे लेकिन मेरे गुरु जी का लडक़ा था, एक ही लडक़ा था, चला आया था घर वापस। दूसरी की डेथ हो गयी, तीसरी गाती है।
फिर उसके बाद मैं हिन्दू यूनिवर्सिटी में आयी। वहाँ एज़ ए विजीटिंग प्रोफेसर मैं दो साल थी और फिर उसके बाद घर में ही और फिर प्रोग्राम वगैरह अमेरिका, लन्दन, इधर-उधर जाने में ही बहुत टाइम लग जाता है। दो-दो महीने, डेढ़-डेढ़ महीने वहाँ का प्रोग्राम सब रहता था। फिर इसके बाद मैं घर में सिखाती थी बच्चों को। लेकिन वाराणसी मे मुझे शिष्य कुछ अच्छे नहीं मिले। जैसा कि मैंने कलकतते मे देखा शिष्य, तो उनको बहुत ज्य़ादा लालसा होती थी कि संगीतज्ञ बनें, चाहें वो सरोद हो, सितार हो, तबला हो, गाना हो, कुछ भी हो। वहाँ लड़कियाँ सुरीली, समझदार, अच्छी तरह से इसीलिए मैंने कलकतते में ही अपना एक और घर बना लिया। बनारस में तो ही मेरा घर, अभी तक है मेरा घर। मैं हर दो-तीन महीने में जाती हूँ बनारस। लेकिन कलकत्ते मे मैं चली आयी क्योंकि मेरी एक ही बेटी है। उसी शादी कलकतते में हुई थी। हमारी देखरेख के हिसाब से भी हम चले आये क्योंकि हमारे पति की डेथ हो गयी थी सेवन्टीफाइव में और सेवन्टीसेवन में मैं चली आयी थी कलकतते। तब से वहीं रहती हूँ बस आना-जाना लगा रहता है। कलकतते में मुझे चार-पाँच शिष्य बहुत अच्छे मिले। उनको मैंने बहुत प्रेम से सिखाया और गाते भी बहुत अच्छे हैं। वक्त आने पर सबका नाम बताएँगे क्योंकि एक शिष्य का नाम बता दें तो दूसरे शिष्य दुखी होते हैं कि मेरा नाम क्यों नहीं लिया, तो इसलिए। बड़े अच्छे शिष्य तैयार हो रहे हैं और पूरा गायकी हमारे घराने की, बनारस घराने की , सेनिया घराना। जितना ख्य़ाल अंग और ये सब है और बनारस का भी उसमें अंग है ख्य़ाल गाने का, वो मैंने तो याद किया लेकिन इसके बाद टप्पा, तत्कार, सदरा, तराना, ध्रुपद, धमार फिर आपके ठुमरी और होली, चैती, कजरी, झूला ये सब मैंने वहाँ पर सीखा।
हमें शौक था शादियों के गीत, बच्चा होने के गीत इन सबका, हमे बचपन मे गुड्डा-गुडिय़ों की शादियाँ करने का शौक बहुत था। इसमें गुरु माँ के घर की लड़कियों को और अपने दोस्तों को बुला के ढोलक पर उनका गाना सुनती थी और सबको खाना खिलाती थी। मुझे खाना खिलाने का बहुत शौक है। तो वो सब मेरा बचपन से ही चला आया। उसको कोई रोक नहीं सका। और मैं खाना बनाती हँू चार आदमी का और आठ आदमी को बुला लिया, आओ मेरे साथ खाना खाओ, कुछ इस तरह का रहा है मेरा। और न ही मेरा कोई सिनेमा देखने का शौक है, न ही कोई क्लब, न ही ये सब करने का शौक नहीं था। एक भारतीय स्त्री को जो वास्तव में जरूरत है, वो चीजें मुझे मेरे घर से, लोगों के यहाँ देखने से, मेरे गुरु घराने से, वो ची$ज में मैं पली और बढ़ी। मगर जब बाहर गयी तो वहाँ का भी देखा कि कैसे फॉरेन में लोग रहते हैं, जाते हैं लेकिन मेरी जो चाल थी, उसमें उनकी तरह वैसा कुछ भी मैंने आने नहीं दिया। अपना पहरावा-ओढ़ावा, खान-पान, बातचीत सब कुछ इस तरह से किया जो मेरा अपना संस्कार था। ऐसे दस-बार शिष्य अमेरिका, लन्दन, न्यू जर्सी में हैं, फ्रांस और इटली में भी हैं, लेकिन बहुत कायदे से, मैंने कहा कि सा रे गा मा से शुरू करके तुम्हारी नींव मजबूत करें फिर तुम्हें अच्छी तरह से बना सकते हैं हम। तो दो-तीन लड़कियाँ अच्छी हैं और खुद भी टीचिंग कर रही हैं अभी।

फिफ्टीवन से दो हजार सात तक..........

तो ये सब भगवान की और गुरु की कृपा है और मेरे बड़ों का आशीर्वाद है कि जो चला आ रहा है अभी तक पचपन-छप्पन साल हो गये। मैं तो आज भी जब भी श्रोताओं के सामने जाती हूँ, तो मुझे लगता है कि ये श्रोता नहीं हैं बल्कि भगवान ने जो बनाया है, ईश्वर के सारे रूप यहाँ बैठे हुए हैं और मैं आँख बन्द करके भगवान और अपने गुरु का स्मरण करके गाती हूँ। लेकिन हर चीज का एक समय है। जैसे आज मैं डेढ़ घण्टे बैठकर यमन कल्याण गाऊँ तो कुछ लोग आते हैं टिकिट लेकर के टप्पा सुनने को, कुछ लोग आते हैं ख्य़ाल सुनने को, कुछ लोग आते हैं ठुमरी सुनने को, कुछ लोग आते हैं दादरा सुनने, कुछ लोग आते हैं लोकगीत सुनने, कुछ लोग भजन सुनने आते हैं तो हम पहले ही ऑर्गेनाइजर से पूछ लेते हैं कि भई हमें समय कितना है, उन्होंने कहा कि डेढ़ घण्टा तो हम आधे घण्टे, चालीस मिनट में ख्य़ाल थोड़ा कम्पलीट जैसा मेरे गुरु ने सिखाया वैसा ही मैं गा देती हूँ। उसके बाद पन्द्रह मिनट एक ठुमरी, दस मिनट वो, पाँच मिनट वो करके उनका डेढ़ घण्टा मैं पूरा कर देती थी कि लगता ही नहीं था कि समय कहाँ चला जाता है। लोग तब और सुनने की फरमाइश करते थे। हम समय की बहुत इज्ज़त करते हैं। अगर आपने हमको पाँच बजे का समय दिया गाने के लिए तैयार रहने के लिए तो हम चार चालीस पर तैयार होकर के खड़े रहेंगे। इतनी समय की पाबन्दी मुझे हो गयी है। समय की कदर करना चाहिए क्योंकि जो समय चला जाता है फिर वापिस नहीं आता।

नयी सदी की संस्कृति

ये सब बातें और हिन्दी के बड़े-बड़े लोगों की कहानियाँ, कविताएँ ये सब पढ़ती थी, इसलिए मुझे हिन्दी साहित्य से बहुत ही लगाव है। उसके बाद बंगाल के लोग, महाराष्ट्र के लोग, उनके बारे में जैसे रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बारे में, काजी नजरूल के बारे में जानते हैं और इन लोगों की कविताएँ सुनते हैं तो मुझे बहुत पसन्द आती हैं। महाराष्ट्र में भी इतने लोग हुए हैं, मराठी गाना, मराठी ड्रामा सब मैंने देखा, समझ में नहीं आता था तो पूछ लेते थे। इसलिए हर जगह की अपनी-अपनी एक वेल्यू है और हर जगह में ही विद्वान लोग हैं। मगर अब क्या हो गया है, पहले की फिल्म के, या ऐसे भी ग$जल, कव्वाली सब होती थी मगर तब उसकी इज्ज़त और सम्मान रखकर लोग बैठते थे। आज न वो ग$जल में ची$ज रह गयी, न कव्वाली में, न वो फिल्म संगीत में। इतना कुछ, ज्य़ादा ही कुछ हटता जा रहा है साहित्य से कि कुरता फाड़ के देख लो, कि कऊआ बोल रहा है, और कोई शबद नहीं मिल रहा है सबको कि कोयल बोलती है, मोर बोल रहा है, ये सब नहीं। तो इसलिए दुख भी लगता है कि बहुत दुनिया बदलती चली जा रही है। उस जमाने में कॉन्फ्रेन्स शुरू होती थी रात को नौ बजे तो सुबह पाँच बजे-छ: बजे खत्म करते थे। पूरे रात हम लोग देखते थे उसको। मगर आज तो रात को नौ बजे भी निकलने मे डर लगता है कि कोई छीना-झपटी न कर दे, कोई कुछ न कह दे। फिर हम तो गाड़ी में जा रहे हैं लेकिन सबके पास तो गाडिय़ाँ नहीं हैं। कोई रिकशे से जा रहा है, कोई मोटर साइकिल से, कोई साइकिल से। तो इस समय इतनी ज्य़ादा घबराहट हो गयी है कि रात का प्रोग्राम नौ-साढ़े नौ बजे तक लोग बन्द कर देते हैं।

गुरु-शिष्य परम्परा : धीरज और बाजार

आजकल के गुरु को, हम शिकायत नहीं कर रहे हैं, जो शिष्य हैं वो भी चाहते हैं कि हमें इतना जल्दी सिखा दें कि हम एकदम टॉप पर पहुँच जाएँ। टेलीवि$जन और रेडियो, कॉन्फ्रेन्स सब गाएँ और गुरु सोचता है कि इसको फँसाकर रखो कि इससे पाँच सौ-ह$जार सिटिंग का जो मिलता है वो बन्द न हो जाए। दोनों में बन नहीं रही है। लेकिन अभी भी अगर खोजा जाए हिन्दुस्तान में, तो दस-बीस अच्छे गुरु मिल सकते हैं जो कि बैठकर के बच्चों को आगे बढ़ाने का जैसा हौंसला मैं किए हूँ कि दस-बीस बच्चे भी हमारे अच्छे निकल जाएँ तो वे सौ अच्छे शिष्य तैयार कर सकेेंगे, ह$जार शिष्य तैयार कर सकेंगे। हम लोग ऐसे अपने दस ही शिष्य बनाएँ तो बहुत है। मगर खाली अपने बच्चों को सिखाकर, अपने परिवार को सिखाकर कला को बांध लेना उचित नहीं है। देखिए, तकदीर भी कोई ची$ज होती है। ईश्वर की कृपा हो, गुरु की कृपा हो, उसकी तकदीर भी होना चाहिए। माँ जन्म देती है लेकिन कर्मदाता नहीं होती, वो जन्मदाता है। तो इसीलिए कितना भी गुरु कर दे, कोई-कोई गुरु इतने तकदीर वाले होते हैं कि जैसे केलूचरण महापात्र। जितनी भी शिष्याएँ निकली हैं, जितने भी शिष्य निकले हैं सबने नाम किया, चाहें संयुक्ता पाणिग्रही हों, चाहें प्रोतिमा बेदी हों, चाहें कुमकुम मोहन्ती हों, चाहें उनका बेटा हो शिबू, और वो क्या नाम है, डोना, वो क्रिकेट खेलते हैं सौरव, उनकी पत्नी, सारे बच्चे लोग अच्छा डांस कर रहे हैं। ऐसे गुरु भी जिनका कि भाग्य हो, ऐसे शिष्य उनका नाम रोशन करें, भाग्यवान हैं। हमारे पण्डित बिरजू महाराज के भी अनेक शिष्य हैं। बहुत अच्छे शिष्य निकले उनके, बहुत अच्छा कर भी रहे हैं वो। अब गायन मे पण्डित ओंकारनाथ जी के शिष्य हैं, वो लोग सर्विस में चले गये क्योंकि उनको रुपया मिल जाता है उनके खर्च के लिए, पन्द्रह हजार-बीस हजार। और आजकल मँहगाई इतनी बढ़ गयी है, कि घर का किराया ले लीजिए, कि घर का खाना ले लीजिए, कि बच्चों की पढ़ाई ले लीजिए, सब इतना ज्य़ादा हो गया है कि वो लोग कड़ी से कड़ी मेहनत करके घर को चलाते भी हैं और उसी मे शिक्षा भी देते हैं। मैं बुरा नहीं कहती हूँ शिक्षकों को, उनकी भी अपनी बहुत $जरूरतें हैं। हर लोग तो लाख रुपया, दो लाख रुपया नहीं ले सकता या पाँच लाख रुपया लेकिन जो लोग बहुत अच्छे हो गये हैं जिनके पास करोड़ों सम्पतित है, उन लोगों को आज जो भारतीय संगीत की इज्ज़त दब रही है, जो माहौल है, ऐसा चलेगा, उतने ही बच्चे हमारे बरबाद होंगे। उन्हे अच्छी ची$ज सुनाने-सुनने का मौका मिलना चाहिए। जैसा कि स्पिक मैके कर रहा है, यूनिवर्सिटीज और स्कूल में, कॉलेज मे प्रोग्राम करते हैं, बहुत अच्छा लेक्चर डिमॉस्ट्रेशन देना, उन्हें समझाना, वैसा हम लोग प्रयत्न कर रहे हैं कि ऐसी कोई और भी संस्था बनना चाहिए जिसमें लोग वर्कशॉप करवाएँ, चाहें भोपाल हो, इन्दौर हो, मुम्बई हो। मैंने भी वर्कशॉप किया, मुम्बई में जाकर नेहरु सेंटर में। सभी लोग आए, बच्चियाँ भी, आरती अंकलीकर से लेकर अश्विनी भिड़े भी, पद्मा तलवलकर, सब लोग आये, बहुत लोग आये मगर सात दिन के अन्दर, पाँच दिन के अन्दर हम कितनी ची$जें उन्हें बता सकते हैं। गायकी का रूप या भाव नहीं बता सकते जब तक बैठकर कुछ दिन नहीं सीखेंगे। यदि रेकॉर्ड से सीखेंगे तो भी मैं कैसे उसको कहती हूँ, यह थोड़ी पता लग पायेगा। तो बच्चों को गवर्नमेेंट हेल्प करे या कम्पनी$ज हेल्प करेें क्योंकि देखिएगा, एक गुरु को भी तो कुछ चाहिए। फ्री तो आ नहीं सकते। अपना खर्चा-वर्चा लगा के आएँ, उनको रहने का, सात-आठ दिन का जैसा, उनकी इज्ज़त हो, उसके ऊपर तो खर्च होगा लेकिन वो बच्चे जो सीखेंगे, कुछ सार्थक रहेगा। इसके ऊपर ध्यान देना चाहिए। सीखने-सिखाने वाले सब लोगों को अच्छी राह दिखानी चाहिए, अच्छी राह पर चलना चाहिए।

पिताजी की याद.......

बाबू रामदास राय मेरे पिताजी का नाम था। मेरे पिताजी तो हर बखत याद आते हैं। हम लोग गाँव में रहते थे। जमींदारी थी, थोड़े हिस्से की। आधी हमारी और आधी हमारे रिश्तेदारों की जो दादा-परदादा के जमाने से चली आ रही थी। बाद में पिताजी वो सब हमारे परिवार में रखकर के बनारस चले आये थे। काशी आने के बाद ही हमारे घर में गाने-बजाने का माहौल बना। पहले पापा ने सीखा, मेरे को भी आ गया। तो पापा की तो हर बखत याद आती है। जिस समय मैंने सीखा उस समय वो कठिन दौर निकल चुका था जब लड़कियों को गाने-बजाने से रोका जाता था। पण्डित मदन मोहन मालवीय की बेटियाँ सीख रही थीं, इधर महाराष्ट्र में लोग निकल गये थे हीराबाई बड़ोदेकर, केसर बाई, गंगूबाई हंगल ये लोग निकल चुकी थीं। सिद्धेश्वरी देवी भी गा रही थीं लेकिन ये लोग राज दरबार में भी गाती थीं मगर मेरे पिताजी ने और मेरे पति ने कहा, नहीं, हम राज दरबार में नहीं गाएँगे। चाहें वो लाखों दे देते, करोड़ों दे देते, नहीं जाते।

कलाकार का सच्चा धर्म

एक कलाकार का सच्चा धर्म यही है कि वो अपनी सत्यता को न छोड़े। सत्य का जीवन में पालन करे। जहाँ तक हो सके, हम यह नहीं कहते कि कृष्ण, राम सब सामने खड़े हैं लेकिन मैं उन्हें मानसिक रूप से मानती हूँ। उनका जो रूप है उसकी मैं पूजा करती हूँ क्योंकि उन्होंने बहुत बड़ा कार्य किया है। वो मोक्ष दिए कि नहीं दिए लेकिन इतने बड़े हो गये हैं कि उन्हें हमें मानना पड़ता है। उनकी बातों को अपने शास्त्रों के अनुसार अपनी रामायण में, अपनी गीता में जो पढ़ते हैं तो कुछ तो किया है उन्होंने। ऐसे तो कोई निकालेगा नहीं उनकी किताबें। चाहे हिन्दू हों या मुसलमान हों, पहले हम लोगों में कितना मेल था, इतना मेल रहता था, आज के जीवन में देखिए छोटी-छोटी सी बात पर कटुता बढ़ती चली जा रही है। पहले उस्ताद लोग भी बहुत ही सीधे थे और बहुत ही सच्चे थे। जिसको भी वे सचमुच मानते थे कि ये लडक़ा या लडक़ी ठीक है, उसे आशीर्वाद देते थे नहीं तो उसको तुरन्त कहते थे कि न, अभी तुम बाहर जाने लायक नहीं हो। अभी तुम गुरु या उस्ताद से सीखो। ये ची$ज ठीक करो, वो तुम्हारी तानें ठीक नहीं हैं, स्वर सही नहीं हैं, ताल ठीक नहीं है, ये सब वो लोग बताते थे। आज किसी बच्चे को कह दो तो वो कहेगा, वाह, मैं कोई खराब थोड़े ही हूँ, मैं तो बढिय़ा हूँ। ऐसे में कौन बोलेगा भला, झगड़ा मोल लेगा। भाई आप जानिए, आपका काम जाने। तो इस तरह से चलता है ये समाज, ये दुनिया। कुछ न कुछ ऋतु बदलती रहती है।

ईश्वर के बारे में

भइया ईश्वर के बारे में तो बहुत..........हम तो हर बखत उनको याद करते हैं। थोड़ा मेडिटेशन, खरज, ऊँकार मेरा तो संगीत ही पूजा है। उसी से मैं उन्हें सजाती हूँ, उसी से फूल चढ़ाती हूँ और न मेरे पास फूल है न पत्ती है। उनका तो हर वक्त हृदय में वास रहता है, जैसे माँ सरस्वती हैं, शिव हैं मेरे आराध्य, उनका ध्यान तो रखना ही पड़ता है।

दुनिया को कैसे खूबसूरत बनाया जा सकता है?

दुनिया को खूबसूरत बनाया जा सकता है, कि सब लोग बहुत प्यार-मोहबबत के आदमी हो जाएँ, बहुत सच्चाई आ जाए सबमें और बहुत शालीनता, खासकर के लड़कियों में भी और लडक़ों में भी। उद्दण्ड रहकर के दुनिया को बिगाडऩा ठीक नहीं है। उद्दण्डता कभी ठीक नहीं रही है क्योंकि मैंने सुना है कि जो उद्दण्ड होते थे वो मार दिए जाते थे या खतम कर दिए जाते थे या जेल बन्द कर दिया जाता था। जैसे कंस हुए। हुआ कि नहीं उनका खात्मा। कृष्ण ने किया जिनके वे मामा थे। लेकिन ये नहीं है कि कृष्ण सखियों के साथ दौड़े भी, रासलीला भी किया, खेल भी किए मगर आन्तरिक उनका ये था कि सबको अपने में बुला रहे हैं, अपने पास बुला रहे हैं। मतलब यही था कि मेरे में वो हो जाएँ। तो आपमे, हमारे में सब जगह तो भगवान बसे हुए हैं फिर क्यों लोग एक दूसरे के शत्रु इस तरह से बनते जा रहे हैं? दुनिया को खूबसूरत बनाना है तो सबको एक ही विचार ले करके चलना होगा, चाहे वो किसी भी जाति के हों। मैं यह नहीं कहती कि अमीर और गरीब पहले भी रहे हैं। क्या राम के वक्त धोबी, नाई नहीं था? क्या वो पालकी उठाने वाला आदमी नहीं था? क्या वो राजा बन जाता था? नहीं। राजा राज करते थे, प्रजा को देखते थे और प्रजा को अपना बेटा, अपनी बेटी, अपनी सन्तान मानते थे पर आज के $जमाने में पहले अपने ही पास सब भर लेते हैं मगर उसके बाद खाली हाथ चले जाते हैं। वो भी बेकार है। लेकिन भगवान जब किसी को कुछ देता है तो तुम्हें भी कुछ देना चाहिए। सब लेकर नहीं जाना चाहिए और ले के जाएगा कहाँ से? हम तो खाली हाथ आये थे और खाली हाथ चले जाएँगे। कहा है न मुट्ठी बांधे आते हैं और खाली हाथ चले जाते हैं। आप देखिए छोटा बच्चा पैदा होता है तो मुट्ठियाँ उसकी बंधी होती हैं और जब जाता है आदमी तो हाथ खाली रहता है। तो अगर अच्छा काम करके हम जाएँगे तो सैकड़ों वर्ष हमे लोग याद रखेंगे और यदि हम किसी की बुराई, किसी का ये, किसी की चोरी, किसी का कजरा, किसी का खून, किसी को मारा तो वो बदनाम ही रह जाएगा। इसलिए सब कोई जब तक मिलेंगे नहीं, एक जने कुछ नहीं कर सकते हैं। मगर मैं तो अपने बच्चों को, श्रोताओं को अपने सामने जो होते हैं, यही कहती हूँ कि आपस का प्यार रखो अगर तुम्हें किसी से कुछ बुराई है तो मुँह पर ही बोल दो कि अच्छा नहीं लगा हमें। मन में मैल रखकर कभी जीवन चल नहीं सकता। दोस्त भी मानते हो और मैल भी रखते हो, ऐसा क्यों है? और सबमें संगीत है। आप अगर सही नहीं चलिएगा तो लुढक़ जाइएगा। लोग कहेंगे कि बेताले चल रहे हैं। अगर स्वर में नहीं बोले, बाँ बाँ बाँ बाँ किए तो सब कहेंगे बड़ा बेसुरा बोल रहा है भैया। ऐसी औरतें भी हैं और पुरुष भी हैं। तो स्वर और लय तो हर एक की जिन्दगी में है मगर उसकी खोज करना पड़ता है। अरे अभी तो एक ही जिन्दगी हमारे लिए कम है कि ठीक से जी सकें। इसके लिए कई जीवन चाहिए हमें। न मेरा रियाज ही पूरा हुआ और न मेरी शिक्षा ही पूरी हुई। मैं इसके बारे में क्या बोलूँ? जो मेरे गुरु ने बताया, जो हमारे बाप, माँ, दादा, दादी ने बताया उन्हीं की बात सार्थक है, मेरी अपनी बात तो कुछ कहने की ही नहीं है, उसके लिए तो एक जीवन और चाहिए तब शायद अपनी बात बता सकें। ये सब सुनी सी, देखी सी और सिखायी बात मैं कर रही हूँ। मेरे में कुछ नहीं है। मेरा सब कुछ अर्पण है मेरे गुरु और मेरे भगवान के ऊपर। मैं कुछ नहीं हूँ। और जो करते हैं वही करते हैं। अभी कोई बात कहना है और गला बन्द हो जाए, बोल ही न पाएँ तो कोई तो है सब करने वाला जिसको हम देख नहीं पा रहे मगर है कोई। तमाम दिमाग, आँख, नाक, कान ये सब बनाया है ईश्वर ने। जानवरों को बनाया, कितने जीव बनाए, करोड़ों जीव-जन्तु। ये किसने बनाया? उसका अगर दर्शन हो जाए, उसकी खोज हो जाए तब तो हम बोलने लायक नहीं रहेंगे। हम तो कहीं चले जाएँगे कैलाश पर्वत। फिर आप लोग हमें छू नहीं सकते, बोलना तो बड़े दूर की बात है। लेकिन जब हम जीवन में रह रहे हैं, संसार के जीवन में तो हमें सब कुछ करना पड़ता है। कभी-कभी झूठ भी बोलना पड़ता है। लोग खूब फोन करते हैं तो बेटी से कहते हैं, कह दो सो गयी हैं, कहीं चली गयीं हैं। भगवान का नाम लेते हैं दस बार कि मैंने झूठ बोल दिया। उचित नहीं है यह लेकिन क्या करें, परेशान हो जाते हैं। एक तो उमर भी हो गयी है न, इस उमर में औरतों के लिए, जबकि पचास बरस मे वो बुड्ढी हो जाती हैं, लडक़े तो साठ-पैंसठ बरस में भी लडक़े ही रह जाते हैं। ऐसा कुछ ईश्वर ने बनाया कि पचास बरस में वो बुड्ढी ही कहलाती हैं लेकिन कोई अस्सी बरस, अठहततर बरस, उन्यासी बरस में इतना साहस करके आते हैं तो इसीलिए कि हमारे लिए संगीत को सर्वोपरि रहना चाहिए। ये कभी नीचे नहीं जा सकता। हमारे लिए हमारे पिता से मिली हिम्मत सबसे बड़ी ची$ज है। यह भगवान की दी हुई है कि गुरु की दी हुई है कि पापा की दी हुई है, पता नहीं मगर मैं हिम्मत कभी नहीं हारती। मेरा तो दो साल पहले बायपास ऑपरेशन हुआ उसके बाद हम तो तीन महीने में ही चले गये थे फ्रांस, लन्दन और इटली और अमेरिका प्रोग्राम करने। तो मतलब हिम्मत रखते हैं और उसी हिम्मत से भगवान आप लोग तक हमें पहुँचाए हैं।

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